आखिर बच्चे कहाँ से पावें संस्कार ?
सरकारी शिक्षक सरकारी प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने के नाम पर मोटी सैलरी लेते हैं किन्तु बच्चों को पढ़ाते नहीं हैं उसी सैलरी से अपने बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ा लेते हैं इससे अधिक सरकारी शिक्षा की दुर्दशा का उदाहरण और क्या होगा! इसके बाद भी सरकार ऐसे शिक्षकों की सैलरी समय समय पर बढ़ाती रहती है ऊपर से पेंशन भी देती है आखिर क्यों ?जो शिक्षक अपने कर्तव्य का पालन भी नहीं करते हैं सरकार उनसे भी इतना अधिक खुश रहती है आखिर क्यों ?कहीं सरकारों के किसी पाप को ढकने में ये शिक्षक कोई भूमिका तो नहीं निभा रहे हैं यदि ऐसा न माना जाए तो दूसरा और कारण क्या हो सकता है वो भी सरकार समाज को समझावे !
इस प्रकार सरकार चलाने वालों से लेकर सरकारी कर्मचारियों तक का एक बहुत बड़ा कुनबा देश वासियों पर बोझ बनता चला जा रहा है।जिनकी सैलरी आम आदमी के दिए हुए टैक्स से चुकाई जाती है किन्तु इन्हें तो इस बात का कोई संकोच ही है। यहाँ पढ़ने आने वाले अधिकांश बच्चे गरीब परिवारों के होते हैं एक बहुत बड़ा वर्ग उनका भी है जिनका पारिवारिक वातावरण शिक्षा का नहीं है।जिन दलितों के मसीहा दलितों के उत्थान के लिए अरबों रूपए का बजट पास करवाते हैं फिर उन्हें भी देखने की फुर्सत नहीं होती है कि इस गरीबों के अंश का सदुपयोग हो भी रहा है या नहीं।ऐसी शिक्षा से किसी गरीब का कोई भला होने वाला नहीं है।छोटे छोटे बच्चों को शिक्षा और संस्कार देने के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई से प्राप्त टैक्स के एक बहुत बड़े भाग को निगल कर अजगर की तरह अकर्मण्य रहने वाले शिक्षा विभाग एवं स्कूलों की लापरवाही के ये भयावह परिणाम हैं जो अपराधी, भ्रष्टचारी, बलात्कारी, लुटेरे, अपहरण कर्ता आदि दिनों दिन बढ़ते जा रहे हैं।आखिर ये संस्कार पाते तो कहाँ से ?जब शिक्षकों में त्याग, तपस्या,सदाचरण और बलिदान की भावना होती थी तब बच्चे त्याग, तपस्या,सदाचरण और बलिदान आदि पवित्र भाव अपने शिक्षकों से सीखते थे तब उन्हें प्रेरणा भी यही मिलती थी अब शिक्षकों में त्याग, तपस्या,सदाचरण और बलिदान की भावना दिखाई सुनाई ही कहाँ और कितनी पड़ती है?तब
इस प्रकार सरकार चलाने वालों से लेकर सरकारी कर्मचारियों तक का एक बहुत बड़ा कुनबा देश वासियों पर बोझ बनता चला जा रहा है।जिनकी सैलरी आम आदमी के दिए हुए टैक्स से चुकाई जाती है किन्तु इन्हें तो इस बात का कोई संकोच ही है। यहाँ पढ़ने आने वाले अधिकांश बच्चे गरीब परिवारों के होते हैं एक बहुत बड़ा वर्ग उनका भी है जिनका पारिवारिक वातावरण शिक्षा का नहीं है।जिन दलितों के मसीहा दलितों के उत्थान के लिए अरबों रूपए का बजट पास करवाते हैं फिर उन्हें भी देखने की फुर्सत नहीं होती है कि इस गरीबों के अंश का सदुपयोग हो भी रहा है या नहीं।ऐसी शिक्षा से किसी गरीब का कोई भला होने वाला नहीं है।छोटे छोटे बच्चों को शिक्षा और संस्कार देने के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई से प्राप्त टैक्स के एक बहुत बड़े भाग को निगल कर अजगर की तरह अकर्मण्य रहने वाले शिक्षा विभाग एवं स्कूलों की लापरवाही के ये भयावह परिणाम हैं जो अपराधी, भ्रष्टचारी, बलात्कारी, लुटेरे, अपहरण कर्ता आदि दिनों दिन बढ़ते जा रहे हैं।आखिर ये संस्कार पाते तो कहाँ से ?जब शिक्षकों में त्याग, तपस्या,सदाचरण और बलिदान की भावना होती थी तब बच्चे त्याग, तपस्या,सदाचरण और बलिदान आदि पवित्र भाव अपने शिक्षकों से सीखते थे तब उन्हें प्रेरणा भी यही मिलती थी अब शिक्षकों में त्याग, तपस्या,सदाचरण और बलिदान की भावना दिखाई सुनाई ही कहाँ और कितनी पड़ती है?तब
के आखिर आम आदमी की चिंता भी किसी को होनी चाहिए या नहीं जो सरकार के लगभग हर विभाग के द्वारा लूटा जा रहा है?
एक उदाहरण लेता हूँ दिल्ली जैसी चुस्त दुरुस्त कानून व्यवस्था का दावा करने वाली राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के सरकारी या एम.सी.डी.के प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति यह है कि पढ़ने पढ़ाने का वहाँ कोई वातावरण ही नहीं है केवल अधिकारियों से लेकर कर्मचारियों तक की सैलरी समय से बढ़ा या बाँट दी जाती है उनके और सारे खर्च समय से दे दिए जाते हैं। उन विद्यालयों के शिक्षक एवं कर्मचारियों की देख रेख करने वाले बड़े बड़े अधिकारियों की भी मोटी मोटी सैलरी तो बनती ही है बच्चों को भोजन देने की रस्म भी अदा की जाती है जातियों सम्प्रदायों के हिसाब से बच्चों को कुछ पैसे भी दिए जाते हैं कभी कभी उनके घर वालों को भी पैसे दिए जाते हैं। शिक्षक वर्ग लिए दिए पैसों का हिसाब किताब लगाने का काम भोजन बाँटने एवं सफाई कराने का काम ही मुश्किल से कर या करवा पाता है इतनी बड़ी मेहनत करने के बाद खुद भी भोजन करते हैं भोजन के बाद टहलना जरूरी होता है इसलिए जो समय मिला टहलते और घर जाते हैं। स्कूल की समय सारिणी कुछ इस प्रकार है साढ़े सात बजे बच्चे स्कूल आते हैं उन्हीं बच्चों में से एक बच्चे को मानीटर बनाया गया होता है जो सभी बच्चों को प्रार्थना व्यायाम आदि करवाता या करवाती है। आठ या सवाआठ बजे तक अध्यापक अध्यापिकाएँ भी आ ही जाते हैं यदि किसी को घर में कोई काम नहीं लगा तो यदि कोई काम लग ही गया तो अपना काम पहले करना पड़ता है स्कूल में क्या फरक पड़ता है ? खैर जो लोग स्कूल पहुँच भी गए प्रार्थना व्यायाम में सम्मिलित हों या न हों आठ या सवा आठ तो बज ही जाता है।इसके बाद आफिस में जाकर साईन करने की रीति निभाई जाती है ये सब करते कराते एक आध घंटा तो लग ही जाता है ये बताने में बीती रात किस किस पर क्या क्या बीती!कहाँ कहाँ कल शाम को टहले या शापिंग की! इस प्रकार बोलते बताते लंच का समय हो जाता है इन सबके बीच में ही कोई कोई शिक्षक अपनी अपनी कक्षाओं में बीच बीच में चक्कर मार लिया करते हैं और शिक्षा प्रद कोई पोस्टर बोर्ड पर चिपका कर बच्चों से कह दिया कि इसकी नक़ल कर लो। इसीप्रकार कभी किताब से कोई राइटिंग आदि लिखने को बताकर चले गए इसीप्रकार जो बच्चे लिख लेने लगे उन्हीं को किसी के सामने खड़ा करके यह सिद्ध करना कि देखो हम कितना अच्छा पढ़ा लेते हैं बाकी बच्चे जो नहीं लिख पाते हैं उनके माता पिता की बुराई करते हुए उन्हें बिल्कुल पिछड़ी बस्तियों का सिद्ध करते हुए सारा दोष उन पर एवं उनके माता पिता पर बड़ी चालाकी से मढ़ दिया जाता है।
बातों बातों में लंच का समय हो जाता है, भोजन बँटता है, सफाई होती है, फिर बच्चों को भाई चारे का संदेश और संस्कार देते हुए शिक्षक शिक्षिकाएँ आदि मिल जुलकर हँसी खुशी से अलग अलग टोलियों में बैठकर भोजन करते हैं।इसके बाद बारी बारी से सभी अध्यापक अध्यापिकाओं को दो दो तीन तीन दिन के अंतराल में ज़रूरी काम लगते रहते हैं जिनमें उन्हें लंच के बाद अपनी अपनी बारी पर जरूरी काम नाम के बहाने से जाना पड़ता है ये क्रम पूरे वर्ष पर्यन्त चलता रहता है। चूँकि उन लोगों को प्रधानाचार्य को बताकर जाना होता है इसलिए प्रधानाचार्य उन्हें कोई छोटा सा काम करके आने को बता देते हैं जैसे रजिस्टर लेते आना पेन ले लेना या फोटोकापी करा लाना आदि ये सारे काम छुट्टी तक या कल तक करके लाने होते हैं।
यदि कोई अभिभावक आदि लंच के बाद चले गए शिक्षक के विषय में पूछने लगे तो उसे झूठ मूठ में समझाने के लिए ये सब बातें बतानी पड़ती हैं कि हम लोगों को क्या क्या काम करना पड़ता है इसीलिए फलां अध्यापक को स्कूल काम से भेजना पड़ा है बताओ हम लोग क्या क्या करें कब पढावें?वैसे तो इस युग में बेइज्जती का पर्याय बन चुके सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने वाला हीन भावना से ग्रस्त अभिभावक इतनी हिम्मत कहाँ जुटा पाता है कि पूछ सके कि हमारे बच्चे के क्लास के शिक्षक कहाँ हैं? वो क्लास में क्यों नहीं जाते हैं?रही बात किसी अधिकारी की तो कोई अधिकारी वैसे तो स्कूलों में आता ही नहीं है यदि आएगा भी तो पहले फोन करके आएगा जिस दिन कहा जाएगा उसी दिन आएगा अपने विभाग की बात है तो अध्यापकों,स्कूलों की बेइज्जती न होने देने की आखिर उनकी भी जिम्मेदारी होती है अन्यथा हवालदार की गलती पर कमिश्नर से इस्तीफा माँगने की अपने देश वासियों की आदत से वो भी परिचित होते हैं तो वो कोई रिस्क क्यों लेंगे ?
ऐसे विद्यालयों के प्रधानाचार्यों की चालाकी कुशलता एवं झूठ बोलने के अच्छे अभ्यास से सबकी मुँदी ढकी चलती रहती है। ये जोड़ तोड़ में बहुत माहिर होते हैं।इसमें भी जिन प्रधानाचार्यों को एक्सटेंसन मिला हुआ है वो तो पूरी तरह स्वतन्त्र होते हैं क्योंकि वो पूरा पैसा पहले ही उठा चुके होते हैं अब उनका कोई अधिकारी भी क्या बिगाड़ लेगा ?ऐसे लोग जहाँ तहाँ विद्यालयों की विश्वसनीयता बड़ी बुरी तरह नष्ट होते देख रहे हैं। जो एक्सटेंसन पर आए हैं अर्थात जिन पर कोई सरकारी अधिकारियों का दबाव ही नहीं बचा है उन्हें प्रधानाचार्य बनाकर एक विद्यालय की जिम्मेदारी दे देना कहाँ तक न्यायोचित है ?ये शिक्षा व्यवस्था के साथ अन्याय नहीं तो क्या है ?
प्रतिदिन प्रार्थना के बाद आफिस में हाल चाल खैर कुशल पूछने बताने के बाद जिस दिन किसी अधिकारी के आने की रस्म अदायगी होनी होती है उस दिन इन सब बातों के बीच ही प्रधानाचार्य नाम का प्रमुख प्राणी सरदार की सी भूमिका निभाते हुए सबको समझाता है कि शायद आज कोई अधिकारी आने वाले हैं इसलिए कैसे किसको कहाँ सतर्क रहकर अपनी अपनी कक्षाओं में रहते हुए दिखना है। यदि कोई अधिकारी आ जाए तो उसे कैसे किसको खुश करना है यह भी समझाया जाता है कि कैसे कैसे कौन कौन कहाँ कहाँ मोर्चा सँभालेगा(ठीक लंका में चढ़ाई करते समय रामदल की तरह) ताकि वो रूठने न पाए इस काम में अपने में से कुशल बटरिंग स्पर्ट लगाए जाते हैं जिनका काम उस अधिकारी को ख़ुशी ख़ुशी चाय नास्ता कराकर मंद मंद मुसुकाते एवं अकारण ठहाका मारकर हँसते हुए मंथर गति से विद्यालयी कक्षाओं की सैर कराकर सकुशल प्रसन्न मुद्रा में टाटा बायबाय कहकर मुसुकाते हुए बिदा करना होता है।इस काम में जो जितना निपुण होता है प्रधानाचार्य उससे उतना खुश रहते हैं वो कभी भी छुट्टी पर जा सकता है बताए न बताए ये विश्वास का सौदा होता है ।
एक ओर अपने बच्चे के एडमीशन में लाखों रुपए का डोनेशन देने वाले उत्साही माता पिता हैं तो दूसरी ओर हीन भावना से ग्रस्त वे माता पिता हैं जो भोजन के लालच में अपने बच्चे का एडमीशन सरकारी विद्यालय में करवाते हैं।कितना अंतराल है दोनों के माता पिता में ?कैसे बचेगा गरीबों का गौरव?आखिर जैसा तैसा भोजन भेजकर गरीब माता पिता का सम्मान क्यों छीना जा रहा है जिसके वे हक़दार हैं जन्म देकर पालन पोषण उन्होंने ही किया है!एक समय भोजन देने के बहाने आखिर क्यों गिराया जा रहा है बच्चों की दृष्टि में माता पिता का गौरव ?यदि सरकार ईमानदारी से आत्मीयता पूर्वक बच्चों की भोजन व्यवस्था करना ही चाहती है तो प्रति बच्चे पर आने वाले भोजन खर्च को धन के रूप में उनके माता पिता को क्यों नहीं दे देती है?आखिर उन पर भी विश्वास किया जाना चाहिए कि वे भी अपने बच्चों को भोजन कराने की ईच्छा रखते हैं कम से कम वे अपने बच्चों के साथ खिलवाड़ नहीं करेंगे ! दूसरी बात प्रति बच्चे पर आने वाले सरकारी भोजन खर्च में उसके माता पिता अपने बच्चे को दोनों समय की भोजन व्यवस्था कर सकते हैं विद्यालय की अपेक्षा उन्हें और अधिक शुद्ध, पवित्र,ताजा एवं माता के हाथ का भोजन मिल सकता है जो स्वाभाविक रूप से स्वादिष्ट माना जाता है। इस प्रकार गरीब माता पिता का सम्मान भी बनाया और बचाया जा सकता है। दूसरी ओर सरकार भी अपना पूरा ध्यान बच्चों की शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने में लगा सकती है जो विद्यालय का सबसे पहला ,उन्नत लक्ष्य है।ऐसा होते ही बच्चों की सफलता दर ऐसी बढ़ेगी कि रईस लोग भी अपने बच्चे सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ाने को मजबूर हो जाएँगे जिससे गरीब रईस बच्चों के बीच पड़ी विषमता की दीवार आसानी से तोड़ी जा सकती है किन्तु इस भोजन व्यवस्था से सब का फायदा होता है सरकार के लिए चुनाव जीतने में सहायक अपनी पीठ थप थपाने को मिलता है।कमाई करने के इच्छुक शिक्षा से संबंधित अधिकारियों कर्मचारियों की इसी बहाने ऊपरी कुछ कमाई भी हो जाती होगी बच्चों को भोजन भी मिल जाता है।जैसे कुछ बनावटी धार्मिक लोग महात्माओं की तरह आडम्बर तो सारे करेंगे चन्दन भी लगाएँगे, कपड़े भी भगवा रंग के पहनेंगे, माला मूला भी पूरी गड्डी पहनेंगे, भक्ति के नाम पर प्रवचन, कीर्तन, नाचना, गाना, बजाना तो सब कुछ करेंगे किन्तु जिस वैराग्य और भक्ति के लिए बाबा बने हैं वह बिलकुल नहीं करते! केवल पैसे जोड़ जोड़कर ऐय्यासी का सामान इकठ्ठा करने तथा उसे भोगने में सारा जीवन बेकार बिता देते हैं।
इसी प्रकार सरकारी
अस्पतालों में जितने की सुविधाएँ नहीं हैं उससे अधिक पैसा उन्हें प्रचारित
करने में खर्च कर दिया जाता है।ठीक यही स्थिति भारत के सरकारी
प्राथमिक स्कूलों की है पढ़ाई के नाम के ड्रामे तो सारे किए जाएँगे किंतु
पढ़ाई पर किसी का कोई ध्यान नहीं होता है।यही कारण है कि आज सरकारी
विद्यालयों को केवल अन्य लोग ही निम्न दृष्टि से नहीं देखते हैं अपितु
सरकारी विद्यालयों एवं शिक्षा से संबंधित अधिकारियों कर्मचारियों की भी सरकारी विद्यालयों के विषय में यही
निम्न दृष्टि ही है आखिर वो अपने बच्चों को क्यों नहीं पढ़ाते हैं सरकारी
स्कूलों में? इसकी एक बार जाँच हो जाए तो सारा दूध का दूध पानी का पानी हो
जाएगा!चुस्त दुरुस्त व्यवस्था कही जाने वाली राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के
सरकारी विद्यालयों की स्थिति इतनी ढीली है कि अपने बच्चों के एडमिशन के
लिए मैं कई सरकारी स्कूलों में गया और अपना विजिटिंग कार्ड दिया तो वहाँ
के प्रधानाचार्यों ने यह कह कर हमें समझाया कि यदि आप अपने बच्चे का
भविष्य बनाना चाहते हो तो गैर सरकारी स्कूल में पढ़ा लीजिए यहाँ
अच्छी पढ़ाई नहीं होती है तो मैंने जानना चाहा कि आखिर यहाँ क्यों नहीं
होती है अच्छी पढ़ाई? क्या सरकारी विद्यालयों के अध्यापक पढ़े लिखे नहीं
होते या वो पढ़ा नहीं पाते हैं या वो सैलरी नहीं लेते हैं या वो पढ़ाने के
लिए यहाँ नियुक्त नहीं हुए हैं या उन्हें किसी का भय नहीं है या उन्हें
पढ़ाना है ही नहीं वो तो नाते रिश्तेदारी निकाल कर या घूँस देकर अध्यापक पद
पर नियुक्त हुए हैं।
इस पर वो थोड़ी देर तक मौन एवं सिर झुकाकर बैठे रहे फिर कहने लगे कि
आखिर कैसे पढ़ाएँ?आज हम लोग किसी बच्चे को डाँट मार नहीं सकते!दूसरी बात यह
है कोई सभ्य, स्वस्थ, सक्षम व्यक्ति अपने बच्चे को यहाँ पढ़ने के लिए भेजता
नहीं है जो भेजते हैं उनमें अधिकांश मजदूर वर्ग है जिन्हें यह परवाह होती
भी नहीं है कि मेरा बच्चा पढ़ता भी है या नहीं?इसलिए वो भी संतुष्ठ हैं
विद्यालय एवं अध्यापक वर्ग भी प्रसन्न है सरकार भी अपनी सफलता से गदगद है फिर किसी और को क्यों आपत्ति हो ?
मुझे लगा कि गैर सरकारी विद्यालय के मालिक केवल धनी होते हैं तब वो
लोग अपने विद्यालयों को अच्छे ढंग से चला लेते हैं दूसरी ओर सरकार के
विद्यालय हैं सरकार सर्व सक्षम है तो सरकार के विद्यालय एवं उनकी
शिक्षा भी इतनी अच्छी हो कि गैर सरकारी विद्यालयों को उनकी अपनी
कमजोरियों का एहसास कराया जा सके जिससे शिक्षा का वातावरण सुधारा जा सकता
है ।
यही एक मात्र वह रास्ता है जो अपराध एवं भ्रष्टाचार दोनों ही कम कर
सकता है और शिक्षा जैसी पवित्र विधा को यदि सरकार सम्हालकर नहीं रख सकी और
शिक्षा से सम्बंधित अपराध, भ्रष्टाचार एवं लापरवाही पर लगाम लगा कर गैर
सरकारी विद्यालयों की तुलना में अधिक सम्मान न दिला सकी तो अच्छा प्रशासन
देने की बात भी वो किस मुख से करने लायक रह पाएगी?
ऐसी शिक्षा पाकर तो अपराध एवं अपराधी प्रवृत्ति के छात्रों की संख्या दिनों दिन बढ़ती चली जाएगी।
ऐसी शिक्षा पाकर तो अपराध एवं अपराधी प्रवृत्ति के छात्रों की संख्या दिनों दिन बढ़ती चली जाएगी।
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