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Monday, June 17, 2013

संस्कार सृजन एवं चरित्र निर्माण के लिए क्या कर रही है सरकार ?

   इससमय भले, चरित्रवान, ईमानदार, स्त्री पुरुषों  की   समाज को भयंकर आवश्यकता है किन्तु इनका प्रोडक्सन धीरे धीरे बंद होता जा रहा है उनका निर्माण कैसे हो !
    आश्रम नाम के होटल आज ऐय्यासी के अड्डे बनते जा रहे हैं वहाँ  जप  तप स्वाध्याय संयम जैसी बातें बिलकुल विलुप्त होती जा रही हैं इसलिए आश्रमों से संस्कारों की सप्लाई फिर से चालू होगी इसकी आशा करना भी आत्म ग्लानि का विषय बनता जा रहा है स्वधर्म भ्रष्ट असंयमित बाबा वर्ग भिखारी या फिर व्यापारी होता जा रहा है चरित्रवान शास्त्रीय संतों की संख्या दिनों दिन घटती जा रही है ये प्रजाति लुप्त होने की कगार पर है-
     'हा संन्यास कुतो गतो कलियुगे वार्तापि न श्रूयते'
   संन्यास के शास्त्रीय धर्म की बात करने वाले लोगों को धमकियाँ मिल रही है क्योंकि इससे पापी पाखंडियों की पोल खुलती है । 
    पहले कथाओं के माध्यम से जो संस्कार बताए एवं सिखाए जाते थे अब लोग भागवत कथाओं के बोर्ड लगा लगा कर बड़े बड़े स्टेज बनवाते हैं और भागवत की पोथी सामने रखकर उसे मानो मुख चिढ़ाते हुए उसे खोलते तक नहीं हैं और नाच कूद कर भीख भावना से धन इकठ्ठा करके वहाँ से रफू चक्कर हो जाते हैं ।इनसे समाज को कोई संस्कार मिल पाएँगे इसकी आशा ही कैसे की जाए !
   भागवत कथाओं के मंचों पर भागवत भ्रष्ट लोग जबसे नाच गाने जैसी भड़ैती मचाने लगे तब से फ़िल्म वालों का तो धंधा ही चौपट होने लगा इसलिए उन्होंने फिल्मों में नंगापन दिखाना शुरू कर दिया आखिर वो चरित्र निर्माण जैसे घाटे के सौदे के चक्कर में पड़ें ही क्यों?
    फिल्मों में हर लड़की केवल एक मैडम होती है और अधिकाँश पात्र उसके आशिक होते हैं जिसमें उम्र तक का लिहाज नहीं बरता जाता है और कहानी की माँग बताते हुए फिल्मों में अच्छे अच्छों को नंगा कर दिया  जाता है लगता है कि कुछ बताने और समझाने के नाम पर फ़िल्म इंडस्ट्री लगभग दिवालिया ओ चुकी है और दिखाने के नाम पर केवल वही मलमूत्रांग जैसी अभी तक लुकाई छिपाई जाने वाली चीजें ही दिखाने के लिए बची हैं जिन्हें कोई किस्तों में दिखा रहा है और कोई थोक में तो कोई लुका छिपाकर दिखा रहा है क्या इनसे संस्कारों का सृजन हो पाएगा ! सम्मान की प्रतीक महिलाएँ केवल माँस में तब्दील होती जा रही हैं वो भी जीवित हैं उनके भी हृदय और भावनाएँ हैं इस प्रकार की संवेदनाएँ ही समाज से विदा होती जा रही हैं मरते जा रहे हैं निजी सम्बन्ध और संस्कार !इसलिए फिल्मों से संस्कारों की सप्लाई धीरे धीरे बंद होती जा रही है । 
    शिक्षा के संस्कार जो बचपन में मिलते हैं वो आजीवन चलते हैं किन्तु सरकारी प्राइमरी या निगम विद्यालयों के शिक्षकों का चरित्र चोरों से अधिक घिनौना होता जा रहा है शिक्षकों का आपसी सहमति से अकारण स्कूलों से गायब रहना ,जिस दिन जाना उस दिन समय से स्कूल में न पहुँचना ,पहुँच भी जाएँ तो कक्षाओं में न जाना ,प्रिन्सपल के सामने थोड़ी बहुत देर दुम हिलाते रहना और चले आना ,किसी दिन स्कूलों में रुककर कक्षाओं में पहुँचना तो मोबाईल पर लगे रहना और बच्चों की किताबों के पेज गिना देना कि अब हम अमुक दिन आएँगे तब तक इतने पेज लिखा मिलना चाहिए किन्तु बच्चे लिखें या न लिखें किसी का कोई मतलब नहीं कुछ बच्चे तो लिख ही लेते हैं उन्हीं की कापियाँ पकड़ कर दिखा दी जाती हैं और दोष अभिभावक पर मढ़ दिया जाता है कि आपका बच्चा नहीं करता है तो हमें तो इतने बच्चे देखने हैं हम उसी को पकड़े तो नहीं बैठे रहेंगे आदि आदि !
    महोदय ! सरकारी स्कूलों की यह हकीकत सरकार एवं सरकार के अंगभूत जितने भी लोग हैं सरकारी अधिकारी एवं कर्मचारी  हैं यहाँ तक कि उन्हीं प्राइमरी स्कूलों के वे अधिकाँश बेशर्म शिक्षक भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाते हैं प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं सरकारी प्रारंभिक विद्यालयों की शिक्षा के साथ हो रही इस धोखाधड़ी की हकीकत देश के बच्चे बच्चे को पता है ये उन बच्चों को भी पता है जो उन स्कूलों में पढ़ने जाते हैं जिन्हें सारा  देश गिरी निगाहों से देखता है शिक्षा प्रिय स्वाभिमानी बच्चे जानते हैं कि यदि मेरे माता पिता के पास भी पैसा होता तो शायद मुझे भी यह जलालत झेलनी नहीं पड़ती जिन बच्चों का मन बचपन में ही इतना गिर चुका होता है वो सरकारी या निगम के प्राइमरी स्कूलों के बच्चे बड़े होकर  कैसे मिला पाएँगे उन बच्चों से आखें जो उनके सामने महँगे महँगे प्राइवेट विद्यालयों में पढ़ते रहे हों ! 
    ऐसे बच्चे कभी भी नहीं चाहेंगे कि वो बड़े होकर अपने बाप की तरह मजबूर बाप बनें और रोज रोज पत्नी और बच्चों के द्वारा दुदकारे जाएँ कि तुमने हमारे साथ किया क्या है किसी ढंग के स्कूल में तुम पढ़ा तक नहीं सके ! ऐसा मजबूर बाप बनने की अपेक्षा वह बच्चा बड़ा होकर कितने भी गलत काम को अंजाम देने में नहीं हिचकेगा !आखिर अपने घर गाँव नाते रिश्तेदारियों में जलालत झेलते झेलते बड़ा होकर अब वो अपनों से मिलना ही नहीं चाहता है । ऐसा जीवन भी कोई जीवन है सरकारी स्कूलों में पहले भी लोग पढ़ते थे किन्तु सभी बच्चे एक साथ पढ़ते थे और मुख्यबात तब शिक्षकों में चरित्र था ईमानदारी थी आज उन लोगों से ऐसी अपेक्षा कैसे की जा सकती है !इसलिए सरकारी शिक्षक जिस पवित्रता का पालन स्वयं नहीं करते उसे किसी को बता या समझा कैसे सकते हैं और बच्चे ऐसे धर्म एवं कर्म भ्रष्ट स्वार्थी लोगों की बातें मानेंगे ही क्यों ?
   रही बात स्वच्छता अभियान की गंगा यमुना आदि नदियों की सफाई से अधिक आवश्यक है इन्हें गंदा न करने के संस्कार दिए जाएँ !वैसे भी हर नदी की सफाई तो वर्षाऋतु में स्वयं ही हो जाती है और जल की सफाई प्रतिवर्ष अगस्त तारे के उदय के साथ साथ अर्थात लगभग 26 सितम्बर से स्वयं ही होने लगती है वैसे भी सफाई केवल गंगा यमुना की ही क्यों की जाए प्रत्येक नदी सरोवर को साफ रखना चाहिए ये जीव धर्म है अन्यथा मनुष्यों को फिल्टर आदि से साफ किया हुआ जल या सरकारी सप्लाई का जल मिल जाएगा अथवा बिसलेरी खरीद कर पी लेंगें!किन्तु गरीब लोग क्या करेंगे गन्दा पानी पिएँगे तो बीमार होंगे !सबसे बड़ी पशुपक्षियों की समस्या है जिनसे हमें दूध मिलता है जो कृषि में सहायक होते हैं वो कैसे जी पाएँगे और उनके मरते ही हमारी कृषि समाप्त हो जाएगी दूध बंद हो जाएगा !किन्तु ये सब बातें इस धर्म भावना से समझाने वालों के मन मरते जा रहे हैं इसलिए वो शांत हैं सरकारें क्या कर लेंगी स्वच्छता सफाई के नारे लगवाने से क्या कुछ होगा ?आज गंगा जी की सफाई का शोर क्यों है जरूरत उन धार्मिक संस्कारों को देने की है जिनसे गन्दगी फैलाने वाले आत्मानुशासन का पालन स्वयं करें ! किन्तु ये संस्कार देगा कौन ?
    देश का प्रधान मंत्री अपने देश वासियों को हाथ धोकर भोजन करना सिखा रहा हो ये हम सब के लिए शर्म की बात है !
     देश का प्रधान मंत्री अपने भारत के स्वच्छता अभियान की बातें विदेशों की धरती पर करने को मजबूर हो आखिर क्या बीतती होगी उस पर !और अपने को विश्व गुरु बताने वाले भारतीयों को कितनी गन्दी निगाहों से देखते होंगें वो लोग ! आखिर सालों साल तक सुरक्षित रहने वाले गंगा जमुना के जल को गन्दा करने के अपराधी हैं हम !इसके लिए चीन या पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों को भी दोषी हम नहीं ठहरा सकते !
       विदेशों के लोग सुनते होंगे कि भारत में अब घर घर शौचालय बनेंगे किन्तु उन्हें क्या पता कि जो सरकारी कर्मचारी सरकारी शिक्षा के साथ साथ सरकार के किसी विभाग को फूलने फलने नहीं दे रहे हैं वो शौचालय बनाने देंगे क्या ?रही बात सरकार की वो आज तक सीधा कम्प्लेन का कोई नंबर नहीं दे सकी जिस पर शिकायत करने से सीधी कार्यवाही की जा सके !
   इस समय बढ़ते अपराधों एवं भ्रष्टाचार को रोकने में धर्म एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता था क्योंकि धर्म ही एक मात्र मन पर असर डाल  सकता है किन्तु लोगों में धन की बढ़ी भूख के कारण दुर्भाग्य से धर्म एवं शास्त्रीय विषयों में  भी  पाप, अपराध एवं भ्रष्टाचार का ही बोल बाला दिखता है। धर्म एवं शास्त्रीय विषयों से सम्बंधित हर पिलर हिल रहा है।आज बढ़ते बलात्कार ,पाप, अपराध एवं भ्रष्टाचार के न रुक पाने प में कानून व्यवस्था का फेलियर कम है धर्म एवं शास्त्रीय विषयों से सम्बंधित महापुरुषों का फेलियर मुख्य है क्योंकि अपराध होने पर कानून सजा देता है किन्तु धर्म एवं शास्त्र तो अपराध सम्बंधित भावना ही न बने इस दृष्टि से मन पर संयम और सदाचार की बात करता है।पहले गृहस्थों को महात्मा एवं नौजवानों को अध्यापक ही संयम और सदाचार पूर्वक सच्चरित्रता की शिक्षा देते थे।साथ ही दुराचरणों की निंदा करते थे।अब निन्दा करने वालों के चारों तरफ   वही सब होता दिख रहा है, निन्दा किसकी कौन और क्यों करे?
     अध्यापक वर्ग शिष्याओं के शीलहरण जैसी निरंकुश  मटुकनाथों की  निंदनीय  जीवन शैली के आगे विवश है।आखिर कौन सत्प्रेरणा दे समाज को?बिना इसके क्या करे अकेला कानून ?किसे किसे फाँसी दे दी जाएगी ?आखिर और भी तो कोई रास्ता खोजना चाहिए जो बिना  फाँसी और बिना जेल के भी सुधार का पथ प्रशस्त करे !क्या समाज के सत्पुरुषों का समाज के लिए अपना कोई दायित्व नहीं बनता ? सबकी तरह पुलिस भी यदि पल्ला झाड़ ले तो फिर कहाँ जाएगा यह समाज ?
    एक जीवित व्यक्ति को उठाना हो तो आराम से उठाया जा सकता है किन्तु उससे चेतना निकलते ही वह शव रूप में  भारी हो जाता है और उसे उठाना कठिन हो जाता है।इसी प्रकार आज का समाज पूरी तरह कानून व्यवस्था, पुलिस और सरकार के भरोसे सुरक्षित  होना चाहता है।क्या यह अधिक अपेक्षा नहीं लगा रखी गई है?समाज को अपने स्तर से भी उपाय सोचने एवं करने होंगे।इस प्रकार संस्कारों से सचेतन  समाज को कानून व्यवस्था, पुलिस और सरकार आराम से सुरक्षित कर लेगी।हो सकता है कि व्यवस्था,राजनीति एवं पुलिस से जुड़ा एक वर्ग भ्रष्टाचार में लिप्त हो किन्तु उतना ही सच यह भी है कि एक बहुत बड़ा वर्ग देश को विकास के पथ पर अग्रसर करने में पूर्ण प्रयत्नशील अर्थात जी जान से जुटा हुआ  है।गर्मी,शर्दी ,वर्षा,आग ,बाढ़,से लेकर घर में साँप निकलने तक हर प्रकार की आपदा में हमारे साथ दिनरात पुलिस प्रशासन खड़ा मिलता है।हर प्रकार के अपराधियों का सामना करते हुए इनकी होली दीवाली अक्सर सड़कों पर ही बीतती है,फिरभी हरप्रकार की परेशानी के लिए प्रशासन को ही कोसते रहना ठीक आदत नहीं है कुछ जिम्मेदारी तो स्वयं भी सँभालनी चाहिए।आज चौराहे पर कोई किसी को मारे पीटे लूट पाट करे किसी महिला को उठा ले जाए शील हरण करे ये सब देखते हुए भी कोई बोलने को तैयार नहीं है हो सकता है चार लोग विरोध करने लगें तो ऐसी किसी दुर्घटना की नौबत ही न आए किन्तु आज जब कोई बोलना ही नहीं चाहता है तो दिन हो या रात अपराधी स्वतंत्र हैं।
   हर  कोई पुलिस वालों से आशा लगा के बैठा है किन्तु अकेले पुलिस क्या करे मैं तो पुलिस के इन सभी लोगों का अपने को ऋणी मानता हूँ ,साथ ही सोचता हूँ कि जब हमारा धार्मिक समाज सदाचारी था तब बिना पुलिस प्रशासन के भी लोग जंगलों में भी सकुशल रह लिया करते थे और जब से धार्मिक समाज सदाचार से दूर होकर  केवल धन कमाने के लिए ज्योतिष,वास्तु, कथा, प्रवचनों के नाम पर झूठ बोलने लगा ।साथ ही केवल धन कमाने के लिए योग से रोग भगाने का ढोंग करने लगा तो इन पाखंडों का दुष्प्रभाव समाज पर तो पड़ना ही था सो पड़ा,अब  बस पर बलात्कार हो चाहें जहाज पर हो,सुधरना तो सबको पड़ेगा।कानून के बल पर ऐसे रामराज्य की तो आशा हमें भी  नहीं करनी चाहिए कि दो चार किलो सोना खुले रोड पर सब को दिखाते हुए लेकर चलेंगे और कोई कुछ नहीं बोलेगा।सोना तो कोई छू ले तो उसकी कीमत नहीं नहीं घटती फिर सम्माननीय नारी समाज  की इज्जत तो अपवित्र भावना से किसी पर पुरुष के  स्पर्श करते  ही पीड़ा प्रद हो जाती है।उसमें भी फैशन के नाम पर आधे अधूरे भड़कीले वस्त्रों में रहकर वर्तमान परिस्थिति में तो वातावरण सुरक्षित होते  नहीं लगता है आगे की ईश्वर जाने ! मैं भी रामराज्य का पक्षधर हूँ किन्तु आवे कैसे?लड़कियों की सुरक्षा पर यह सोचने की जरुरत है कि किसी एकान्तिक स्थान में सारी सामाजिक मर्यादाएँ ताख पर रख कर  प्रेम के नाम पर वो जिसके गले लगती हैं यदि वो किसी और पर फिदा होता है तो वो तथाकथित प्रेमी इस लड़की की हत्या कितने मिनट में कर देगा कब गला दाब देगा किसी को क्या पता ऐसे में क्या करे पुलिस ? यदि पहले से सतर्क हो तो प्यार पर पहरा कहकर लोग चिल्लाने लगते हैं। यदि मर्यादित कपड़े पहनने  या मर्यादित रहन सहन की सलाह दी जाती है तो महिला अधिकारों पर हमला दिखता है शोर मचने लगता है। इसलिए जहाँ तक मेरा अपना मानना है कि ऐसी अवस्था में महिला सुरक्षा के विषय में चाह कर भी पुलिस कुछ  प्रभावी भूमिका निभा पाएगी मुझे संदेह है मैं इस युग में वर्तमान समाज से बहुत ईमानदारी की आशा  ही नहीं कर पा रहा हूँ।क्योंकि यदि हमने फिल्में देखकर आधे अधूरे कपड़ों में रहना प्रेम प्यार से किसी  के गले लगना सीखा है तो फिल्मों में खलनायक भी होते थे उनसे प्रभावित होने वाले लड़की उठा ले जाने वाली रस्म  अदायगी  की प्रक्रिया कहाँ निभाएँगे ?उन्हें कौन और कैसे गलत सिद्ध करे ?फिल्मों का प्रभाव सब पर बराबर पड़ा है जिसने फिल्मों से जो कुछ सीखा है वो सब इसी समाज में अनुभव कर के देखना चाहता है।फिल्मों में कोई दुर्घटना घटने पर पुलिस आती है केस होता है गिरफ्तारी होती है सब कुछ वैसा ही हो रहा है फिर पुलिस से शिकायत कैसी?किसी को क्या कहा जाए समाज का फिल्मीकरण हो रहा है। इसमें जो भले, चरित्रवान,ईमानदार, स्त्री पुरुष फिल्मों के हिसाब से नहीं चल पाते हैं फैशन के नाम पर फिल्मों के द्वारा जब उन पर विदेश थोपा जा रहा होता है तो  उन्हें घुटन होना स्वाभाविक है वे परेशान होते हैं किन्तु उनकी पीड़ा से किसी को क्या लेना देना? मानों इस समाज पर उनका कोई अधिकार ही नहीं है ?

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