भाग्य से ज्यादा और समय से पहले किसी को न सफलता मिलती है और न ही सुख !
विवाह, विद्या ,मकान, दुकान ,व्यापार, परिवार, पद, प्रतिष्ठा,संतान आदि का सुख हर कोई अच्छा से अच्छा चाहता है किंतु मिलता उसे उतना ही है जितना उसके भाग्य में होता है और तभी मिलता है जब जो सुख मिलने का समय आता है अन्यथा कितना भी प्रयास करे सफलता नहीं मिलती है ! ऋतुएँ भी समय से ही फल देती हैं इसलिए अपने भाग्य और समय की सही जानकारी प्रत्येक व्यक्ति को रखनी चाहिए |एक बार अवश्य देखिए -http://www.drsnvajpayee.com/
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Monday, October 22, 2012
रामलीला या रावणलीलाएँ
आजकल रामलीलाओं से श्रीराम गायब हो चुके हैं
रावण का
पुतला महीनों तक बनाया जाता है और जिसका पुतला सबसे बड़ा तथा जिसमें
आतिशबाजी अधिक लगी हो वही रामलीला अच्छी और उसी का आयोजक सबसे बड़ा श्रीराम
भक्त मान लिया जाता है।इसमें श्रीराम बहुत छोटे होते ही हैं ।उन्हें छोटा
सा धनुष देकर उनसे मजाक करवाई जाती है।कभी धनुष टूट जाता है तो कभी तीर
मुड़ जाता है। जिसे आगे खड़े दस बीस लोग ही देख पाते हैं देखने की किसी की
रूचि भी नहीं होती है।वैसे भी बेमन दिखाई गई चीज कोई मन से क्यों देखे
?देखने दिखाने वालों का लक्ष्य तो रावण ही होता है। उस पूरी भीड़ का हीरो
एकमात्र रावण ही होता है।उसी के दर्शन के लिए लालायित लोग एकदूसरे के साथ
धक्का मुक्की कर रहे होते हैं।सारी उत्सुकता रावण के पुतले में आग लगने को
लेकर होती है।
कई राम लीला आयोजक तो कुछ नेता मंत्री मुंत्री
मंच पर बुलाकर उन्हें धनुष पकड़ाकर कुछ तीर उनसे चलवाकर फोटो खिंचवाते हैं
किंतु उनका रोल वहॉं क्या होता है?कभी किसी ने बताया नहीं वो राम बनाकर
बोलाए जाते हैं या रावण? पता नहीं कई जगह यदि किसी शक्तिशाली महिला नेता को
यह रोल करना होता है तब बात और उलझ जाती है क्योंकि रामादल में तो महिलाओं
ने कभी धनुष पकड़ा नहीं वैसे भी लड़ने भिड़ने वाली महिलाएँ तो ज्यादातर
उधर ही देखी जाती हैं। खैर जो भी हो प्रशासक तो राजा ही होते हैं रावण भी
प्रशासक था और मंत्री मुंत्री तो प्रशासक होते ही हैं किंतु श्रीराम राजा
तो नहीं थे इसलिए उन नेताओं की जाति बिरादरी से वो अलग थे।खैर वो जिस भी दल
में हों आयोजक जानें और वे जानें हमारा इन बेकार की बातों से क्या लेना
देना?
हम तो बस इतना ही कहना चाहते हैं जेसे देशी घी
में डालडा दूध में पानी राजाओं में नेता घुला मिला दिए जाते हैं उसी
प्रकार श्रीरामलीलाओं के नाम पर खूब धड़ल्ले से रावणलीलाएँ परोसी जा रही
हैं लोगों को इसमें अपनापन भी लगता है। महॅंगाई आदि के द्वारा सरकारों से
सताया जा रहा समाज मेला देखकर इसी बहाने कुछ खरीद खाकर आनंद मना लेता है।
रावणलीलाएँ हैं तो हैं किसी को क्या लेना देना? लोग तो आतिशबाजी सुनते हैं
बस।
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