भ्रष्टाचार और संत एवं मीडिया
सन्तों, सत्यवादियों,
सदाचारियों एवं शास्त्रों का प्रभाव घटते ही अपराध एवं भ्रष्टाचार बढ़ने
लगता है। आज भ्रष्टाचारी एवं अपराधी वर्ग समाज के हर क्षेत्र में घुस चुका
है यहॉं तक कि धर्म क्षेत्र जैसे आश्रमों, यज्ञों, सत्संगों तीर्थों,
प्रवचनों, भागवत कथाओं, साधकों, सिद्धों, भविष्यवक्ताओं, तांत्रिकों,
योगियों आदि के रूप में चारों ओर ऐसे ही लोग धार्मिकों के प्रतीक बनते जा
रहे हैं ये ही शास्त्रीय प्रतिनिधियों के रूप में धन के बल पर शिविर समागम
सत्संगों के नाम पर बड़े बड़े आयोजन करने में सफल हैं। ऐसी आधारहीन बकवास ही
आज शास्त्रीयमत के रूप में प्रतिष्ठित होती जा रही है। प्रायः धन इन्हीं
के पास होता है इसलिए विज्ञापन भी इन्हीं लोगों का होता है। वर्तमान में
शिक्षित, शिक्षक, सत्यवादी, सदाचारी, विद्वान, सन्त एवं अन्य समस्त
शास्त्रीय विषयों के जानकार महापुरूषों ने या तो समाज से किनारा कर लिया
है या समाज ने ही उन्हें किनारे लगा दिया है।
मीडिया के प्रायः
सभी वर्ग मोटाधन लेकर पहले इनका शोर मचा मचाकर प्रचार प्रसार करते हैं।
आपसी डील बिगड़ते ही चिल्ला चिल्लाकर निंदा करते हैं तरह तरह से पोल खोलने
का दावा करते हैं। मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि जरा जरा सी बात
में बाल में खाल निकालने वाले मीडिया के महापुरूषों को क्या पहले पता नहीं
था कि धर्म के नाम पर ये ठगी हो रही है, यदि मान भी लिया जाए कि इन्हें पता
नहीं था तो क्या इन्हें पारदर्शी शास्त्रों का अध्ययन करके स्व शास्त्रीय
विवेक के आधार पर ईमानदारी पूर्वक निर्णय करके ही प्रचार प्रसार नहीं करना
चाहिए था।आखिर बहुपठित परिश्रमशील पत्रकारों की योग्यता का लाभ समाज को
धार्मिक क्षेत्र में भी मिलना ही चाहिए।ऐसा लगता है कि ऐसे मीडिया के
महापुरूषों ने भी या तो समाज से किनारा कर लिया है या समाज ने उन्हें
किनारे लगा दिया है।
विखरते परिवार एवं नष्ट
होता बचपन भ्रष्ट होता समाज आदि । बढती आपराधिक वारदातें मन से होती हैं
तन पर अंकुश लगाना कानून का काम है तथा मन पर अंकुश लगाने के रास्ते
शास्त्रों में बताए गए हैं जिन्हें विद्वान और महात्मा पढ़ते थे एवं अपने
जीवन में उनका पालन करते थे। ऐसे लोगों के संयम सदाचार देख सुनकर लोग
प्रेरित होते थे। वैराग्य तो अब बीते दिनों की बात हो गई है। वैराग्य की
बातें सुन सुनकर कान पक रहे हैं देखने को कुछ मिलता नहीं है। आज भी
शास्त्रों और संतों के प्रति समाज में असीम आदर की भावना है।वस्तुतः भटकाव
लोंगों में नहीं है प्रत्युत तथा कथित संत भटक गए हैं । बंधुओं! ये कलियुग
है किसी का क्या दोष ? वेशर्मी का आलम यह है कि भागवत या रामायण की
पवि़त्र कथाओं के नाम पर कपोल कल्पित कथा कीर्तन करने या नाचने गाने वाले
तरह तरह की वेष भूषा बनाए बहुरूपिए एवं भविष्य बकने वाले लोग अपने को
संत कहने लगे हैं । जनता बेचारी करे भी तो क्या?वो तो रामायण और भागवत आदि
जो भी ग्रंथ अपने आप से पढ़ पाती है उसमें जो साधु संतों की महिमा बताई गई
है उसी रूप में वह हर किसी बहुरूपिए को भी देखने लगती है उसके पास न तो समय
है और न ही अच्छे बुरे की पहिचान।वास्तव में संत एक बहुत बड़ी उपाधि पदवी या स्थिति है जिसकी प्रथम शर्त
वैराग्य संयम सदाचार आदि है धन के आधीन तो गृहस्थ होता है धन की आधीनता न
स्वीकार करने के कारण ही तो वे गृहस्थ नहीं हुए। आश्रम बनाकर चेला
चेलियों में फॅंसना ही पड़ा तो गृहस्थ की तरह वो भी एक आश्रम कथा प्रवचन
विद्यालय चिकित्सालय आदि लोगों को खुश करने वाले उसी के दायरे में फॅंस कर
रह गए। ये काम तो समाज स्वयं भी कर सकता है केवल प्रभावी चरित्रवान प्रेरक
की आवश्यकता होती है पहले से ऐसा ही होता भी आया है। आखिर पैसा तो समाज का
ही लगना है कोई बाबा और कहॉं से कमा कर लाएगा ? उनका तो एक ही बल है
गरीबों की भीड़ और भाषण तथा धनियों का भोजन और दक्षिणा। इसी धन से धंधा
करना और धंधे में अपने पुराने परिवार को सम्मिलित कर लेना या नया परिवार
बना लेना पैसे से परिवार भी सुंदर बन जाता है। पत्नी या शिष्या भी सुंदर
मिल जाती हैं वो तब तक साथ देती हैं जब तक प्रसिद्धि और पैसा रहता है
अन्यथा बाद में चरित्र शोषण का आरोप और मुकदमा कर देती हैं। जो लोग अपनी
एक्टिविटी से प्रसिद्धि और पैसा बरकरार रख लेते हैं उनका सब कुछ आजीवन ढका
चला करता है।
वैसे भी पूज्य साधक संतों के पास नाचने गाने उछलने
कूदने का समय ही कहॉं होता है उन्हें किसी को खुश करने की आवश्यकता ही
क्या है ?महात्मा तो केवल ईश्वर के लिए ही जीवन धारण करते हैं। जिन संतों
की महिमा से वेद पुराण भरे पड़े हैं उनका जीवन कुछ तो अलग होना ही चाहिए ।
जो गृहस्थ न कर सकता हो। नाचना, गाना, उछलना, कूदना, रामायण और भागवत आदि
कथा प्रवचन या अन्य सभी प्रकार के धार्मिक कार्य तो गृहस्थ भी कर लेते हैं।
श्रृद्धेय मालवीय जी ने काशी हिंदू विश्व विद्यालय जैसा शिक्षा का विशाल
तीर्थ स्थापित किया। जहॉं तक नाचने गाने बजाने की बात है फिल्मीजगत से जुड़े
लोग किसी और की अपेक्षा यह कार्य अधिक अच्छा कर सकते हैं इन लोगों के
पहुँचने मात्र से भीड़ अपने आप लग जाएगी। वैसे भी संत ही जब नाचने गाने
उछलने कूदने लग जाएँगे तो फिल्मों से जुडे लोग गीता प्रवचन तो करेंगे नहीं।
नग्नता फूहडता अश्लीलता आदि में उन्हें घुसना ही पड़ेगा़ आखिर उनका तो ये
धंधा है।
गोशाला बनाने से यदि कोई संत बन जाता तो ग्वाले क्या
बुरे थे ? आसन सिखाने से कोई संत होता तो किसान या मजदूर आदि परिश्रमी वर्ग
के लोग क्या बुरे थे ? जिन्हें दिनभर में कई कई बार ये सब आसन करने पड़ते
हैं।योग के नाम पर भोग के साधन जुटा कर कोई योगी कैसे हो सकता है ?यदि नहीं
तो हजारों करोड़ का होगा क्या ? कंचन कीर्ति कामिनी को त्यागने के लिए लोग
योगी या संत बनते हैं।कंचन का अर्थ होता है धन,इसे इकट्ठा करने के लिए जो
पागलों की तरह जुटा पड़ा हो, कीर्ति का अर्थ है यश के लिए जो चैनलों से ही
चिपका रहता हो।और यदि कंचन और कीर्ति के विषय में संयम न रख सका हो तो
तीसरे का संयम राम भरोषे।कामिनी का विषय तो ऐसा है एक पति या पत्नी व्रत या
बहु पति या पत्नी व्रत अथवा कोई ब्याभिचारी भी बासना का सेवन तो एकांत में
ही करते हैं।कोई किसी को नहीं देखता है तो सब संयमी हैं सब योगी हैं किसी
के भी बारे में क्या कहा जा सकता है ?
आखिर, त्याग, तपस्या, चरित्र और संयमी जीवन की पावन प्रेरणा
अब समाज को कौन देगा ? जो कथा प्रवचनों से ही नहीं अपितु आचरण से मिलती है
यह दिव्य संतों के अलावा कहीं और से नहीं मिल पाती जिससे प्रभावित होकर
उन संतों की दिव्य दिनचर्या में समाज अपने जीवन मूल्य स्वयं ढूँढ़ लेता है।
जिसका अनुभव लोगों को स्वयं हो जाता है। आज सबसे बड़ी चिंता इसी बात की है
कौन मिटाएगा समाज की यह भूख कैसे सुधरेंगे संस्कार?इसके बिना अपराधमुक्त
समाज की कल्पना कैसे की जा सकती है ?
अपराध सोचे मन से जाते हैं
करता शरीर है। अपराधी को मृत्युदंड देकर भी अपराध के विषय में सोचने पर
नियंत्रण नहीं लगाया जा सकता है। दंड के नाम पर मृत्युदंड से बढ़कर कानून और
कुछ नहीं दे सकता है यह दंड तो अपराध करने के बाद अक्सर अपराधी स्वयं चुन
लेते हैं । यह सबसे अधिक चिंता का विषय है।जन्म जन्मान्तर के संस्कारों
पुण्यों से किसी किसी को अपने प्राचीन पापों का पता लग पाता है। अपने काले
मन को धोने के लिए कोई कोई चरित्रवान, व्रती, विद्वान, वैरागी और भक्त ही
इस पथ पर अग्रसर होता है।यह पंथ आसान नहीं है अत्यंत कठिन है बड़ों बड़ों का
मन डोल जाता है। इस प्रकार अदृढ़ वैराग्यवान लोग भटक जाते हैं और काले मन का
मुद्दा बीच में ही छोड़कर काले तन अर्थात औरों का स्वास्थ्य ठीक करने का
नारा देकर टी.वी.चैनलों पर बैठकर रोगों की लंबी लंबी लिस्टें पढ़ते हैं
उन्हें ठीक करने का दावा ठोकते हैं। योग केbbb नाम पर आसन सिखाना,दवा के नाम
पर कुछ भी बेचकर धन इकट्ठा करना,फिर उसे सुरक्षित करने की चिंता होनी
स्वाभाविक बात है। अब अपने धन एवं अपनी सुरक्षा हेतु सरकार पर दबाव बनाने
के लिए मुद्दा बदल दिया अबकी काले धन का नारा दिया और रथ यात्रा के बहाने
मनोरथ यात्रा लेकर निकल पडे़ जिसमें औरों के काले धन पर बडे़ बडे़ भाषण
देने लगे।
शायद ये भूल ही गए कि संत समाज शास्त्रीय संविधान के
प्रति जवाबदेय होता है। जहॉं संतों को कंचन कामिनी से बचने की सलाह दी गई
है इस दृष्टि से साधुओं का सारा धन ही काला होता है। साधुवेष या
भिक्षावृत्ति से संगृहीत धन को कमाया हुआ धन कैसे कहा जा सकता है?साधु
संतों को व्यवसाय की अनुमति शास्त्र देता नहीं है। ऐसे संगृहीत धन को क्या
कहा जाएगा मैं आप सबसे पूछता हूँ ?कोई व्रह्मचारी यदि अपने साधु स्वरूप से
लोगों को प्रभावित करके धन इकट्ठा करले फिर किसी अपने से आधी उम्र की चेली
से कोर्टमैरिज करके बच्चे पैदा करे तो हो सकता है कि कानूनी दृष्टि से यह
गलत न हो किंतु शास्त्रीय संविधान इस दुकृत्य की घोर निंदा करता है।
केवल यदि नेताओं या अन्य नागरिकों से संविधान सम्मत जीवन जीने की अपेक्षा
की जाती है तो साधु महात्माओं को भी शास्त्रीय संविधान का परिपालन
ईमानदारी पूर्वक स्वयमेव करना चाहिए तभी वे संत महात्मा कहलाने के अधिकारी
हैं। चरित्रवाऩ तपस्वी शास्त्रीय संविधान सम्मत संतों के सत्व पर ही समाज
टिका हुआ है ऐसे संत पुनः प्रकट होकर समाज को सॅंभालें यही अपेक्षा एवं
आशा तथा ईश्वर से प्रार्थना है।
राजेश्वरी प्राच्यविद्या शोध संस्थान की अपील
यदि
किसी को
केवल रामायण ही नहीं अपितु ज्योतिष वास्तु धर्मशास्त्र आदि समस्त भारतीय
प्राचीन
विद्याओं सहित शास्त्र के किसी भी नीतिगत पक्ष पर संदेह या शंका हो या कोई
जानकारी लेना चाह रहे हों।शास्त्रीय विषय में यदि किसी प्रकार के सामाजिक
भ्रम के शिकार हों तो हमारा संस्थान आपके प्रश्नों का स्वागत करता है ।
यदि ऐसे किसी भी प्रश्न का आप
शास्त्र प्रमाणित उत्तर जानना चाहते हों या हमारे विचारों से सहमत हों या
धार्मिक जगत से अंध विश्वास हटाना चाहते हों या राजनैतिक जगत से धार्मिक
अंध विश्वास हटाना चाहते हों तथा धार्मिक अपराधों से मुक्त भारत बनाने एवं
स्वस्थ समाज बनाने के लिए
हमारे राजेश्वरीप्राच्यविद्याशोध संस्थान के
कार्यक्रमों में सहभागी बनना चाहते हों तो हमारा संस्थान आपके
सभी शास्त्रीय प्रश्नोंका स्वागत करता है एवं आपका तन , मन, धन आदि सभी
प्रकार से संस्थान के साथ जुड़ने का आह्वान करता है।
सामान्य रूप से जिसके लिए हमारे संस्थान की सदस्यता लेने का प्रावधान है।
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