Pages

Monday, January 28, 2013

जातियों के नाम पर दूसरे का भाग भोगने की ईच्छा ही क्यों ?

आखिर         तिलक  तराजू  औ तलवार

                     इनके    मारो     जूते चार।। 

     जैसे नारे भी इसी समाज में  सवर्णों के विरुद्ध लगाए जाते रहे सारी मीडिया साक्ष्य है न तब कोई कानून बना न कोई कार्य वाही हुई न किसी पत्रकार को बुरा लगा आखिर क्यों ?क्या तभी नियम नहीं बना दिया जाना चाहिए था कि किसी के गुण दोषों का मूल्यांकन जाति, क्षेत्र ,समुदाय,संप्रदायवाद आदि के नाम पर करना दंडनीय अपराध होगा और किसी भी प्रकार के आरक्षण या  सुविधा की पात्रता भी जाति, क्षेत्र ,समुदाय,संप्रदाय आदि के आधार पर न मानी जाए !किन्तु वोट बल से कमजोर सवर्णों का पक्ष कोई राजनैतिक दल आखिर  क्यों ले ?क्यों मुद्दा उठावे कोई पत्रकार?आखिर देश के लिए समान रूप समर्पित सभी वर्गों के लिए सरकार द्वारा किसी भी प्रकार की  सुविधा या सहयोग प्रदान करते समय प्रजा प्रजा में भेद भाव नहीं किया जाना चाहिए !आज सवर्ण किसे मानें अपना प्रशासक और किससे कहें अपनी समस्याएँ आखिर उन पर यह आरोप पहले ही मढ़ दिया गया है कि उन्होंने दलितों का शोषण किया था।आखिर इस शोषण के आरोप का सच या आधार  क्या है ?

 

      इंटर नेट से साभार लिया गया यह अंश चर्चा के दौरान नंदी ने कहा कि यह एक हकीकत है कि अधिकतर भ्रष्ट लोग अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जातियों से आते हैं और अब अनुसूचित जनजाति के लोग भी अधिक संख्या में भ्रष्ट हो रहे हैं।

       उन्होंने इससे भी आगे जाते हुए कहा कि मैं एक उदाहरण देता हूं। सबसे कम भ्रष्टाचार वाला राज्य पश्चिम बंगाल है, जहां माकपा की सरकार थी। मैं आपका ध्यान इस बात पर दिलाना चाहता हूं कि उस राज्य में पिछले 100 सालों में अजा, अजजा या ओबीसी का कोई व्यक्ति सत्ता के करीब नहीं पहुंचा।   

        पैनल में शामिल वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष और दर्शक दीर्घा में बैठे कई लोगों ने इस बयान पर आपत्ति जताई। आशुतोष ने कहा कि यह मेरा सुना गया सबसे अनोखा बयान है। ब्राह्मण और सवर्ण जातियां सभी तरह का भ्रष्टाचार करके बच निकली हैं, लेकिन जब कोई नीची जाति का व्यक्ति इसमें उनकी बराबरी करता है तो यह गलत हो जाता है। इस तरह का बयान सही नहीं है।

      इसमें मेरी व्यक्ति गत राय यह है कि नंदी का तिरस्कार इतनी आतुरता में नहीं किया जाना चाहिए अपितु उनके पश्चिम बंगाल सम्बन्धी उदाहरण  का अध्ययन होना चाहिए और देखा जाना चाहिए कि इस बयान में सच्चाई कितनी है ?उसके बाद भी निंदा आलोचना  का तो विकल्प खुला ही रहेगा ।

     मैं निजी तौर पर भारत वर्ष के किसी भी नर नारी को दलित या अछूत मानने को तैयार नहीं हूँ हर देश

में गरीब और अमीर दो प्रकार का वर्गीकरण तो दिखाई पड़ता है और उचित भी यही है। इसमें यह दलित जैसा  नाम करण  कुछ उन लोगों के द्वारा किया गया जिनको बिना कुछ परिश्रम किए धरे इससे कुछ लाभ की लालषा या लालच होगा।जिसे अपनी कमाई एवं परिश्रम का भरोसा होगा वह दलित बनना ही क्यों पसंद करेगा?कोई सम्मान प्रिय व्यक्ति सारी  समाज में अपना गौरव क्यों गिराएगा।अपने हाथ पैर आदि स्वास्थ्य सुरक्षित रहते हुए अपने दुलारे प्यारे बच्चों को कोई दलित अर्थात कुचला-कुचला,खंड-खंड कहलाना कोई क्यों पसंद करेगा?कोई जो देता हो वो रख ले किन्तु ईश्वर न किसी के प्रिय बच्चों को ऐसे अशुभ शब्दों का संबोधन मिले ऐसा कम से कम मैं तो कभी नहीं चाहूँगा और न ही किसी को दलित कहूँगा न दलित मानूँगा ही अपितु वो किस मजबूरी में दलित कहलाते हैं वो मजबूरी दूर करने का प्रयास करूँगा ।ईश्वर कृपा करे तो बहुत जल्दी मैं वह करके दिखा भी दूँगा।कुछ दिन की पवित्र प्रेरणा से न केवल दालित्य समाप्त होगा अपितु मनोबल बढ़ाकर मुख्य धारा में सम्मिलित कर लूँगा मुझे विश्वास है क्योंकि मैं छोटे पैमाने पर यह  कर के देख भी चुका हूँ ।

      अधिक  से अधिक एक पीढ़ी के पंद्रह-बीस वर्षों की शिक्षा एवं सही दिशा के रोजगार में  परिश्रम करने से  हर किसी आने वाली पीढ़ियों के जन्म जन्मान्तर का दालित्य छुटा सकती है।अच्छे अच्छे लोग सम्मानित समझेंगे । इसीप्रकार आने वाली पीढियाँ सुधरती चली जाएँगी ।

    पंद्रह-बीस वर्षों के परिश्रम कहने  आशय शिक्षा काल सुधारने की बात है अगर कोई नेता खूँटा नेक नीयत से इतना प्रेरित करने या इसमें सहयोग करने को तैयार हो जाए तो गरीबत घट या मिट सकती है।यह मेरी  कोई खोज या उपलब्धि नहीं है ये सबको पता है किन्तु ये लोग सोचते हैं कि शिक्षा के लिए प्रेरित करने से ये सब आगे बढ़ जाएँगे अपना लाभ क्या होगा?

      आखिर दलितों के समर्थन के नाम पर ही तो सवर्णों को गाली दे देकर अपनी नेतागिरी चमकाने वाले लोग  आज अरबों रूपए के घोटाले किए घूम रहे हैं जो करोड़ों में बताए जाते हैं।दलितों के नाम पर लिए गए  पैसे पर स्वयं तो ऐय्यासी करते घूमेंगे और दलितों को खुश करने के लिए सवर्णों को गाली देंगे आखिर ऐसे लोगों के अपने आय के श्रोत क्या हैं ?  ये सोचते कि जब दलित ही नहीं रहेंगे सब अच्छे ही हो जाएँगे तो न केवल अपनी नेता गिरी ध्वस्त होगी अपितु रोजी रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा।परिश्रम इन नेताओं के बश का नहीं है और न ही देश को आगे ले जाने की  ही कोई ठोस योजना है ऐसे नेताओं की ईच्छा केवल इतनी है कि अन्य नेताओं के भ्रष्टाचार में हमें भी बराबर की भागीदारी मिले।आखिर ये भ्रष्टाचार समाप्त करने की नियत क्यों नहीं है? मैं तो कहता हूँ कि सभी जाति,क्षेत्र ,समुदाय ,संप्रदाय के नेताओं  की राजनीति में आने से पहले से अभी तक की संचित संपत्ति के आय श्रोतों की जाँच ईमानदारी पूर्वक गरीब जनता के द्वारा करवाई  जानी चाहिए या  दलित बंधुओं के द्वारा ही करा ली जाए किन्तु वे गरीब हों ताकि गरीबों की पीड़ा समझने वाले हों। जाति, क्षेत्र ,समुदाय ,संप्रदाय  का  भेदभाव  किए  बिना वे लोग चिन्हित किए जाने चाहिए ताकि उनका  सामाजिक बहिष्कार किया जा सके और ईमानदार राजनेताओं के साथ साथ हर जाति, क्षेत्र ,समुदाय ,संप्रदाय के संघर्षप्रिय ईमानदार आम आदमी की भी पहचान हो सके । किसी पद या पैसे के लोलुप औरों का हिस्सा हड़पने वाले कुछ राजनैतिक भेड़ियों  के द्वारा  खुले मंचों से जातिगत शोषण के नामपर किसी जाति विशेष के लोगों को गाली देना कितना न्यायोचित था  ?

तिलक तराजू औ तलवार।इनके मारो  जूते चार।। आदि। 

    यद्यपि मैं नंदी जी के कहे हुए जातिगत भ्रष्टाचार के वाक्यों का किसी भी प्रकार से समर्थक नहीं हूँ ये अस्वस्थ एवं असामाजिक वाक्य हैं ,किन्तु सवर्णों के विरुद्ध ऊपर कहे गए वाक्य भी बुरे हैं इनकी भी निंदा सामान रूप से की जानी चाहिए। 

    इनसे तत्तद जाति, क्षेत्र ,समुदाय,संप्रदाय के भले और ईमानदार कर्मनिष्ठ लोगों पर क्या बीतती है इसका एहसास मुझे है चूँकि मैंने न केवल इस पीड़ा को भोगा है अपितु चार विषय से एम.ए.एवं पी.एच.डी. करने के बाद जब ऐसी ही गालियों एवं शोषण के आरोपों से आहत होकर सरकार से आजीवन नौकरी न माँगने का व्रत लिया था और आज तक बेशक भटक रहा हूँ किन्तु किसी भी सरकारी या  निजी सेवा के प्रपत्र पर कभी हस्ताक्षर नहीं किए हैं, मैं संघर्ष पूर्वक उसी व्रत का पालन अभी भी कर रहा हूँ ।मुझे  दुःख है की हमारे जैसे लोगों की पीड़ा पर कभी आशुतोष जैसे ईमानदार पत्रकारों का ध्यान ही नहीं जाता है।

     आखिर कानपुर  के एक गाँव के टूटे फूटे गिरे परे घर में माताजी एवं हमसे दो वर्ष बड़े भाई साहब के साथ रहने वाला मैं पाँच वर्ष की अवस्था में पिता के  निधन से उत्पन्न दुःख सहता रहा,गरीबत में हम लोगों से सभी करीबी लोगों ने दूरियाँ बना लीं इसके बाद पढ़ लिख कर कुछ करने का सपना लिए  हम दोनों भाइयों ने इंटर पास किया ।आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण हमारे भाई साहब ने हमारी पढ़ाई के लिए अपनी पढ़ाई छोड़कर 175 रुपए मासिक नौकरी की जिससे मैं बनारस पढ़ने गया।उद्देश्य था कि  पढ़ लिख कर हम कुछ करेंगे तो परिवार की स्थिति सुधर जाएगी, किन्तु इसी सत्ता लोलुपता से परेशान एक नया नया राजनैतिक दल दलितों की गरीबत का कारण सवर्णों को न केवल बताने लगा अपितु सभी सवर्णों पर शोषण के आरोप मढ़ने लगा।स्वाभिमान के कारण  सपरिवार मेरा मन परेशान हुआ और आज तक है।

        इन सब बातों से आहत होकर मैं समाज के ठेकेदारों से केवल इतना निवेदन करना चाहता हूँ कि 

किसी के गुण दोषों का मूल्यांकन जाति, क्षेत्र ,समुदाय,संप्रदायवाद आदि के नाम पर करने की परंपरा बंद होनी चाहिए ।

                               डॉ.  शेष नारायण वाजपेयी 

 

 

 


 

No comments:

Post a Comment