मोहन भागवत जी के बयान पर बवाल क्यों ?
भारत या इंडिया...?
सवाल बड़ा महत्वपूर्ण है किसी भी
शब्द का हिंदी, अंग्रेजी आदि सभी भाषाओं में उच्चारण अलग अलग होता है
किन्तु कोई नाम किसी भी भाषा में जाए वो बदला नहीं जा सकता अर्थात किसी
के नाम को ट्रांस्लेशन करके नहीं बुलाया जा सकता। जैसे- कमल नाम वाले किसी
व्यक्ति को लोटस नहीं कहा जाएगा।किसी अन्य देश के किसी एक शहर का नाम हम
नहीं बदल सकते जब कि हमारे इतने बड़े देश का ही नाम अपनी सुविधानुशार बदल
दिया गया। अपने प्रिय भारत का नाम बदल कर इंडिया रखना क्यों आवश्यक हो गया था? कितना आश्चर्यजनक है?दूसरा और कौन ऐसा देश है जिसके साथ ऐसा किया गया हो?जिसे हिंदी में कुछ और तथा अंग्रेजी में
कुछ और कहा जाता हो ।यह अजूबा अपने देश के साथ ही क्यों , जापान का एक नाम है, चीन
का एक नाम है, अमेरिका का एक नाम है और दुनियाँ के तमाम देशों का हिंदी और
अंग्रेजी में एक नाम है तो फिर हमारे देश को हिंदी में भारत और अंग्रेजी
में इंडिया क्यों कहा जाता है?देश में
इतने सालों में सरकार का ध्यान भी इस ओर नहीं गया!
सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सरकारी तौर पर इंडिया और भारत दोनों
शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है। बात सिर्फ आम बोलचाल तक सीमित नहीं है।
सरकारी तौर पर भारत सरकार को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया भी कहा जाता है।आज तो
बहुत सारी चीजों का इंडिया नाम से ही रखा जाने लगा है।उनसे कोई शिकायत भी
नहीं होनी चाहिए क्योंकि जब
सारे देश ने ही इंडिया नाम स्वीकार कर लिया तो अपने देश के नाम पर अपने
चैनल, पत्र, पत्रिकाओं तथा संस्थानों आदि के नाम तो रखे ही जा सकते हैं।
यानी भारत
दुनियाँ का संभवत: इकलौता ऐसा देश है जिसके दो नाम प्रचलन में हैं। हिंदी
में भारत और अंग्रेजी में इंडिया। सरकारी भाषा में भी दोनों को चलन में
लिया गया है,यदि वजह यह हो कि अंग्रेजों ने भारत पर शासन किया था और इस वजह
से उन लोगों
ने अपनी सहूलियत के हिसाब से देश का एक अंग्रेजी नाम भी रखा था तो सवाल यह
उठता है कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी देश अंग्रेजों के नाम को क्यों ढो
रहा है? सबसे दुखद तो यह है कि हमारे कुछ नेता कहते हैं कि भारत और इंडिया
में कोई अंतर नहीं है।यह और दुखद है !
अपने देश का नाम भारत क्यों पड़ा ?
भारत नाम, एक प्राचीन हिन्दू सम्राट भरत जो कि मनु के वंशज ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे तथा जिनकी कथा श्रीमद्भागवत महापुराण में है, के नाम से लिया गया है। भारत (भा + रत) शब्द का मतलब है आन्तरिक प्रकाश । इसके अतिरिक्त भारतवर्ष को वैदिक काल से आर्यावर्त "जम्बूद्वीप" और "अजनाभदेश" के नाम से भी जाना जाता रहा है।
भारत को एक सनातन राष्ट्र माना जाता है क्योंकि यह मानव-सभ्यता का पहला राष्ट्र था। श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कन्ध में भारत राष्ट्र की स्थापना का वर्णन आता है। भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात ब्रह्मा के मानस पुत्र स्वयंभू मनु ने व्यवस्था सम्भाली। इनके दो पुत्र, प्रियव्रत और उत्तानपाद थे। उत्तानपाद भक्त ध्रुव
के पिता थे। इन्हीं प्रियव्रत के दस पुत्र थे। तीन पुत्र बाल्यकाल से ही
विरक्त थे। इस कारण प्रियव्रत ने पृथ्वी को सात भागों में विभक्त कर एक-एक
भाग प्रत्येक पुत्र को सौंप दिया। इन्हीं में से एक थे आग्नीध्र जिन्हें जम्बूद्वीप
का शासन कार्य सौंपा गया। वृद्धावस्था में आग्नीध्र ने अपने नौ पुत्रों को
जम्बूद्वीप के विभिन्न नौ स्थानों का शासन दायित्व सौंपा। इन नौ पुत्रों
में सबसे बड़े थे नाभि जिन्हें हिमवर्ष का भू-भाग मिला। इन्होंने हिमवर्ष को स्वयं के नाम अजनाभ से जोड़ कर अजनाभवर्ष प्रचारित किया। यह हिमवर्ष या अजनाभवर्ष ही प्राचीन भारत देश था। राजा नाभि के पुत्र थे ऋषभ। ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान थे। ऋषभदेव ने वानप्रस्थ लेने पर उन्हें राजपाट सौंप दिया। पहले भारतवर्ष का नाम ॠषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर अजनाभवर्ष प्रसिद्ध था। भरत के नाम से ही लोग अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे बहुत पहले यह देश 'सोने की चिड़िया' के रूप में जाना जाता था।
इस प्रकार भारत नामअपनी पवित्र संस्कृति एवं इतिहास की याद दिलाता है जबकि इंडिया नाम से हमारा कोई सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक सम्बन्ध नहीं सिद्ध होता है ।
इसका उदाहरण केवल भारत है।जापान का एक नाम है, चीन
का एक नाम है, अमेरिका का एक नाम है किन्तु भारत नाम को बदलकर इंडिया रखना क्यों जरूरी हो गया था?
भारतीय परम्परा में महिलाओं का सम्मान
भारतीय परम्परा में महिलाओं का सम्मान हमेशा होता रहा है।महिलाओं के
प्रति व्यवहार भारतीय परंपरागत मूल्यों के आधार पर आज भी होना चाहिए-
मातृवत् पर दारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् |
जननी सम जानहिं पर नारी।
धन पराय बिष ते बिष भारी ।।
अर्थ- दूसरे की स्त्री को माता के समान एवं दूसरे के धन को मिट्टी या बिष के समान समझना चाहिए।
कन्या पूजन का विधान केवल भारतीय संस्कृति में है।सौभाग्यवती स्त्रियों का देवी रूप में पूजन करने की
भारत में परंपरा है।
ब्रह्मचर्य का उपदेश भारतीय संस्कृति में मिलता है -
मरणं विन्दु पातेन जीवनं विन्दु रक्षणात् |
एक भारतीय संत ने विदेश हो रहे अपने भाषण ब्रदर्स एंड सिस्टर्स कह कर सभी लोगों को चकित कर दिया था ।
ये सारी पवित्र परंपराएँ भारत की हैं किसी अन्य संस्कृति में ऐसा नहीं माना जा रहा है ।
आज कितने लोग हैं जो किसी अपरिचित लड़की को भी बहन कहना या मानना स्वीकार
करते हैं?आज तो नाते रिश्तेदारों की बेटियाँ अपनों की बासना का शिकार हो
रही हैं आखिर किस पर विश्वास किया जाए?किस किस से कैसे कैसे बचाई जाएँ बच्चियाँ ?
इसलिए जो भारत में रहकर भारतीय परम्पराओं पर विश्वास करता है वो भारतीय है जो नहीं करता है वो इंडियन।
यदि दूसरे की स्त्री को माता के समान एवं दूसरे के धन को मिट्टी या बिष के समान समझना चाहिए।कन्या पूजन का विधान,सौभाग्यवती स्त्रियों का देवी रूप में पूजन, ब्रह्मचर्य का उपदेश रूपी भारतीय संस्कृति का पालन करने से बलात्कार भ्रष्टाचार दोनों से मुक्ति मिल सकती है ।
राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के
प्रमुख मोहन भागवत जी के कहने का अभिप्राय संभवतःभारतीय संस्कृति की अच्छाइयाँ बताना या प्रशंसा करना रहा होगा। गाँवों
और जंगलों में भारतीय संस्कृति और सभ्यता का
प्रभाव शहरों की अपेक्षा अधिक होता है।क्योंकि वहाँ फिल्मों, टी.वी.आदि का प्रचार प्रसार शहरों की अपेक्षा
कम होता है और विदेशों की यात्राएँ वे कर नहीं पाते हैं ।इसलिए जहाँ जितने प्रतिशत भारतीय सभ्यता संस्कारों का
प्रभाव है वहाँ उतने प्रतिशत भारत है।इसी प्रकार जहाँ जितने प्रतिशत पश्चिमी सभ्यता संस्कारों का
प्रभाव है वहाँ उतने प्रतिशत
इंडिया है।
मोहन भागवत जी एक सक्षम
विचारक हैं उन्होंने अपना सारा जीवन देश और समाज के लिए समर्पित कर रखा है उनके सक्षम
संगठन के विभिन्न आयाम देश के कोने कोने में जनहित में विभिन्न प्रकार के
काम कर रहे हैं।गरीबों, बनबासियों, आदिवासियों, ग्रामों, नगरों, शहरों के
साथ साथ स्वदेश से लेकर विदेशों तक का उनका अपना अनुभव है।वो ग्रामों,
शहरों की संस्कृति से अपरिचित नहीं अपितु सुपरिचित हैं। ऐसी भी कल्पना नहीं
करनी चाहिए कि उन्हें देश के किसी पीड़ित की ब्यथा सुनकर पीड़ा नहीं अपितु
प्रसन्नता होती होगी।हो सकता है कि उनकी बात का अभिप्रायार्थ उस प्रकार से
समाज में न पहुँच सका हो जैसा कि वो पहुँचाना चाहते हों किंतु उनकी समाज
एवं देश निष्ठा पर किसी भी चरित्रवान, सात्विक एवं सज्जन व्यक्ति को संदेह नहीं होना चाहिए।विश्वास किया जाना चाहिए कि देश के प्रति स्वश्रृद्धा से समर्पित आर. एस. एस. के ये पवित्र प्रचारक हैं ये अपने दुलारे देश के विरुद्ध कुछ बोलने की बात तो दूर कुछ सोच भी नहीं
सकते, कुछ सह नहीं सकते।मैं इनकी राष्ट्र निष्ठा से निजी तौर से भी परिचित
हूँ ये अपने देश के विरुद्ध कुछ होते देखने के लिए जीना नहीं चाहेंगे ये
अत्यंत ऊँची सोच के धनी लोग हैं जो तुच्छ जिजीविषा कभी नहीं स्वीकार
करेंगे।देश और समाज के लिए जिन्होंने अपना जीवन ही दाँव पर लगा रखा है ऐसे सज्जनों की आवश्यकता देश को है।जिस किसी को न हो तो न रहे।श्री मोहन भागवतजी के सार गर्भित सुचिंतित वक्तव्य पर निंदा आलोचना का ये ढंग उचित नहीं कहा जा सकता है।जिस प्रकार से कुछ पद लोलुप लोग किसी पर भी विशेषकर राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ से सम्बंधित लोगों का नाम याद आते ही अकारण उनकी निंदा करने
की लत के शिकार होते जा रहे हैं इस तरह की आदत देश हित में नहीं मानी जा
सकती।
ऐसे
संयमित संगठनों से सम्बंधित लोगों के आतंक वादी होने की सूचना मीडिया के
माध्यम से देश को देने वाला व्यक्ति कोई और नहीं भारत की सरकार के प्रमुख
पद पर प्रतिष्ठित है जिसे कानून के तहत जाँच
से लेकर कार्यवाही करने तक के लिए समस्त अधिकार प्राप्त हैं।वह अकर्मण्य
देश की जनता को न जाने किससे प्रेरित होकर क्यों ये भ्रमात्मक सूचनाएँ दे
रहा है?इसी पद पर प्रतिष्ठित इनसे पूर्व पुरुष ने भी ऐसा ही कुछ बोला था।इस सरकार में ऐसे महत्त्व पूर्ण पद पर बैठाने से पूर्व कहीं इस बात की भी शपथ तो नहीं दिलाई जाती है कि तुम्हें इस पद को प्राप्त करने के बदले राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ से सम्बंधित लोगों को अपमानित करना होगा किन्तु ऐसा पूर्वाग्रह आखिर क्यों ?
कई वो नेता जिनकी अपनी कोई योग्यता या कोई चरित्र ही नहीं है केवल अपनी पार्टी के मालिकों की चरण चाटुकारिता के भरोसे अपने को नेता मान बैठे हैं या कोई भ्रष्टाचार में फँसे हैं जिससे बचने के लिए किसी पार्टी
की संरक्षण छाया ले रखी है जिन्होंने कसम खा रखी है कि भारत तथा भारत की
प्राचीन शास्त्रीय संस्कृति एवं भारतीयता के समर्थन की किसी भी प्रकार की
बात करने वाले के विरुद्ध हम अपना कूड़ादानी मुख खोल कर कुछ ऐसा जरूर
बोलेंगे जिससे कि भारतीय लोग उन्हें गाली दें और विदेशियों को उनकी चाटुकारिता स्वीकार हो सके।ये
घोर निंदनीय पृथा है।किसी की आलोचना करते समय सामने वाले की योग्यता गरिमा
और अपनी औकात ध्यान में रखकर शब्दों का चयन किया जाना चाहिए।
राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के प्रचारकों की पवित्र एवं विरक्त जीवन शैली होती है उनका
वाणी एवं आचरण पर अद्भुत संयम देखा जाता है भारतीय समाज एवं संस्कृति के
प्रति समर्पित उनका आचार व्यवहार है देश ही उनका परिवार है।राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के साथ साथ उसके अतिरिक्त भी समाज
के ऐसे सभी सज्जन एवं साधु चरित्र लोगों पर एवं देश की रक्षा में समर्पित
बंदनीय सैनिकों के ऊपर कोई भी टिप्पणी सात्विक शब्दों में अत्यंत सावधानी
पूर्वक की जानी चाहिए।मैं मानता हूँ कि संत वही है जिसका आचरण सदाचारी और
विरक्त हो। जाति,क्षेत्र,समुदाय,संप्रदाय वाद से ऊपर उठकर ऐसे लोगों के प्रति सम्मान भावना का संस्कार नौजवानों में डालना ही चाहिए ।
संभवतः भारत के नाम से भारतवर्ष की प्राचीन
संस्कृति एवं इंडिया के नाम से अत्यंत आधुनिकता की ओर उनका संकेत रहा होगा
जिसमें ये अनेकों प्रकार के अपराध पल्लवित होते दिख रहे हैं।यदि इंडिया कह
कर वो वर्तमान भारत में बढ़ती आपराधिक वारदातों पर व्यंग पूर्वक उनका विरोध
कर रहे थे और भारत कह कर अपने जीवन को संयमित एवं अनुसाशित बनाने की ओर
प्रेरित करना चाह रहे थे तो इसमें गलत क्या था?यदि कुछ लोगों को भारत की प्राचीन
विचारधारा से चिढ़ है तो उन्हें भी अपने विचार रखने का हक है किंतु उन्हीं
के विचारों से सारा समाज प्रभावित रहे ऐसा दुराग्रह भी क्यों?
भारतवर्ष आज एक कठिन दौर से गुजर रहा है महँगाई, भ्रष्टाचार एवं आपराधिक
वारदातों से चारों ओर त्राहि त्राहि मची हुई है। जिन बातों पर हमारा देश
हमेंशा से गर्व करता रहा है उन बातों से हम जाने अनजाने दूर होते जा रहे
हैं।अपने देश की हर प्राचीन धरोहर पर शंका करना हमारा स्वभाव सा बनता जा
रहा है।अपने प्राचीन मूल्यों का मजाक उड़ाना हमारे शिक्षित होने का प्रमाण
बनता जा रहा है।जन्म से मृत्यु तक हर काम विदेशों में जैसे होते हैं उसी
तरह करने की होड़ सी मची हुई है और गौरव पूर्ण अपने प्राचीन सांस्कृतिक
संस्कारों को अंधविश्वास या दकियानूसी विचार कहा जा रहा है।
इन
लोगों की दृष्टि में विदेशों का झाड़ू पोछा करना भी इन्हें विज्ञान लगता है
और यहॉं का बिना किसी माध्यम से केवल गणित के द्वारा आकाश स्थित सूर्य
चंद्र ग्रहणों का पता लेना भी इनकी दृष्टि में अंधविश्वास है ? जन्म दिन
पर यदि गणेश पूजन करना अंध विश्वास है तो केक काटना कहॉं का विज्ञान है?
धोती छोड़ कर पैंट पहिनना,इसी तरह तन ढकने वाले कपड़े छोड़ कर आधे अधूरे कपड़े
पहनना,चाचा छोड़ कर अंकल,दूध छोड़ कर चाय,रोटी छोड़ कर डबलरोटी,पत्नी या पत्नी
का प्रेम छोड़ कर एक अपरिचित को प्रेमी या प्रेमिका बताना ये सब क्या है?
आखिर पति और पत्नी के जन्म जन्मांतर तक चलने चलाने वाले संबंधों की
संस्कृति को अंधविश्वास या दकियानूसी विचार कैसे कहा जा सकता है?
अपनी पति या पत्नी के प्रेम को छोड़कर दूसरे की बेटी, बहन, बहू, पत्नी आदि
को अपनी बासना का शिकार बनाना क्या इसी को प्रेम कहते हैं? क्या यही पवित्र
प्रेम है? क्या यही पवित्र प्रेम परमात्मा स्वरूप है?यदि ऐसा है तो पति
पत्नी के बीच चलने वाला प्रेम अपवित्र होता है क्या?क्या भारतीय समस्त
संताने उस अपवित्र प्रेम की देन हैं?आखिर पति और पत्नी के आपसी संबंध को
प्रेम संबंध क्यों नहीं माना जा सकता है?यह स्वस्थ सोच नहीं है कि रास्ते
में डारे परे पाए गए पति पत्नियों में ही आपसी प्रेम हो सकता है विवाहितों
में नहीं।
दूसरी ओर अपनी पारिवारिक पवित्र संस्कृति को छोड़कर निर्लज्ज
होकर पार्कों,मैटोस्टेशनों आदि सार्वजनिक
जगहों पर लड़के लड़कियों के चिपकने, चूमने,चाटने वाले जोड़े क्या प्रेमी
हैं?जो बासना के क्षणिक सुख को पाकर इतने पागल हो गए कि अपने माता, पिता,
भाई, बहनों के साथ साथ समस्त प्रिय परिवार जनों से बगावत करने पर उतारू हो
जाते हैं।ऐसे
कमजोर और अविश्वासी लोग कम से कम वो प्रेमी तो नहीं ही हो सकते हैं जिस
प्रेम का नाम परमात्मा भी होता है।या दूसरे शब्दों में जो अपनों के सगे
नहीं हुए वो किसी और के क्या होंगे?यदि इसे प्रेम कहा जाता है तो ये गंभीर
चिंता का विषय है।
यहीं से एक तीसरी बात प्रारंभ होती है एकपक्षी
प्रेम की जहॉं केवल कोई एक दिवाना होता है वो सामने वाले को अपनी बासनात्मक
आँधी के आगोश में लेने के लिए संयम की सारी हदें पार कर देता या देती है।
ऐसे अलगावी लगाव में बड़ी बड़ी दुखदायिनी दुर्घटनाएँ घटती देखी जाती हैं।जिन
पर किसी का कोई बश नहीं होता है।आखिर किसे किसे कहॉं कहॉं क्या क्या कितनी
कितनी कैसे कैसे सुरक्षा व्यवस्था दी जा सकती है? कुछ तो सीमाएँ सरकार की
भी होंगी यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
ऐसे अपराधों पर रोक लगाने
के लिए ही पहले धर्म अधर्म,पुण्य पाप और स्वर्ग नर्क की भावना भरी गई होगी
किंतु आधुनिक सोच वाले लोगों ने इन सब बातों को अंधविश्वास और बकवास कह कर
इस तरह के भयों से भी अपराधियों को मुक्त कर दिया।अब वो निरंकुश होकर
अपराध कर रहे हैं आखिर कैसे उन्हें रोका जाए?अक्सर ऐसा होता है जब अपराधी
अपराध करते समय छिपकर अपने कुकर्म को यह सोचकर करता है कि उसे कौन कोई देख
रहा है।बात अलग है कि कानून के लंबे लंबे हाथों से वह पकड़ जाता है उसे केश
मुकदमा सजा आदि होती है किंतु यदि उसे विश्वास होता कि भगवान सब कुछ देख
रहे हैं तो शायद ये सब नौबत ही नहीं आती। कुछ लोगों को पता नहीं क्यों
प्राचीन विद्याओं आस्थाओं, परंपराओं, विश्वासों से ऐसी अरुचि क्यों है कि
वे इन बातों को अंध विश्वास कहने लग जाते हैं जिसमें मीडिया भी बढ़चढ़ कर
उनका साथ दे रहा होता है।ऐसे प्रेम प्यार के उपासक भी टी.वी.चैनलों पर बैठ
बैठकर बेलेंटाइनडे के समर्थन में गरज रहे होते हैं और उड़ा रहे होते हैं
भारत में भारत की प्राचीन परंपराओं का उपहास!
यद्यपि ब्यभिचार आदि
की दुर्घटनाएँ भारत में प्राचीनकाल में भी होती थीं किंतु इसका विरोध एवं
बहिष्कार आज की अपेक्षा उस युग में बहुत अधिक होता था।आज तो बहुत मटुकनाथ
ऐसे भी हैं जो कि अपने ब्यभिचार को प्रेम सिद्ध करने में लगे रहते
हैं।उन्हें उनके जैसे समय समय पर ब्यभिचारग्रस्त रहे स्त्री पुरुषों का
समर्थन भी प्राप्त होता रहता है ऐसे समर्थक ही अपराधियों का हौसला और
अधिक बढ़ा देते हैं।ये समर्थक भी प्रायः वे लोग होते हैं जो कभी इस तरह की
सोच या कृत्य के शिकार रहने के कारण हीन भावना ग्रस्त रहे होते हैं किंतु
अपने जैसे अन्य लोग देखकर उनका भी हौसला बढ़ जाता है और वे समर्थन करने
लगते हैं।
आज बलात्कारों की आँधी ये उसी उन्मुख आधुनिकतम सोच के
समर्थन के परिणामस्वरूप मानी जा सकती है जिसने हमें स्वंछंद स्वेच्छाचारी
या ब्यभिचारी आदि बनाया है।इस खुलापन ने हमारे शरीरों को उन अपराधी
भुक्खड़ों के सामने परोसने का काम किया है जिनके सामने पड़ने से हमें बचाया
जाना चाहिए था।
जिस रास्ते में जिस समय लुटेरों डाकुओं का भय रहता हो
उसी समय वहीं से कोई हीरे जवाहरात पहनकर सबको दिखाता हुआ निकले और लुटेरे
लूटकर भाग जाएँ तो लुटेरे तो सौ प्रतिशत गलत हैं ही उन्हें कोई भला आदमी
अच्छा कैसे कह सकता है? किंतु अपनी सुरक्षा के लिए कुछ दायित्व तो उसका भी
होना चाहिए जो उस लूट का शिकार हुआ है।
जहॉं तक सरकार और कानून की
बात है तो घटना घटने के पहले कोई अपराधी पहचाना कैसे जाए? और घटना घटने के
बाद प्रयास पूर्वक अपराधी को सजा तो दिलाई जा सकती है किंतु हर दुर्घटना की
क्षतिपूर्ति संभव नहीं होती है।यदि सरकार या कानून का भय ऐसे लोगों को
होता ही तो ऐसी घटनाएँ घटती ही क्यों ?इस तरह की जो दुर्घटनाएँ सरकार अभी
तक नहीं रोक पाई उस सरकार के भरोसे अपना जीवन संकट में डालकर घर से निकल
पड़ना कितनी बुद्धिमानी है?
यह कितनी बड़ी दुखद स्थिति है कि
अंधविश्वास के नाम पर पहले तो लोगों के मनों से धर्म अधर्म,पुण्य पाप और
स्वर्ग नर्क की भावना को दूर करना फिर प्रेम प्यार के नाम पर उनके
खुलेपन,स्वेच्छाचार एवं व्यभिचारी स्वभावों प्रवृत्तियों का समर्थन करना और
फिर अपराधियों से संयम की अपेक्षा करना हमारी राय में उचित नहीं है।कड़े
कानून बनाए जाएँ जिनके भय से अपराध घटें यह बहुत अच्छी बात है किंतु हमें
भी इस युग में रामराज्य की आशा नहीं करनी चाहिए।अपनी अपनी सतर्कता बनाए
रखने में क्यों परेशानी होनी चाहिए?
राजेश्वरी प्राच्यविद्या शोध संस्थान की अपील
यदि
किसी को
केवल रामायण ही नहीं अपितु ज्योतिष वास्तु धर्मशास्त्र आदि समस्त भारतीय
प्राचीन
विद्याओं सहित शास्त्र के किसी भी पक्ष पर संदेह या शंका हो या कोई
जानकारी लेना चाह रहे हों।शास्त्रीय विषय में यदि किसी प्रकार के सामाजिक
भ्रम के शिकार हों तो हमारा संस्थान आपके प्रश्नों का स्वागत करता है ।
यदि ऐसे किसी भी प्रश्न का आप
शास्त्र प्रमाणित उत्तर जानना चाहते हों या हमारे विचारों से सहमत हों या
धार्मिक जगत से अंध विश्वास हटाना चाहते हों या राजनैतिक जगत से धार्मिक
अंध विश्वास हटाना चाहते हों तथा धार्मिक अपराधों से मुक्त भारत बनाने एवं
स्वस्थ समाज बनाने के लिए
हमारे राजेश्वरीप्राच्यविद्याशोध संस्थान के
कार्यक्रमों में सहभागी बनना चाहते हों तो हमारा संस्थान आपके
सभी शास्त्रीय प्रश्नोंका स्वागत करता है एवं आपका तन , मन, धन आदि सभी
प्रकार से संस्थान के साथ जुड़ने आह्वान करता है।
सामान्य रूप से जिसके लिए हमारे संस्थान की सदस्यता लेने का प्रावधान है।
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