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Saturday, July 12, 2014

साईं को भगवान मानने का सवाल ही नहीं उठता ! बेटा बेटी गोद लिए जाते हैं किन्तु बाप नहीं !

   साईं संप्रदाय की सोच ही न केवल झूठ पर टिकी हुई है अपितु काल्पनिक है मनगढंत है तर्क संगत भी नहीं है !और अन्धविश्वास को बढ़ावा देने वाली है ! वैसे भी सनातन धर्म का अंग बने रहकर धर्म शास्त्रीय सीमाओं से बाहर जाकर किसी को भगवान स्वीकार ही नहीं किया जा सकता !

       जिसके कार्यों का तत्कालीन इतिहास में कहीं कोई जिक्र न मिलता हो, जिसका उस समय की आजादी की लड़ाई में कोई योगदान न मिलता हो, जिसके जन्म का पता न हो कर्म का पता न हो जिसके कुल खानदान का पता न हो, जिसके माता पिता का नाम पता न हो जिसके नाम का पता न हो जिसका नाम भी लोगों ने देखा देखी रख लिया हो, जिसके विषय में कुछ भी पता न हो जिसके धर्म और उपासना पद्धति के विषय में किसी को कोई ज्ञान ही न हो उसके विषय में इधर उधर से सुन सुनाकर कोरी कल्पनाएँ करके सतही बातों का आश्रय लेकर कुछ लिख पढ़ दिया गया हो किन्तु ऐसे किसी भी बेनाम खानाबदोस आदमी को कोई अपने घर का नौकर तो रखता नहीं है फिर सनातन धर्मी लोग ऐसे लोगों को भगवान कैसे और क्यों मान लें ! क्या अपने यहाँ भगवानों की कोई कमी है क्या ?क्या श्री राम कृष्ण शिव दुर्गा गणेश हनुमान जी जैसे देवी देवताओं के मंदिर हमने यूँ ही दिखावा में बना रखे हैं इनके प्रति हमारी कोई आस्था ही नहीं है हमारे पूर्वज इनकी पूजा बेकार में ही करते रहे क्या या उन्हें समझ नहीं थी अन्यथा वो भी कोई रोड छाप आदमी पकड़ कर  ले आते और उसे बना लेते अपना भगवान किन्तु वो समझदार थे उन्हें अपने भगवानों की पहचान थी । कहने को तो वो गाय और कुतिया में एक दृष्टि से समानता मानते थे कि दोनों में भगवान है इतने तक किन्तु उनके पास इतना विवेक था कि वो दूध हमेंशा गाय का ही पीते थे कुतिया का नहीं !

      आज साईं प्रकरण में समझदारी की कमी के कारण  समस्या ये है कि लोग हमें समझा रहे हैं कि जब गाय और कुतिया  दोनों में ही भगवान हैं तो हम गाय का ही दूध क्यों पिएँ आखिर कुतिया का क्यों न पिएँ ?ये हमारा स्वतन्त्र अधिकार है हम किसी का भी दूध पी सकते हैं हमारी अपनी आस्था हमें रोकने वाला कोई कौन होता है बात ये भी सही है किन्तु शंकराचार्य जी कहते हैं कि हम तो चाहते हैं कि हर किसी को इतना विवेक हो कि कोई कुतिया का दूध न पिए क्योंकि उसमें विकार होते हैं फिर भी जो लोग तमाम ऊट पटांग तर्क देकर कुतिया के दूध के गुण समझाने पर आमादा हैं तो शंकराचार्य जी का अभिप्राय यह है कि ऐसा करने को हम यद्यपि सबको रोकते हैं फिर भी जो लोग कुतिया का दूध पीना ही चाहें तो हम उन्हें रोकते नहीं हैं किन्तु वो हमसे अलग बैठकर पिएँ क्योंकि हमारा शास्त्र उसे अशुद्ध मानता है दूसरी बात उसे कुतिया का दूध ही कहें गाय का दूध न कहें क्योंकि इससे भ्रम  पैदा होता है तो इसमें गलत क्या है !आखिर यह समझने का प्रयास क्यों नहीं किया जा रहा है कि कुतिया के दूध को भी गाय का दूध कहने से हमारे गाय के दूध को भी लोग कुतिया की श्रेणी में समझने लगेंगे !

    कुल मिलाकर कोई कुतिया को कुतिया कहते हुए स्वाभिमान पूर्वक कुतिया का दूध क्यों नहीं पीता है यदि ऐसा करे तो किसी को कोई आपत्ति नहीं है किन्तु दूध  कुतिया का ही पियूँगा और उस कुतिया को ही गाय कहूँगा ये जबरदस्ती आखिर कैसे चलेगी !समाज में रहने के लिए कुछ तो मानना पड़ेगा!

         वैसे भी जब कुतिया और कुतिया के दूध पर इतनी ही आस्था है तो उसके कुतिया नाम से इतनी चिढ़ क्यों है आखिर उस कुतिया का नाम गाय रखना क्यों जरूरी है कुतिया को कुतिया के रूप में में ही रहने में क्या बुराई है ! उसे गाय रूप में प्रतिष्ठित करने का मतलब ही है कि लगाव उनका भी गाय के प्रति ही है कुतिया के प्रति नहीं ,उन्हें भी पता है कि सम्मान गाय के नाम से ही मिल पाएगा कुतिया के नाम से नहीं इसका सीधा सा मतलब है कि कुतिया के गुणों और दूध में ताकत बिलकुल नहीं है अन्यथा वो अपने नाम से भी पुज सकती थी । सम्मान गाय का ही है इसीलिए तो गाय कहने के पीछे पड़े हुए हैं ! 

       किसी का नाम भगवान रखने का मतलब है भगवान ने जो भी उत्तम कार्य किए हैं उनके श्रेय में घुस पैठ कर लेना इन श्रेयतस्करों को ये समझ में नहीं आता है कि कवीर ,सूर, तुलसी, मीरा, रसखान,चैतन्य महाप्रभु ,रविदास जैसे असंख्य महापुरुषों ने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व के बलपर इस संसार में अपने को स्थापित किया है भगवान बनके नहीं !भगवान ही बनाना होगा तो उन्हें बनाया जाएगा जिन्होंने देश और समाज की मुशीबत में कन्धा लगाया है अन्यथा केवल धंधा करने के लिए किसी खानाबदोश आदमी को क्यों बना लेंगे अपना भगवान?कहावत है -

                  "जान न पहचान बड़े मियाँ सलाम "

      ये तो अजीब बात है एक घर में सगे दो भाई हैं एक भाई बाजार गया और  वहां से एक बुड्ढे का हाथ पकड़ कर चला आवे और घर वालों से कहे कि ये हमारे पिता जी हैं घर वाले उस पर गुस्सा हों तो वो कहे कि ये तो हमारी आस्था है हम रखेंगे भी इसी घर और मानेंगे भी इसी को अपना बाप !गाँव वाले लोगों को सुन सुन कर मजा आवे दूसरों के विवाद में पञ्च कौन नहीं बनना चाहता है विवाद बढ़ा तो राजदरवार में बात पहुंची सबको बुलाया गया तो सबने अपनी अपनी बात रखी सब की बात सुनकर राज सभा ने सर्व सम्मति से निर्णय लिया कि वो उसे अपना पिता मानकर घर में रखता है तो रखने दो तुम्हें इसमें क्या आपत्ति !इस पर उसकी माँ ने कहा कि राजा साहब आप केवल इसके अधिकारों के विषय में सोच रहे हैं हमारे कोई अधिकार ही नहीं हैं क्या ?आप ये क्यों नहीं सोचते कि जब हमारा बेटा इसे अपना बाप बना कर घर में रखेगा तो हम मानें या न मानें किन्तु लोग इसे समझेंगे तो हमारा आदमी ही इसलिए हम इसका विरोध कर रहे हैं उसके भाई से पूछा गया तो उसने कहा कि राजा साहब हमारा तो घर से निकलना मुश्किल हो गया है हर कोई चिढ़ाता है कि और आपके नए पिता जी के क्या हाल चाल हैं ! हम उनसे कितना भी कहते हैं कि वो हमारे पिता नहीं हैं तो लोग कहते हैं कि ऐसा कहीं होता है कि दो सगे भाइयों के पिता अलग अलग हों इसलिए इसका अपमान हमें भी झेलना पड़ता है!ये सब बातें सुनकर राजा को उसकी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने  फैसला सुनाया कि तू इसका नाम और कुछ भी रख ले जिससे तुम्हारे घरवालों की प्रतिष्ठा न जुड़ी हो किन्तु किसी को पिता नहीं बना सकते क्योंकि इससे तेरे घरवाले भी प्रभावित हो रहे हैं !

   यही स्थिति कुछ लोगों के द्वारा साईं को भगवान मानने में है इससे  सारे हिन्दू प्रभावित हो रहे हैं ! साईं को साईं कहकर साईं की तरह मानने में किसी को कहाँ दिक्कत है सारी आपत्ति तो साईं को भगवान कहने में है !इसे भी मूर्खता ही कहा जाएगा कि जिन लोगों ने अपना आस्था पुरुष(साईं)अलग गढ़ लिया उसकी अलग मूर्तियाँ पूजने लगे,अलग मंदिर बनाने लगे,उसकी अलग पूजा पद्धति बनाने लगे, इन धर्म नकलचियों को जब सब कुछ नक़ल सनातन धर्म की ही करनी है तो अलग भगवान बनाने की जरूरत क्या थी?

      सनातन धर्म में रहते हुए साईं को भगवान मानना धर्मापराध है चूँकि सनातन धर्म की सशास्त्रीय अवधारणा इसकी अनुमति नहीं देती है जगद्गुरु शंकराचार्य जी की जिम्मेदारी है कि वो इसके विरुद्ध समाज को जागृत करें वो अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे हैं।शास्त्रीय साधू संतों  विद्वानों का समर्थन उन्हें प्राप्त है फिर कोई भी हिन्दू उनके शास्त्रीय आदेश पर अंगुली कैसे उठा सकता है वो भी तब जबकि धर्म शास्त्र सम्मत हो ! 

     जो लोग यह कहते हैं कि तुम भगवान मानो न  मानो किन्तु हमें तो मानने दो !मैं पूछता हूँ  कि इतनी उदारता केवल सनातन धर्म के क्षेत्र में ही क्यों है ?सामजिक क्षेत्र में क्यों नहीं ?चोर,लुटेरे,हत्यारे बलात्कारी आदि ऐसे तो सब कहने लगेंगे कि तुझे गलत काम नहीं करना है मत कर मुझे तो करने दे ! क्या देना संभव है उन्हें छूट ?

     इसलिए सनातन धर्म और शास्त्र विरुद्ध कार्य औरों को भी कैसे कर लेने दे चूँकि इसी धर्म के अंग हम भी हैं इनके किसी गलत काम का दंड हमें भी भोगना होगा चूँकि धर्म व्यक्तिगत नहीं होता है ! वैसे भी कोई धर्म अपने धार्मिक और शास्त्रीय सिद्धांतों के विरुद्ध किसी की कोई हरकत बर्दाश्त करता है क्या ?आखिर सनातन धर्म को छोड़ कर ये सीख किसी और को क्यों नहीं दी जाती है अभी कुछ दिन पहले ही तो धर्म विशेष के आस्था महापुरुष की पोशाक की नकल किसी ने कर ली थी तो जो बवाल हुआ था सारी दुनियाँ ने देखा था किन्तु वहाँ तो पोशाक की नक़ल थी यहाँ तो हमारे भगवानों की नक़ल की जा रही है और हम्हीं को ऐसा स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जा रहा है ये हमारी कायरता का ही परिणाम है अगर मीडिया में हिम्मत थी तो पोशाक प्रकरण में लगा कर दिखा देते धर्म संसद !सबकी सारी  बकवास केवल सनातन धर्मियों के लिए !  

      ये कोई बाप दादा की जमीन का हिस्सा नहीं है जो बाँट कर अपना अपना हिस्सा ले लिया जाएगा ! ये तो धर्म है बंधुओं ! ये अपने पूर्वजों ने हम सबको साथ साथ मिलकर मानने और मनाने के लिए बनाया है इसमें तो उसी तरह से चलना पड़ेगा जैसी परम्पराएँ पहले से प्रचलित हैं और यदि कुछ नया करना होगा तो शास्त्रीय मर्यादाओं में रहकर ही आपसी सहमति से करना पड़ेगा धर्म में मनमानी नहीं चल सकती ,अपनी सुविधानुशार चलने की छूट किसी भी धर्म में नहीं है फिर सनातन धर्म से ही ऐसी अपेक्षा क्यों ? यदि कर्तव्य पालन में छूट की बात स्वीकार की गई तो सारे अपराधी उन्मत्त हो जाएँगे वो भी कहेंगे कि तुझे चोरी,बलात्कार हत्या आदि नहीं करनी है मत कर मुझे तो करने दे ! ऐसे न तो धर्म चल पाएगा न समाज और न ही देश । हर किसी जगह नियम कुछ तो बनाने और मानने ही पड़ते हैं अन्यथा संविधान बनाने की जरूरत ही क्यों पड़ती ? तन पर शासन सरकार का होता है मन पर शासन धर्म का होता है यदि तन के संविधान की आवश्यकता है तो मन के संविधान की क्यों नहीं ! अपराध करने वाले को संविधान सजा देता है वहीँ धर्म अपराधी को अपराध से मुक्ति हेतु प्रेरित करता है वैसे भी एकांत के अपराधों में धर्म सबसे अधिक कारगर सिद्ध हो सकता है इसलिए धर्म में मन मानी क्यों कि ' तू मत कर मुझे तो करने दे' इस मुझे के चक्कर में ही तो देश और समाज की दुर्दशा हो रही है परिवार टूट रहे हैं समाज विखर रहा है इसलिए मुझे क्यों हमें क्यों नहीं ?


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