बिना वैराग्य के संन्यासी कैसा बिना संन्यास के
कैसे कैसे शंकराचार्य ....!!!
वास्तविक संत झूठ फरेब धोखाधड़ी चोरी छिनारा बदमाशी ब्याभिचार आदि सभी प्रकार के प्रपंचों से दूर रहने वाले विरक्त संत न तो किसी नेता की चाटुकारिता करते हैं और न ही किसी धनी सेठ साहूकार की! इसी लिए उन्हें भी न कभी कोई नेता घास डालता है और न ही कोई धनी सेठ साहूकार आदि! किन्तु उन्हें इसकी परवाह भी नहीं होती है वो शास्त्रों के अनुशार जीना चाहते हैं और भगवान के भरोसे रहना चाहते हैं जो मिला जहाँ मिला वहाँ अपने संन्यास धर्म की मर्यादा के अनुशार उसे ईच्छा हुई तो स्वीकार किया अन्यथा बिना परवाह किए छोड़ कर चल दिए !ये संन्यासी हमारे प्रणम्य महापुरुष हैं।
दूसरे नकली
संन्यासी असली वालों से ज्यादा बन ठन कर रहते हैं इनमें साधुत्व तो होता ही नहीं है प्रत्युत संन्यास का
गौरव भी गिरा रहे होते हैं।अबकी बार नकली साधुओं ने असली साधुओं को कुम्भ जैसे मेले बाहर जाने पर मजबूर कर दिया!नकली साधुओंका प्रशासन पर भी दबदबा इतना अधिक दिखाई देता है कि जो वो कहते हैं वो प्रशासन मानता है और प्रशासन कहता वो ये मानते हैं!नकली साधुओं के सारे आचार व्यवहार गृहस्थों के सामान होते
हैं केवल गृहस्थ किसी से माँगने में अच्छा नहीं लगता था घर वाले बेइज्जती
महसूस करते होंगे इसलिए साधू बनकर माँगने में वह शर्म भी छूट जाती है अब
कहीं भी कुछ भी किसी से भी बेहिचक माँगा जा सकता है उससे धर्म और समाज सेवा के नाम सारे सुख सुविधा के साधन जोड़ लिए जाते हैं ।योग पीठ, आश्रमी होटल कथा
कीर्तन के नाम पर नाच गाना विद्यालय गोशाला भोग भंडारा किसी संगठन के
अध्यक्ष, महामंत्री आदि कुछ भी बन जाते हैं कुछ लोग तो सांसद मंत्री सब कुछ
बन जाते हैं अपनी हर भोग भावना भक्तों के ईच्छा पर डाल कर सुख सुविधा युक्त जीवन जीते हैं ।
बात बनारस की है भक्तों
की ईच्छा का सम्मान करते हुए एक साधू महराज ने एक सुंदरी को शिष्या बनाया
फिर उसे अपना सब कुछ बना लिया जब कोई पूछे तो सहज स्वभाव से अपनी बात बता
देते कि क्या करें भक्त नहीं मानें उन्होंने कहा कि महाराज जी आप अकेले
रहते हो आपका जीवन हम सबके लिए बहुमूल्य है आपको सेविका तो चाहिए ही इतना तो बनता भी है । भक्त नहीं माने इस लिए मैंने इसे रख लिया क्या करता ?वैसे भी रखते तो लगभग सभी लोग हैं किन्तु हमारा आश्रम छोटा होने के कारण कुछ छिप नहीं पाता है।इस प्रकार भक्तों की ईच्छा का सम्मान करने के नाम पर आधुनिक साधू महाराज सारी सुख सुविधाएँ जोड़ लेते हैं ।इसमें उनकी कोई गलती नहीं है ।बंधुओं !वैराग्य इतना आसान भी नहीं होता है ।सबसे कठिन होता है वैराग्य!तभी
तो उस वेष का सम्मान आज है पहले था आगे भी रहेगा।जिनका पूर्व जन्म के
पापों के प्रभाव से इस जन्म में भी पूजन भजन में मन ही नहीं लगता है ।ऐसे
ही लोग पूर्व में कहे गए सारे प्रपंचों में अपने को फँसा कर अपना समय पास
किया करते हैं।
पूर्व जन्म के पाप से हरि चर्चा न सोहात।
नेता और नकली संन्यासी दोनों एक जैसे होते हैं दोनों समाज के लिए बहुत कुछ करने का नाटक करते हैं किन्तु करते सब अपने लिए ही हैं ।
दोनों
की अपनी अपनी पोशाक होती है एक की खादी तो दूसरे की भगवा ।इसीप्रकार दोनों
दूसरे की कमाई पर जीवित रहकर भी दूसरों के लिए बहुत कुछ करने का दिखावा
किया करते हैं।दोनों को भाषण देने की बड़ी लत होती है।दोनों पदवी पाने के
लिए प्राण दे रहे होते हैं।नेता चाहे कूड़ा उठाने वालों का ही अध्यक्ष बनें किन्तु बिना अध्यक्ष बने नहीं रह सकता है इसीप्रकार नकली संन्यासी बिना किसी पद के नहीं रह सकता है चाहे मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, महंत श्री महंत या फर्जी शंकराचार्य आदि ही बनने का आडंबर
क्यों न किया हो।
असली शास्त्रीय संन्यासियों के लक्षण
संन्यासियों या किसी भी प्रकार के महात्माओं को काम क्रोध लोभ मोह मद मात्सर्य आदि विकारों पर नियंत्रण तो रखना ही चाहिए यदि पूर्ण नियंत्रण न रख सके तब भी प्रयास तो
पूरा होना ही चाहिए।वैराग्य की दृढ़ता दिखाने के लिए कहा गया कि स्त्री यदि
लकड़ी की भी बनी हो तो भी वैराग्य व्रती उसका स्पर्श न करे.....!
दारवीमपि मा स्पृशेत्||
माता स्वस्रा दुहित्रा वा .... !
माता, मौसी ,बहन,पुत्री आदि के साथ भी अकेले न बैठे।
शंकराचार्य जी कहा कि विरक्तों के लिए नरक का प्रधान द्वार नारी है-
द्वारं किमेकं नरकस्य नारी
इसी प्रकार
शूरान् महा शूर तमोस्ति को वा
प्राप्तो न मोहं ललना कटाक्षैः|| -शंकराचार्य
का श्रंखला प्राण भृतां हि नारी -शंकराचार्य
मत्स्य पुराण में कहा गया है कि बशीभूत मन वालेसंन्यासियों
को साल के आठ महीने तक विचरण करना चाहिए अर्थात पूरे देश में भ्रमण करना
चाहिए।वर्षा के चार महीने एक स्थान पर रह कर चातुर्मास व्रत करे ।
अत्रि ऋषि ने कहा है कि ये छै चीजें नृप दंड के समान मानकर संन्यासी अवश्य करे -
1. भिक्षा माँगना
2.जप करना
3.स्नानकरना
4.ध्यानकरना
5.शौच अर्थात पवित्र रहना
6.देवपूजन करना
इसीप्रकार न करने वाली छै बातें बताई गई हैं -
1.शय्या अर्थात बिस्तर पर सोना
2.सफेद वस्त्र पहनना
3.स्त्रियोंसे संबधित चर्चा करना या सुनना एवंस्त्रियोंके पास रहना वा स्त्रियों को अपने पास रखना
4.चंचलता का रहन सहन
5.दिन में सोना
6. यानं अर्थात बाहन
किसी भी प्रकार से ये छै चीजें अपनाने से संन्यासी पतित अर्थात भ्रष्ट हो जाते हैं।यथा -
मञ्चकं शुक्ल वस्त्रं च स्त्रीकथा लौल्य मेव च |
दिवास्वापं च यानं च यतीनां पतनानि षट् ||
-अत्रि ऋषि
इसीप्रकार ब्राह्मण गृहस्थ जीवन की सांसारिक उठापटक से मुक्त निर्विकार निर्लिप्त
रहने वाले स्वाभाविकआचरण वाले ब्रह्म-जीवी थे। इन्हें विप्र कहा जाता है।
जिनको भी मिलना होता इनके घर आते थे।संन्यास काअधिकार ब्राह्मणों को दिया गया है ।
आत्मन्यग्नीन्समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद् गृहात् |
जाबालश्रुतेः
वैष्णव
सम्प्रदाय में नियम था कि जो महंत होगा वह तो अविवाहित होगा ही होगा अन्य
लोग चाहें तो अविवाहित भी रह सकते थे और विवाह भी कर सकते थे | शैव
सम्प्रदाय की सभी जातियों के लिए नियम थे कि वे गाँव, बस्ती में प्रवेश
नहीं करते थे। आचार्य
शंकर ने संन्यासी सम्प्रदाय को काल-स्थान-परिस्थिति के अनुरूप एक नई
दशनामी व्यवस्था दी और इनको दस वर्गों में विभाजित किया|ये दस नाम इस प्रकार हैं:-
(1) तीर्थ (2) आश्रम (3) सरस्वती (4) भारती (5) वन (6) अरण्य (7) पर्वत (8) सागर (9) गिरि (10) पुरी
इनमें अलखनामी और दण्डी दो विशेष सम्मानित
शाखाये थीं। दण्डी वे संन्यासी होते थे जो ब्राह्मण से संन्यासी बनते थे।
इनके हाथ में दण्ड[डण्डा] होता था। ये आत्म-अनुशासित थे
हिन्दू धर्म की मान्यताओं, परम्पराओं में आ रही गिरावट को देखते
हुए आदि शंकराचार्य ने ज्ञानमार्गी परम्परा को पुनर्जीवित किया और अद्वैत
दर्शन की मूल अवधारणा ‘बृह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ को स्थापित किया। इसके लिए
उन्होने समूचे देश में अद्वैत और वेदांत का प्रसार किया। काशी के महान
विद्वान मंडनमिश्र के साथ उनका शास्त्रार्थ, इस सिलसिले की महत्वपूर्ण कड़ी
थी, जिसने उन्हें समूचे देश में धर्म दिग्विजयी के रूप में स्थापित कर
दिया।
शंकराचार्य ने प्राचीन आश्रम और मठ
परम्परा में नए प्राण फूँके। शंकराचार्य ने अपना ध्यान संन्यास आश्रम पर
केंद्रित किया और समूचे देश में दशनामी संन्यास परम्परा और अखाड़ों की नींव
डाली।
दशनामी परम्परा:
आदि शंकराचार्य ने
संन्यासियों की आदि-व्यवस्था, अद्वैतवाद और वेदांत दर्शन के संस्थापक
महर्षि वेदव्यास के पुत्र बालयोगी शुकदेव ने की थी। शुकदेव ने पिता से
प्रेरित होकर यह कार्य किया था। पौराणिक काल से वह व्यवस्था चली आ रही थी,
जिसका पुनरुद्धार आदि शंकराचार्य ने दशनामी सम्प्रदाय बनाकर किया। पहले सभी
दशनामी शैव मत में दीक्षित एवं शास्त्र-प्रवीण होते थे ,जिससे धर्म-परम्परा विस्मृत समाज
को दिशा मिल पाती थी। यह भी कहा जाता है कि शंकराचार्य के सुधारवाद का
तत्कालीन समाज में खूब विरोध भी हुआ था और साधु समाज को उग्र और हिंसक
साम्प्रदायिक विरोध से जूझना पड़ता था। काफी सोच-विचार के बाद शंकराचार्य
ने वनवासी समाज को दशनामी परम्परा से जोड़ा, ताकि उग्र विरोध का सामना किया
जा सके। वनवासी समाज के लोग अपनी रक्षा करने में समर्थ थे, और शस्त्र
प्रवीण भी। इन्हीं शस्त्रधारी वनवासियों की जमात नागा साधुओं के रूप में
सामने आई।
शंकराचार्य ने दशनामी
परम्परा को महाम्नाय के अनुशासन से बाँधा। आम्नाय का अर्थ है रीति, वैदिक
ज्ञान, पुण्य-प्रेरित ज्ञान, कुल तथा राष्ट्र की परम्पराएँ।
आदि शंकराचार्यजी ने देश के चार
कोनों में जिसमें
दक्षिण में श्रंगेरी, पूर्व में पुरी , पश्चिम में
द्वारका व उत्तर में बद्रीनाथ में मठ स्थापित किए,चारों दिशाओं में स्थापित
मठों को जब महाम्नाय अर्थात सनातन हिन्दुत्व की नवोन्मेषी धारा से बाँधा
गया, तो उसे मठाम्नाय कहा गया। इन्हीं मठाम्नायों के साथ दशनामी संन्यासी
संयुक्त हुए। वन, अरण्य, नामधारी संन्यासी उड़ीसा के जगन्नाथपुरी स्थित
गोवर्धन पीठ से संयुक्त हुए। पश्चिम में द्वारिकापुरी स्थित शारदापीठ के
साथ
तीर्थ एवं आश्रम नामधारी संन्यासियों को जोड़ा गया। उत्तर स्थित बद्रीनाथ
के
ज्योतिर्पीठ के साथ गिरी, पर्वत और सागर नामधारी संन्यासी जुड़े, तो
सरस्वती, पुरी और भारती नामधारियों को दक्षिण के श्रृंगेरी मठ के साथ जोड़ा
गया।
सैनिक संन्यासियों का स्वरूप:
इन मठाम्नायों के साथ अखाड़ों की
परम्परा भी लगभग इनकी स्थापना के समय से ही जुड़ गई थी। चारों पीठों की
देशभर में उपपीठ स्थापित हुई। कई शाखाएँ-प्रशाखाएँ बनीं, जहाँ धूनि, मढ़ी
अथवा अखाड़े जैसी व्यवस्थाएँ बनीं। जिनके जरिए, स्वयं संन्यासी पोथी, चोला
का मोह छोड़ कर, थोड़े समय के लिए शस्त्रविद्या सीखते थे, साथ ही आमजन को
भी इन अखाड़ों के जरिये आत्मरक्षा के लिए
सामरिक कलाएँ सिखाते थे। इस तरह अखाड़ों के जरिए धर्मरक्षक सेना का एक
स्वरूप बनता चला गया। अखाड़ों का यह स्वरूप प्रायः हर धर्म-सम्प्रदाय में रहा है। दुनियाँ भर
के धार्मिक आंदोलनों के साथ अखाड़ा अर्थात आत्मरक्षा से जुड़ी तकनीक को
ध्यान-प्राणायाम से जोड़कर अपनाया गया। हर धार्मिक सम्प्रदाय के साथ
शस्त्रधारी रहे हैं और धर्म या पंथ अथवा मठ पर आए खतरों का सामना इन्होंने
किया है। जिसे बाद
में आत्मरक्षा की कला के तौर पर मान्यता दे दी गई। मध्यकाल में चारों पीठों से जुड़ी
दर्जनों पीठिकाएँ सामने आईं, जिन्हें मठिका कहा गया। इसका देशज रूप मढ़ी
प्रसिद्ध हुआ। देशभर में दशनामियों की ऐसी कुल 52 मढ़ियाँ हैं, जो चारों
पीठों द्वारा नियंत्रित हैं।
राजेश्वरी प्राच्यविद्या शोध संस्थान की अपील
यदि
किसी को
केवल रामायण ही नहीं अपितु ज्योतिष वास्तु धर्मशास्त्र आदि समस्त भारतीय
प्राचीन
विद्याओं सहित शास्त्र के किसी भी पक्ष पर संदेह या शंका हो या कोई
जानकारी लेना चाह रहे हों।शास्त्रीय विषय में यदि किसी प्रकार के सामाजिक
भ्रम के शिकार हों तो हमारा संस्थान आपके प्रश्नों का स्वागत करता है ।
यदि ऐसे किसी भी प्रश्न का आप
शास्त्र प्रमाणित उत्तर जानना चाहते हों या हमारे विचारों से सहमत हों या
धार्मिक जगत से अंध विश्वास हटाना चाहते हों या राजनैतिक जगत से धार्मिक
अंध विश्वास हटाना चाहते हों तथा धार्मिक अपराधों से मुक्त भारत बनाने एवं
स्वस्थ समाज बनाने के लिए
हमारे राजेश्वरीप्राच्यविद्याशोध संस्थान के
कार्यक्रमों में सहभागी बनना चाहते हों तो हमारा संस्थान आपके
सभी शास्त्रीय प्रश्नोंका स्वागत करता है एवं आपका तन , मन, धन आदि सभी
प्रकार से संस्थान के साथ जुड़ने का आह्वान करता है।
सामान्य रूप से जिसके लिए हमारे संस्थान की सदस्यता लेने का प्रावधान है।
नित्यानंद को आनंद ही आनंद है
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