Sunday, October 4, 2020

पत्रकारिता की अर्थी पर बैठकर भ्रष्टाचार की नदी में नौका बिहार कर रहे हैं पत्रकार !

पत्रकारिता की अर्थी पर बैठकर भ्रष्टाचार की नदी में नौका बिहार कर रहे हैं पत्रकार !

      भ्रष्टाचार की बारिश से पत्रकारिता की फसल तवाह होती जा रही है ! पहले भ्रष्टाचार मिटाने एवं जनजन तक सही सूचनाएँ पहुँचाने के उद्देश्य से मीडियाचैनल न्यूजपेपर मैगजीन रूपी खेतों में पत्रकारों की फसल तैयार की जाती थी उससे निर्भीक ईमानदार कर्मठ समाज के शुभचिंतक एवं सतर्क  संविधान प्रहरी पत्रकारों का प्राकट्य होता था | अब रूपी भ्रष्टाचार जलवायुपरिवर्तन के प्रभाव से पत्रकारिता का मौसम बिगड़ रहा है पत्रकारों की फसल चौपट होती जा रही है | पत्रकारिता का स्तर इतना अधिक गिर चुका है कि टीवी चैनलों पर बिना मुद्दे के चीखने चिल्लाने वाले खूसट लोग भी अपने को पत्रकार समझने लगे हैं | 

     जिन पत्रकारों को पहले कभी शेर समझकर कर सरकारें डरा करती थीं वे आज कुकुरों की तरह  सरकारों के आगे दुम दबाए घूम रहे हैं | कुत्तों की दुम केवल हिलती ही है वो न तो कुत्तों  को लगने वाले मक्खी मच्छरों  का निवारण कर पाती है और न उस कुत्ते के गुप्तांगों को ही ढक पाती है |वर्तमान लोकतंत्र में पत्रकारिता अब इसी ढर्रे पर चलती दिख रही है |

      अपने स्वागत में पूछ हिलाने से खुश मालिक जिस प्रकार से कुछ टुकड़े कुत्ते की ओर फ़ेंक देता है निरर्थक भौंकते मीडिया के साथ सरकार भी ऐसा ही वर्ताव कर रही है इससे पत्रकारों की वेष भूषा बनाए घूम रहे डरपोक एवं स्वार्थी लोग कुछ  काली कमाई इकट्ठी करने में भले सफल जाएँ किंतु उनके भटकने से पत्रकारिता मरती जा रही है | इस प्रकार से लोकतंत्र चौथा स्तंभ खतरे में होने का मतलब लोकतंत्र की बिल्डिंग के साथ कभी भी  छोटा बड़ा कैसा  भी हादसा हो सकता है |  इसलिए अभी भी सजीव पत्रकारों को चाहिए कि वे अपनी सजीवता का परिचय दें और प्रिय पत्रकारिता को बचा लें | 

     जनता के खून पसीने की कमाई टैक्स रूप में नोच कर सरकारें जिन भूकंप मौसम और महामारी के लिए  किए जाने वाले अनुसंधानों पर खर्च किया करतीं हैं उन अनुसंधानों से आज तक मिला क्या ?वे केवल अफवाहें फैलाया करते हैं और बिना सर पैर की कल्पित कहानियाँ सुनाया करते हैं जिनका कोई आधार नहीं होता है यह सिद्ध करने के लिए मेरे पास पर्याप्त प्रमाण हैं |उन प्रमाणों को सरकार सुने तो उसकी पोल खुलती है और मीडिया सुने तो उसका श्वानधर्म नष्ट होता है |

     कोई सजीव व्यक्ति चिंतन करे तो पता लग सकता है कि कोरोना जैसी महामारी में वैज्ञानिक अनुसंधानों का योगदान शून्य रहा है जिसे न समझ में आवे वो हमसे प्रमाणित प्रमाण ले | क्या जनता इसीलिए इन पर अपना पेट काट काट कर पैसे खर्च किया करती है कि मुसीबत के समय ऐसे लोग केवल कल्पित कहानियाँ सुनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लें | मीडिया जीवित होता तो ये प्रश्न सरकार और अनुसंधान कर्ताओं से पूछे ही जाने चाहिए थे | 

      जिन आईएएस आईपीस अधिकारियों  की अयोग्यता अनुभव विहीनता भ्रष्टाचार लापरवाही आदि दुर्गुणों के कारण अपराधी तैयार होते हैं केवल उन अपराधियों को सजा सुनाकर सरकार यदि अपराध मुक्त समाज बनाने का सपना देखती है तो सरकार अपराधों को समाप्त करने के प्रति गंभीर नहीं है ऐसा माना जाना चाहिए |अधिकारी कर्मठ होते हैं तो अपराध घटता है और अपराधी यदि अधिकारियों से सबल होते हैं तब अपराध बढ़ता है | वर्तमान समय में बढ़ते अपराधों का कारण अधिकारी हैं या अपराधी यह समझाना मीडिया का काम है | ऐसी परिस्थिति में पत्रकारों का धर्म बन  जाता है कि वे सरकारों की आँखें खोलें किंतु मीडिया में सजीवता बची हो तब न ऐसा हो !

       लोकसभा विधान सभा की कार्यवाहियों में हुल्लड़ मचाने वाले माननीय सदस्यों की क्या गलती ये तो उन लोगों के स्वभाव में है जिसे वे बचपन से करते आ रहे हैं गलती उन्हें ऐसे सदनों तक लाने वाले दलों की है अन्यथा वे अपने स्वभाव को क्यों छोड़ दें | उसी जुझारूपन के कारण उन्हें दलों ने टिकटें दी हैं और वे ऐसे सदनों तक पहुँचे  भी उन्हीं दुर्गुणों के कारण हैं |निर्जीव मीडिया के जनजागरण में असफल रहने के कारण ही यह बिषम परिस्थिति पैदा होती है |

       ऐसी परिस्थिति में मीडिया यदि स्वस्थ और निष्पक्ष होता तो सुखी हो सकता था समाज !

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