भाग्य से ज्यादा और समय से पहले किसी को न सफलता मिलती है और न ही सुख ! विवाह, विद्या ,मकान, दुकान ,व्यापार, परिवार, पद, प्रतिष्ठा,संतान आदि का सुख हर कोई अच्छा से अच्छा चाहता है किंतु मिलता उसे उतना ही है जितना उसके भाग्य में होता है और तभी मिलता है जब जो सुख मिलने का समय आता है अन्यथा कितना भी प्रयास करे सफलता नहीं मिलती है ! ऋतुएँ भी समय से ही फल देती हैं इसलिए अपने भाग्य और समय की सही जानकारी प्रत्येक व्यक्ति को रखनी चाहिए |एक बार अवश्य देखिए -http://www.drsnvajpayee.com/
Wednesday, December 12, 2012
कला के नाम पर महिलाओं के सम्मान से खिलवाड़ !
इसीप्रकार टी.वी. पर आने वाले कई कार्यक्रमों में लड़कियों को बहुत छिछले ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा होता है।वो भी हॅंसते हॅंसते वो रोल पैसे के कारण निभा रही होती हैं।सोहागरात जैसे शब्द तो आम होते जा रहे हैं।एक लड़का कामेडी के नाम पर दूसरी आधे अधूरे कपड़ों वाली लड़की की चिकनी टॉंगों की बात बता रहा होता है।सोहागरात और सोहागरात पर दूध का गिलास की चर्चा तो धीरे धीरे अधिकांश कार्यक्रमों में दिखती है।कमेडी के नाम पर मिसे जा रहे होते हैं एक दूसरे के शरीर, बोले जा रहे होते है एक दूसरे के माता पिता के विषय में अश्लील वाक्य!मांसल मंथन इतना अधिक बोला जा रहा होता है कि उसमें कला तो कहीं दिखाई सुनाई ही नहीं पड़ती है।सारी भाषा ही एक दूसरे को गाली गलौच देने की होती है। अरे! यह कैसी कामेडी?यदि एक दूसरे को बेइज्जत करके ही हॅंसाना जरूरी है तो यह तो आम चौराहों पर भी होता है।
त्याग बलिदान की प्रेरणा देने वाले शिक्षण संस्थानों में आज अध्यापक अध्यापिकाएँ इतना भड़कीला श्रंगार करते हैं।क्या बच्चे उनसे संयम की प्रेरणा लेंगे?लगभग हर संस्था रिसेप्सन पर कोई सुंदर युवा लड़की बैठाती है ताकि उसकी वेष भूषा से देखने वाले लोगों को पूरा दर्शन सुख मिले। आज बाबाओं को भी आगे बढ़ने के लिए सुंदरियों की जरूरत पड़ती है जब तक ऐसी वैसी कुछ सुंदरी नायिकाएँ योग सीखने नहीं आती हैं तब तक बाबाजी अच्छे योगी नहीं माने जाते हैं जब तक सुंदर चेली साथ में न हो तब तक साधुता जमती नहीं है इसी प्रकार ज्योतिष आदि को भी व्यवसाय की दृष्टि से देखने वाले लोग भी केवल अपनी विद्या के बल पर समाज में नहीं उतरते हैं।उन्हें भी इस तरह के ग्लेमर की जरूरत पड़ती है।वो भी विज्ञापनीय झूठ बोलने के लिए एक लड़की साथ लिए बिना आगे नहीं बढ़ते हैं। इन सारी बातों को कहने के पीछे हमारा उद्देश्य मात्र इतना है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में महिलाओं को जो सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था वह केवल उनके सद्गुणों के कारण ही था।इसका यह कतई मतलब नहीं था कि वो सुंदरी नहीं थीं या वो श्रंगार नहीं करती थीं। पुरुषों को हर युग में फिसलते देखा जा सकता है जबकि महिलाओं ने हर युग में धैर्य एवं संयम से काम लिया है और हमेंशा अपने गौरव की रक्षा की है।आज फिर से समय आ गया है जब कन्याओं में गुणों की गरिमा बढ़ाने पर जोर दिया जाए शरीरों की सुंदरता एक जैसी कभी नहीं रहती है जबकि गुणों का गौरव हमेंशा अमर रहता है पुरुषों को भी ऐसे कार्यक्रमों का न केवल विरोध अपितु बहिष्कार करना चाहिए,जो अपने पारंपरिक मूल्यों को मिटाने की ओर अग्रसर हों।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment