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Thursday, March 7, 2013

धर्म एवं धार्मिक लोगों की शिथिलता से देश की देश बिगड़ती जा रही है! इस घुटन में कहाँ जाएँ लोग ?

 इससमय भले, चरित्रवान, ईमानदार, स्त्री पुरुषों  की   समाज को आवश्यकता   है   
   इस समय बढ़ते अपराधों एवं भ्रष्टाचार को रोकने में धर्म एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता था क्योंकि धर्म ही एक मात्र मन पर असर डाल  सकता है किन्तु लोगों में धन की बढ़ी भूख के कारण दुर्भाग्य से धर्म एवं शास्त्रीय विषयों में  भी  पाप, अपराध एवं भ्रष्टाचार का ही बोल बाला दिखता है। धर्म एवं शास्त्रीय विषयों से सम्बंधित हर पिलर हिल रहा है।आज बढ़ते बलात्कार ,पाप, अपराध एवं भ्रष्टाचार के न रुक पाने प में कानून व्यवस्था का फेलियर कम है धर्म एवं शास्त्रीय विषयों से सम्बंधित महापुरुषों का फेलियर मुख्य है क्योंकि अपराध होने पर कानून सजा देता है किन्तु धर्म एवं शास्त्र तो अपराध सम्बंधित भावना ही न बने इस दृष्टि से मन पर संयम और सदाचार की बात करता है।पहले गृहस्थों को महात्मा एवं नौजवानों को अध्यापक ही संयम और सदाचार पूर्वक सच्चरित्रता की शिक्षा देते थे।साथ ही दुराचरणों की निंदा करते थे।अब निन्दा करने वालों के चारों तरफ   वही सब होता दिख रहा है, निन्दा किसकी कौन और क्यों करे?
     अध्यापक वर्ग शिष्याओं के शीलहरण जैसी निरंकुश  मटुकनाथों की  निंदनीय  जीवन शैली के आगे विवश है।आखिर कौन सत्प्रेरणा दे समाज को?बिना इसके क्या करे अकेला कानून ?किसे किसे फाँसी दे दी जाएगी ?आखिर और भी तो कोई रास्ता खोजना चाहिए जो बिना  फाँसी और बिना जेल के भी सुधार का पथ प्रशस्त करे !क्या समाज के सत्पुरुषों का समाज के लिए अपना कोई दायित्व नहीं बनता ? सबकी तरह पुलिस भी यदि पल्ला झाड़ ले तो फिर कहाँ जाएगा यह समाज ?
    एक जीवित व्यक्ति को उठाना हो तो आराम से उठाया जा सकता है किन्तु उससे चेतना निकलते ही वह शव रूप में  भारी हो जाता है और उसे उठाना कठिन हो जाता है।इसी प्रकार आज का समाज पूरी तरह कानून व्यवस्था, पुलिस और सरकार के भरोसे सुरक्षित  होना चाहता है।क्या यह अधिक अपेक्षा नहीं लगा रखी गई है?समाज को अपने स्तर से भी उपाय सोचने एवं करने होंगे।इस प्रकार संस्कारों से सचेतन  समाज को कानून व्यवस्था, पुलिस और सरकार आराम से सुरक्षित कर लेगी।हो सकता है कि व्यवस्था,राजनीति एवं पुलिस से जुड़ा एक वर्ग भ्रष्टाचार में लिप्त हो किन्तु उतना ही सच यह भी है कि एक बहुत बड़ा वर्ग देश को विकास के पथ पर अग्रसर करने में पूर्ण प्रयत्नशील अर्थात जी जान से जुटा हुआ  है।गर्मी,शर्दी ,वर्षा,आग ,बाढ़,से लेकर घर में साँप निकलने तक हर प्रकार की आपदा में हमारे साथ दिनरात पुलिस प्रशासन खड़ा मिलता है।हर प्रकार के अपराधियों का सामना करते हुए इनकी होली दीवाली अक्सर सड़कों पर ही बीतती है,फिरभी हरप्रकार की परेशानी के लिए प्रशासन को ही कोसते रहना ठीक आदत नहीं है कुछ जिम्मेदारी तो स्वयं भी सँभालनी चाहिए।आज चौराहे पर कोई किसी को मारे पीटे लूट पाट करे किसी महिला को उठा ले जाए शील हरण करे ये सब देखते हुए भी कोई बोलने को तैयार नहीं है हो सकता है चार लोग विरोध करने लगें तो ऐसी किसी दुर्घटना की नौबत ही न आए किन्तु आज जब कोई बोलना ही नहीं चाहता है तो दिन हो या रात अपराधी स्वतंत्र हैं।
   हर  कोई पुलिस वालों से आशा लगा के बैठा है किन्तु अकेले पुलिस क्या करे मैं तो पुलिस के इन सभी लोगों का अपने को ऋणी मानता हूँ ,साथ ही सोचता हूँ कि जब हमारा धार्मिक समाज सदाचारी था तब बिना पुलिस प्रशासन के भी लोग जंगलों में भी सकुशल रह लिया करते थे और जब से धार्मिक समाज सदाचार से दूर होकर  केवल धन कमाने के लिए ज्योतिष,वास्तु, कथा, प्रवचनों के नाम पर झूठ बोलने लगा ।साथ ही केवल धन कमाने के लिए योग से रोग भगाने का ढोंग करने लगा तो इन पाखंडों का दुष्प्रभाव समाज पर तो पड़ना ही था सो पड़ा,अब  बस पर बलात्कार हो चाहें जहाज पर हो,सुधरना तो सबको पड़ेगा।कानून के बल पर ऐसे रामराज्य की तो आशा हमें भी  नहीं करनी चाहिए कि दो चार किलो सोना खुले रोड पर सब को दिखाते हुए लेकर चलेंगे और कोई कुछ नहीं बोलेगा।सोना तो कोई छू ले तो उसकी कीमत नहीं नहीं घटती फिर सम्माननीय नारी समाज  की इज्जत तो अपवित्र भावना से किसी पर पुरुष के  स्पर्श करते  ही पीड़ा प्रद हो जाती है।उसमें भी फैशन के नाम पर आधे अधूरे भड़कीले वस्त्रों में रहकर वर्तमान परिस्थिति में तो वातावरण सुरक्षित होते  नहीं लगता है आगे की ईश्वर जाने ! मैं भी रामराज्य का पक्षधर हूँ किन्तु आवे कैसे?लड़कियों की सुरक्षा पर यह सोचने की जरुरत है कि किसी एकान्तिक स्थान में सारी सामाजिक मर्यादाएँ ताख पर रख कर  प्रेम के नाम पर वो जिसके गले लगती हैं यदि वो किसी और पर फिदा होता है तो वो तथाकथित प्रेमी इस लड़की की हत्या कितने मिनट में कर देगा कब गला दाब देगा किसी को क्या पता ऐसे में क्या करे पुलिस ? यदि पहले से सतर्क हो तो प्यार पर पहरा कहकर लोग चिल्लाने लगते हैं। यदि मर्यादित कपड़े पहनने  या मर्यादित रहन सहन की सलाह दी जाती है तो महिला अधिकारों पर हमला दिखता है शोर मचने लगता है। इसलिए जहाँ तक मेरा अपना मानना है कि ऐसी अवस्था में महिला सुरक्षा के विषय में चाह कर भी पुलिस कुछ  प्रभावी भूमिका निभा पाएगी मुझे संदेह है मैं इस युग में वर्तमान समाज से बहुत ईमानदारी की आशा  ही नहीं कर पा रहा हूँ।क्योंकि यदि हमने फिल्में देखकर आधे अधूरे कपड़ों में रहना प्रेम प्यार से किसी  के गले लगना सीखा है तो फिल्मों में खलनायक भी होते थे उनसे प्रभावित होने वाले लड़की उठा ले जाने वाली रस्म  अदायगी  की प्रक्रिया कहाँ निभाएँगे ?उन्हें कौन और कैसे गलत सिद्ध करे ?फिल्मों का प्रभाव सब पर बराबर पड़ा है जिसने फिल्मों से जो कुछ सीखा है वो सब इसी समाज में अनुभव कर के देखना चाहता है।फिल्मों में कोई दुर्घटना घटने पर पुलिस आती है केस होता है गिरफ्तारी होती है सब कुछ वैसा ही हो रहा है फिर पुलिस से शिकायत कैसी?किसी को क्या कहा जाए समाज का फिल्मीकरण हो रहा है। इसमें जो भले, चरित्रवान,ईमानदार, स्त्री पुरुष फिल्मों के हिसाब से नहीं चल पाते हैं फैशन के नाम पर फिल्मों के द्वारा जब उन पर विदेश थोपा जा रहा होता है तो  उन्हें घुटन होना स्वाभाविक है वे परेशान होते हैं किन्तु उनकी पीड़ा से किसी को क्या लेना देना? मानों इस समाज पर उनका कोई अधिकार ही नहीं है ?

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