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Wednesday, January 19, 2022

परोक्ष विज्ञान

तर्कशास्त्र, अनुमान के वैध नियमों का व्यवस्थित अध्ययन है | युक्ति का विश्लेषण और मूल्यांकन तर्कशास्त्र है।
तर्कशास्त्र का विषय परोक्ष ज्ञान अथवा अनुमान है। तर्कशास्त्र का सम्बन्ध वास्तव में शुद्ध अनुमान के नियमों और सिद्धान्तों से है जिनका पालन कर हम सत्य परोक्ष ज्ञान की प्राप्ति कर सकें। तर्कशास्त्र शुद्ध तथा अशुद्ध अनुमान में भेद करने के तरीकों को हमारे सामने रखते हुए सही ढंग से अनुमान और तर्क करने के नियमों का निरूपण करता है। इस प्रकार तर्कशास्त्र का सम्बन्ध हमारे परोक्ष ज्ञान से है, जिसका विकसित ज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़ा अंश है। वैज्ञानिक ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधारित अवश्य होता है, परन्तु उसका ज्यों-ज्यों विकास होता है, परोक्ष ज्ञान का अंश उसमें बढ़ता जाता है। दूसरे शब्दों में वैज्ञानिक ज्ञान के विकास में अनुमान एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सहायक क्रिया है। परन्तु यदि यह अनुमान सही रास्ते पर न हो, तो फिर ज्ञान का विकास होने के बजाय ह्रास होगा तथा वह जीवन के लिए घातक सिद्ध होगा। और सही अनुमान के तरीकों को हमारे सामने रखना ही तर्कशास्त्र का मुख्य काम है।

मनुष्य जितने प्रकार के ज्ञान अनेकों साधनों से प्राप्त करता है उन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है-(१) प्रत्यक्ष ज्ञान तथा (२) परोक्ष ज्ञान । प्रत्यक्ष ज्ञान से तात्पर्य वैसे ज्ञान से है जो मनुष्य अपने आन्तरिक अथवा बाह्य ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा साक्षात् रूप से प्राप्त करता है। जैसे, संसार की अनेकों वस्तुओं को देखकर या उनकी आवाज सुनकर या उनका गन्ध अथवा स्वाद लेकर हम इस बात का ज्ञान प्राप्त करते हैं कि कोई वस्तु नारंगी है, कोई गुलाब है, कोई घड़ा है आदि । परन्तु हमारा समस्त ज्ञान प्रत्यक्ष ही नहीं होता। यदि ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान तक ही सीमित रखा जाए तो मनुष्य के ज्ञान की परिधि बहुत ही छोटी हो जाएगी। 
    हमारे ज्ञान का एक बहुत बड़ा भाग परोक्ष ज्ञान का होता है। परोक्ष ज्ञान, प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त ज्ञान तो नहीं है, परन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान के ही आधार पर बुद्धि की कुछ खास क्रिया की सहायता से यह ज्ञान प्राप्त किया जाता है। कहा जा सकता है कि प्रत्यक्ष के आधार पर बुद्धि की क्रिया की सहायता से अप्रत्यक्ष के सम्बन्ध में जो ज्ञान हम प्राप्त करते हैं वह परोक्ष ज्ञान है |
 
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“चन्द्रमा मनसो जाताश्चक्षो सूर्यो अजायत। श्रोत्रांवायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत।”
  एक प्राणी के दो रूप होते हैं- एक सूक्ष्म तथा दूसरा स्थूल। स्थूल शरीर में दो भुजाएं, दो आँख, नाक, पैर, सिर एवं पेट-पीठ आदि होते है। जिससे प्राणी अपनी भौतिक क्रियाओं को करता है। सूक्ष्म शरीर में बुद्धि, विवेक, चेतना, भावना, संवेदना आदि होते है। जिससे वह अपना काम करता है। स्थूल शरीर के समस्त अवयव प्रत्यक्षतः भौतिक आघात-प्रत्याघात के संपर्क में होते हैं। किन्तु सूक्ष्म शरीर के अवयव विविध ग्रंथिगत तरलादि द्रव्यों (Glandular Matters) से घिरे एवं इस प्रकार अत्यंत सुरक्षित एवं संरक्षित (Safe & Preserved) रहते है।

    चेतना+दिमाग=विचार,यादें,तर्क,विवेक(मानसिक). चेतना+दिमाग=शारीरिक संगठन, शरीर-रचना (मनो-शारीरिक).
    चेतना+हृदय=भावनाएँ,एहसास. चेतना+हृदय=प्राण(जिवन).
    चेतना+शरीर=भुख. चेतना+शरीर=ताकत.
    चेतना=मन(ध्यान). चेतना+समय=किस्मत(2) 1.स्वाभाविक 2. कर्म-प्रधान.
    अपनी इंद्रियों की सीमाओं को इस तरह बढ़ाना कि अगर आप यहां बैठे हैं, तो पूरा का पूरा जगत आपको अपना हिस्सा महसूस हो, यही योग है। यही चेतना का विकास है।  

चेतना शब्द का अर्थ बताना चाहूंगा। आखिर चेतना है क्या?
आप बहुत सारी चीजों से मिलकर बने हैं। जब आप एक जीवन के रूप में यहां बैठते हैं तो इसका मतलब है कि इस धरती की एक निश्चित मात्रा यहां मौजूद है, सत्तर फीसदी से ज्यादा पानी की मौजूदगी है, हवा भी है, अग्नि भी है और आकाश भी। इसके अलावा एक मौलिक प्रज्ञा होती है, जो इन सभी चीजों को एक खास तरीके से एक साथ जोड़ती है और इनसे एक जीवन का निर्माण करती है। एक तरह की प्रज्ञा ही है जो मिट्टी को पेड़ बना रही है, पक्षी बना रही है, कीड़ा बना रही है, इंसान बना रही है, हाथी बना रही है। एक ही पदार्थ से एक के बाद एक न जाने कितनी चीजें बनती जा रही हैं।
 
 
        ‘चेतना’ या ‘चेतनता’ एक ऐसा शब्द है जिसका बहुत ही गलत अर्थों में प्रयोग किया जाता है। लोगों ने इसे न जाने किन-किन अर्थों में प्रयोग कर डाला है। तो सबसे पहले तो मैं चेतना शब्द का अर्थ बताना चाहूंगा। आखिर चेतना है क्या?
आप बहुत सारी चीजों से मिलकर बने हैं। जब आप एक जीवन के रूप में यहां बैठते हैं तो इसका मतलब है कि इस धरती की एक निश्चित मात्रा यहां मौजूद है, सत्तर फीसदी से ज्यादा पानी की मौजूदगी है, हवा भी है, अग्नि भी है और आकाश भी। इसके अलावा एक मौलिक प्रज्ञा होती है, जो इन सभी चीजों को एक खास तरीके से एक साथ जोड़ती है और इनसे एक जीवन का निर्माण करती है। एक तरह की प्रज्ञा ही है जो मिट्टी को पेड़ बना रही है, पक्षी बना रही है, कीड़ा बना रही है, इंसान बना रही है, हाथी बना रही है। एक ही पदार्थ से एक के बाद एक न जाने कितनी चीजें बनती जा रही हैं।

जिस वजह से यह सब संभव हो रहा है, उसे हम आमतौर पर चेतना कह देते हैं। हम इस शब्द का प्रयोग क्यों कर रहे हैं? क्योंकि केवल सचेतन व जागरूक रहकर ही आप यह जान सकते हैं कि आप जिंदा हैं या नहीं।
अपनी इंद्रियों की सीमाओं को इस तरह बढ़ाना कि अगर आप यहां बैठे हैं, तो पूरा का पूरा जगत आपको अपना हिस्सा महसूस हो, यही योग है। यही चेतना का विकास है।
 

हम यहां बैठे हैं। हम एक ही हवा में सांस ले रहे हैं। इस हवा में बहुत सारा पानी भी है, नमी है। हम हवा और पानी हमेशा एक-दूसरे से अदल-बदल रहे हैं, आपस में एक दूसरे को साझा कर रहे हैं। हमें इसमें कोई समस्या नहीं है, क्योंकि हमारी पहचान इनसे नहीं है। हमने तो अपनी पहचान अपने इस शरीर के साथ स्थापित की है, इसलिए हमें इसी से समस्याएं हैं। यह मैं हूं, किसी को इस सीमा के अतिक्रमण की इजाजत नहीं है।
तो जिसे हम चेतना कह रहे हैं, वह दरअसल आपके अस्तित्व का बहुत ही सूक्ष्म पहलू है और इसे हर कोई साझा करता है। एक ही प्रज्ञा है जो मेरे भीतर, आपके भीतर या किसी और के भीतर भोजन को मांस में बदल रही है। एक ही प्रज्ञा है। वह अलग-अलग लोगों में अलग-अलग नहीं है। तो अगर लोग अपने शरीर से पहचान स्थापित करने के बजाय अपने भीतरी आयाम से अपनी पहचान स्थापित करें तो ‘मैं’ और ‘तुम’ का उनका भाव हल्का होता जाता है और उन्हें ‘मैं’ और ‘तुम’ एक ही नजर आने लगते हैं। इसका अर्थ है कि सामाजिक संदर्भ में चेतना का विकास हुआ है।
  योग शब्द के अर्थ है मिलन। अगर इसकी अभिव्यक्ति बहुत ही साधारण तरीके से, शारीरिक स्तर पर हो, तो उसे हम कामुकता यानी सेक्सुअलिटी कहते हैं। अगर इसकी अभिव्यक्ति भावनात्मक रूप से हो जाए तो उसे हम प्रेम कह देते हैं। अगर इसे एक चेतन अभिव्यक्ति मिल जाए तो इसे योग कह दिया जाता है।
   दरअसल तकनीक का यह गुण होता है कि उसे जो कोई भी सीखने की कोशिश करता है, यह उसी के लिए काम करना शुरू कर देती है। बस आपको इसे सीखने की जरूरत है। आपको इसमें आंखें बंद करके भरोसा नहीं करना है, न ही इसकी पूजा करनी है, आपको इसे दिमाग में लेकर भी नहीं चलना है, आपको बस इसे प्रयोग करने का तरीका सीखना है और यह आपके लिए कम करने लगेगी। जो कोई भी इसे प्रयोग करना सीख लेता है, यह उसी के लिए काम करना शुरू कर देती है, चाहे वह कोई भी हो। इसीलिए कहा जाता है कि योग एक तकनीक है। आपको बस इसे इस्तेमाल करने का तरीका सीखना है।
चेतना की परिभाषा

अगर आप बेसुध हैं, तो आपको पता नहीं होता कि आप जीवित हैं या नहीं। अगर आप गहरी नींद की अवस्था में हैं तो भी आप यह नहीं जानते कि आप जीवित हैं या नहीं। अगर आप जीवन को महसूस करते हैं, उसकी जीवंतता का अनुभव करते हैं, तो इसकी वजह सिर्फ  यही है कि आप सचेतन हैं।

 

तो इसे हम चेतना कह रहे हैं। अब हम इस चेतना को विकसित करना चाहते हैं। आप इसे उठा नहीं सकते, आप इसे नीचे भी नहीं ला सकते, लेकिन चेतना विकसित करने को हम दूसरे अर्थ में प्रयोग करते हैं। अगर आप यहां अपने शरीर के साथ जबर्दस्त पहचान स्थापित करके बैठे हुए हैं, तो आपकी सीमाएं बिल्कुल साफ  हैं। यह मैं हूँ, यह मैं नहीं हूं। इस स्थिति में आप एक बिल्कुल अलग अस्तित्व हैं। इंसान के भीतर या किसी और प्राणी के भीतर भी यह एक तरह का बस जीवित रहने का तरीका है। इसमें आप कौन हैं, उसकी सीमाएं पूरी तरह से तय हैं। यह मेरा शरीर है, यह तुम्हारा शरीर है। यह मैं हूँ और यह तुम हो। दोनों के एक होने का कोई तरीका नहीं है।
       
 
  विज्ञान के दो पक्ष !
  विज्ञान भौतिक पदार्थो का अध्ययन करता तो वहीं परोक्ष विज्ञान चेतना का अध्ययन करता है। पदार्थ विज्ञान का, साइंस का अपना महत्त्व है। उसी के आधार पर मानवी प्रगति की सुविधा साधनों की अगणित उपलब्धियां हस्तगत हो सकती हैं। उन्हीं के सहारे मनुष्य भौतिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ा है और अन्य जीवधारियों की तुलना में अधिक साधना संपन्न बना है। अध्यात्म चेतना का विज्ञान है। मनुष्य के दो भाग हैं एक जड़ और दूसरा चेतन। जड़ पंचतत्त्वों से बना शरीर है और चेतन आत्मा। जड़ शरीर के लिए जड़ जगत से साधन उपक्रम प्राप्त होते हैं और उन्हें जुटाने के लिए भौतिक विज्ञान की विद्या अपनानी पड़ती है। ठीक इसी प्रकार आत्मा को चेतना की प्रगति और समृद्धि के लिए चेतना विज्ञान का सहारा लेना पड़ता है। ैं। जिस प्रकार इंद्रियजन्य वासनाओं की, तृष्णाओं की पूर्ति भौतिक साधन सामग्री के आधार पर होती है, इसी प्रकार आंतरिक समाधान, संतोष, आनंद उल्लास की असीम शांति भरी स्थिति अध्यात्म विज्ञान के आधार पर उपार्जित संपदाओं से होती है।
       1.  भौतिक पदार्थो का अध्ययन   
       2. चेतना का अध्ययन :- कुछ जीवधारियों में स्वयं के और अपने आसपास के वातावरण के तत्वों का बोध होने, उन्हें समझने तथा उनकी बातों का मूल्यांकन करने की शक्ति का नाम है। विज्ञान के अनुसार चेतना वह अनुभूति है जो मस्तिष्क में पहुँचनेवाले अभिगामी आवेगों से उत्पन्न होती है। इन आवेगों का अर्थ तुरंत अथवा बाद में लगाया जाता है।चेतना मनुष्य की वह विशेषता है जो उसे जीवित रखती है और जो उसे व्यक्तिगत विषय में तथा अपने वातावरण के विषय में ज्ञान कराती है। इसी ज्ञान को विचारशक्ति (बुद्धि) कहा जाता है। यही विशेषता मनुष्य में ऐसे काम करती है जिसके कारण वह जीवित प्राणी समझा जाता है।
उदाहरणार्थ, हम एक ऐसे मनुष्य के बारे में सोच सकते हैं जो नदी की ओर जा रहा है। यदि वह चलते-चलते नदी तक पहुँच जाता है और नदी में घुस जाता है तो वह डूबकर मर जाएगा। वह अपना चलना तब तक नहीं रोक सकता और नदी में घुसने से अपने को तब तक नहीं बचा सकता जब तक कि उसकी चेतना में यह ज्ञान उत्पन्न नहीं होता कि उसके समने नदी है और वह जमीन पर तो चल सकता है, परंतु पानी पर नहीं चल सकता। मनुष्य की सभी क्रियाओं पर उपर्युक्त नियम लागू होता है चाहे, ये क्रियाएँ पहले कभी हुई हों अथवा भविष्य में कभी हों। मनुष्य केवल चेतना से उत्पन्न प्रेरणा के कारण कोई काम कर सकता है।
     चेतना मानव में उपस्थित वह तत्व है जिसके कारण उसे सभी प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं। चेतना के कारण ही हम देखते, सुनते, समझते और अनेक विषय पर चिंतन करते हैं। इसी के कारण हमें सुख-दु:ख की अनुभूति भी होती है और हम इसी के कारण अनेक प्रकार के निश्चय करते तथा अनेक पदार्थों की प्राप्ति के लिए चेष्टा करते हैं।
      मानव चेतना की तीन विशेषताएँ हैं। वह ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक होती है। भारतीय दार्शनिकों ने इसे सच्चिदानंद रूप कहा है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के विचारों से उक्त निरोपज्ञा की पुष्टि होती है। चेतना वह तत्व है जिसमें ज्ञान की, भाव की और व्यक्ति, अर्थात् क्रियाशीलता की अनुभूति है। जब हम किसी पदार्थ को जानते हैं, तो उसके स्वरूप का ज्ञान हमें होता है, उसके प्रति प्रिय अथवा अप्रिय भाव पैदा होता है और उसके प्रति इच्छा पैदा होती है, जिसके कारण या तो हम उसे अपने समीप लाते अथवा उसे अपने से दूर हटाते हैं।
    मनोविज्ञान अभी तक चेतना के स्वरूप में आगे नहीं बढ़ सका है। चेतना ही सभी पदार्थो को, जड़ चेतन, शरीर मन, निर्जीव जीवित, मस्तिष्क स्नायु आदि को बनाती है, उनका स्वरूप निरूपित करती है। फिर चेतना को इनके द्वारा समझाने की चेष्टा करना अविचार है। मेगडूगल महाशय के कथनानुसार जिस प्रकार भौतिक विज्ञान की अपनी ही सोचने की विधियाँ और विशेष प्रकार के प्रदत्त हैं उसी प्रकार चेतना के विषय में चिंतन करने की अपनी ही विधियाँ और प्रदत्त हैं। अतएव चेतना के विषय में भौतिक विज्ञान की विधियों से न तो सोचा जा सकता है और न उसके प्रदत्त इसके काम में आ सकते हैं।
     भौतिक विज्ञान स्वयं अपनी उन अंतिम इकाइयों के स्वरूप के विषय में निश्चित मत प्रकाशित नहीं कर पाया है जो उस विज्ञान के आधार हैं। पदार्थ, शक्ति, गति आदि के विषय में अभी तक कामचलाऊ जानकारी हो सकी है। अभी तक उनके स्वरूप के विषय में अंतिम निर्णय नहीं हुआ है। अतएव चेतना के विषय में अंतिम निर्णय की आशा कर लेना युक्तिसंगत नहीं है। चेतना को अचेतन तत्व के द्वारा समझाना, अर्थात् उसमें कार्य-कारण संबंध जोड़ना सर्वथा अविवेकपूर्ण है। चेतना को जिन मनोवैज्ञानिकों ने जड़ पदार्थ की क्रियाओं के परिणाम के रूप में समझाने की चेष्टा की है अर्थात् जिन्होंने इसे शारीरिक क्रियाओं, स्नायुओं के स्पंदन आदि का परिणाम माना है, उन्होंने चेतना की उपस्थिति को ही समाप्त कर दिया है।मनोविज्ञान का विषय मनुष्य का दृश्यमान व्यवहार ही नहीं होना चाहिए।
     चेतना स्वयं तत्व है और उसका शरीर से आपसी संबंध है, अर्थात् चेतना में होनेवाली क्रियाएँ शरीर को प्रभावित करती हैं। कभी-कभी चेतना की क्रियाओं से शरीर प्रभावित नहीं होता और कभी शरीर की क्रियाओं से चेतना प्रभावित नहीं होती। एक मत के अनुसार शरीर चेतना के कार्य करने का यंत्र मात्र हैं, जिसे वह कभी उपयोग में लाती है और कभी नहीं लाती। परंतु यदि यंत्र बिगड़ जाए, अथवा टूट जाए, तो चेतना अपने कामों के लिए अपंग हो जाती है। कुछ गंभीर मनोवैज्ञानिक विचारकों द्वारा विज्ञान की वर्तमान प्रगति की अवस्था में उपर्युक्त मत ही सर्वोत्तम माना गया है।
    मनोविज्ञान ने सर्वप्रथम अपनी आत्मा का त्याग किया ,फिर मन का त्याग किया ,फिर चेतना का त्याग किया और आज मनोविज्ञान व्यवहार के विधि के स्वरूप को स्वीकार करता हैं ”


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