आखिरप्राइवेटविद्यालयोंकीओरक्यों भाग रहे हैं लोग?
क्या वहाँ पढ़ाई अच्छी होती है या वहाँ सुविधाएँ अधिक हैं यद्यपि ऐसा कुछ न
होने के बाद भी आम लोग आज भी उन पर विश्वास करते हैं जिसे सरकारी विद्यालय उस रूप में बचा कर नहीं रख सके!
आज जिसके बच्चे का एडमिशन कहीं नहीं होता है वो सरकारी विद्यालयों की शरण लेता है सरकारी विद्यालयों के अध्यापक हमेशा अभाव का ही रोना रोते रहते हैं कभी अपनी कमियाँ स्वीकार ही नहीं करते हैं।भारतीय गुरुकुलों में पहले बिना संसाधनों के ही उत्तम पढ़ाई होती थी चूँकि तब पढ़ाने वाले चरित्रवान, ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ गुरुजन होते थे जिसका आज दिनों दिन अभाव होता जा रहा है। उस युग में बोरों फट्टों पर बैठाकर शिक्षा देने वाले लोगों ने भी इतिहास रचा है और आज ...!
आज तो चारों ओर सेक्स के वातावरण से पेट नहीं भर रहा ही तो अब एजूकेशन में भी सेक्स का तड़का लगाने की तयारी है।अपनी अदूरदर्शिता के कारण शिक्षा, दीक्षा,चिकित्सा एवं कानून व्यवस्था सुधारने में निष्फल एवं नाकाम सरकारों का यह कदम भी उनकी अदूरदर्शी सोच के कारण सरकार का उपहास ही कराएगा ! ये तो प्राचीन भारत की पहचान मिटाने वाला कदाचरण है।
शिक्षा की नीतियाँ बनती बिगड़ती रहती हैं कोई पढ़ावे न पढ़ावे इसकी जिम्मेदारी किसी की नहीं है किन्तु शिक्षकों एवं शिक्षा से संबंधित अधिकारियों कर्मचारियों की सैलरी समय से न केवल मिलती है अपितु महँगाई के साथ साथ समय से बढ़ा भी दी जाती है।इससे अधिकारी कर्मचारी सब प्रसन्न रहते हैं।
आज जिसके बच्चे का एडमिशन कहीं नहीं होता है वो सरकारी विद्यालयों की शरण लेता है सरकारी विद्यालयों के अध्यापक हमेशा अभाव का ही रोना रोते रहते हैं कभी अपनी कमियाँ स्वीकार ही नहीं करते हैं।भारतीय गुरुकुलों में पहले बिना संसाधनों के ही उत्तम पढ़ाई होती थी चूँकि तब पढ़ाने वाले चरित्रवान, ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ गुरुजन होते थे जिसका आज दिनों दिन अभाव होता जा रहा है। उस युग में बोरों फट्टों पर बैठाकर शिक्षा देने वाले लोगों ने भी इतिहास रचा है और आज ...!
आज तो चारों ओर सेक्स के वातावरण से पेट नहीं भर रहा ही तो अब एजूकेशन में भी सेक्स का तड़का लगाने की तयारी है।अपनी अदूरदर्शिता के कारण शिक्षा, दीक्षा,चिकित्सा एवं कानून व्यवस्था सुधारने में निष्फल एवं नाकाम सरकारों का यह कदम भी उनकी अदूरदर्शी सोच के कारण सरकार का उपहास ही कराएगा ! ये तो प्राचीन भारत की पहचान मिटाने वाला कदाचरण है।
शिक्षा की नीतियाँ बनती बिगड़ती रहती हैं कोई पढ़ावे न पढ़ावे इसकी जिम्मेदारी किसी की नहीं है किन्तु शिक्षकों एवं शिक्षा से संबंधित अधिकारियों कर्मचारियों की सैलरी समय से न केवल मिलती है अपितु महँगाई के साथ साथ समय से बढ़ा भी दी जाती है।इससे अधिकारी कर्मचारी सब प्रसन्न रहते हैं।
बच्चों को भोजन वस्त्र ,पुस्तकें,छात्रवृत्तिआदि जो कुछ भी मिलता हो
उससे बच्चे एवं उनके अभिभावक प्रसन्न रहते हैं जो लापरवाह या मजबूर
अभिभावक होते हैं उन्हें इससे अधिक कुछ चाहिए भी नहीं! कम से कम वो बिना
कुछ खर्चा पानी किए अपने बच्चों को पढ़ा लेने का घमंड पाल लेने में सफल हो
पा रहे हैं ये क्या कम है?
इस प्रकार शिक्षा से संबंधित अधिकारियों, कर्मचारियों,अध्यापकों एवं अभिभावकों
को प्रसन्न करने का इंतजाम पूरा है।सबसे बड़ी बात यह है कि बच्चों को पढ़ना
नहीं पढ़ता है और अनुशासन कुछ है नहीं! इन सबके भी ऊपर युवा लड़के लड़कियों को
एक साथ बैठकर पढ़ना, ऊपर से सेक्स एजुकेशन जैसी जीवन की सबसे आवश्यक
सुविधाएँ सरकार उपलब्ध कराने जा रही है।इसलिए बच्चे तो सबसे अधिक खुश हैं
इसलिए भी खुश हैं कि बिना पढ़े लिखे ही उनका भी पढ़े लिखों में ही नाम हो रहा
है। बड़ी बात यह है कि रिजल्ट भी ठीक आता है। चलो भगवान की कृपा से सब कुछ
ठीक चल रहा है!
सरकार भी भोजन बाँट रही है उसे लगता है कि बच्चों की शिक्षा हो न हो
भोजन बहुत जरूरी है। इसलिए उसने भोजन व्यवस्था सँभाल रखी है।शिक्षा
व्यवस्था प्राइवेट विद्यालय वाले देख ही रहे हैं।प्राइवेट विद्यालय जितनी
महँगी शिक्षा बेच लेते हैं सरकार के बश का नहीं है इसलिए कहा जा सकता है कि
सही मायने में शिक्षा का मूल्य प्राइवेट विद्यालय ही समझते हैं
तभी तो वो अभिभावकों को भी समझाने में भी सफल हो पा रहे हैं और वो समझ भी
रहे हैं तभी तो वो छोटे छोटे बच्चों के एडमीशन में लाखों रुपए का डोनेशन
देते हैं।
एक ओर अपने बच्चे के एडमीशन में लाखों रुपए का डोनेशन देने वाले उत्साही माता पिता हैं तो दूसरी ओर हीन भावना से ग्रस्त वे माता पिता हैं जो भोजन के लालच में अपने बच्चे का एडमीशन सरकारी विद्यालय में करवाते हैं।कितना अंतराल है दोनों के माता पिता में ?कैसे बचेगा गरीबों का गौरव?आखिर जैसा तैसा भोजन भेजकर गरीब माता पिता का सम्मान क्यों छीना जा रहा है जिसके वे हक़दार हैं जन्म देकर पालन पोषण उन्होंने ही किया है!एक समय भोजन देने के बहाने आखिर क्यों गिराया जा रहा है बच्चों की दृष्टि में माता पिता का गौरव ?यदि सरकार ईमानदारी से आत्मीयता पूर्वक बच्चों की भोजन व्यवस्था करना ही चाहती है तो प्रति बच्चे पर आने वाले भोजन खर्च को धन के रूप में उनके माता पिता को क्यों नहीं दे देती है?आखिर उन पर भी विश्वास किया जाना चाहिए कि वे भी अपने बच्चों को भोजन कराने की ईच्छा रखते हैं कम से कम वे अपने बच्चों के साथ खिलवाड़ नहीं करेंगे ! दूसरी बात प्रति बच्चे पर आने वाले सरकारी भोजन खर्च में उसके माता पिता अपने बच्चे को दोनों समय की भोजन व्यवस्था कर सकते हैं विद्यालय की अपेक्षा उन्हें और अधिक शुद्ध, पवित्र,ताजा एवं माता के हाथ का भोजन मिल सकता है जो स्वाभाविक रूप से स्वादिष्ट माना जाता है। इस प्रकार गरीब माता पिता का सम्मान भी बनाया और बचाया जा सकता है। दूसरी ओर सरकार भी अपना पूरा ध्यान बच्चों की शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने में लगा सकती है जो विद्यालय का सबसे पहला ,उन्नत लक्ष्य है।ऐसा होते ही बच्चों की सफलता दर ऐसी बढ़ेगी कि रईस लोग भी अपने बच्चे सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ाने को मजबूर हो जाएँगे जिससे गरीब रईस बच्चों के बीच पड़ी विषमता की दीवार आसानी से तोड़ी जा सकती है किन्तु इस भोजन व्यवस्था से सब का फायदा होता है सरकार के लिए चुनाव जीतने में सहायक अपनी पीठ थप थपाने को मिलता है।कमाई करने के इच्छुक शिक्षा से संबंधित अधिकारियों कर्मचारियों की इसी बहाने ऊपरी कुछ कमाई भी हो जाती होगी बच्चों को भोजन भी मिल जाता है।
कानपुर में हमारी जन्म भूमि है जहाँ शहर में ही हमारे एक रिश्तेदार रहते
हैं उन्होंने कई गौएँ पाल रखी हैं यह देखकर मैंने उनसे पूछा कि यहाँ तो ये
सब काफी महँगा पड़ता होगा तो उन्होंने बताया कि स्कूलों में बच्चों के खाने
के लिए भेजे जाने वाली पंजीरी सस्ती मिल जाती है उससे काम चलता है।तो
मैंने पूछा वो कितनी और कब तक मिलती रहेगी?तो पता लगा कि यहाँ किसी दुकान
से कितनी भी ले लो आम तौर पर मिल जाती है।यह सुनकर मुझे दो बातों दुःख लगा,
पहली तो बच्चों का हिस्सा ख़रीदा और बेचा जा रहा है।दूसरा उसकी क्वालिटी
इतनी कमजोर है इसलिए बच्चे कम खाते हैं जिसे आम आदमी खाने लायक नहीं समझता
है, इसलिए जानवरों के काम आती है अन्यथा आम लोग अपने खाने के लिए भी ले
सकते थे।यह बात सोच सोच कर मैं अक्सर रोया हूँ कि देश का भविष्य बच्चे होते
हैं उनका भोजन आम आदमी के खाने लायक नहीं समझा जाता है इसलिए
जानवरों को खिलाया जाता है।कैसे माना जाए कि यह बात शिक्षा से संबंधित
अधिकारियों कर्मचारियों तथा मीडिया को नहीं पता होगी?
अखवारों
मैग्जीनों या अन्य विज्ञापक माध्यमों को इन सारे कर्मकांडों का विज्ञापन
ठेका मिलता है इसलिए मीडिया भी सरकारी गलतियाँ नजरंदाज करने में ही प्रसन्न
होगा अन्यथा बात बात में बाल में खाल निकालने वाला मीडिया भी शिक्षा से
जुड़ी लापरवाही की पोल खोलने में रूचि जरूर लेता !
बंधुओ!
लापरवाही या घपला घोटाला केवल भोजन सामग्रियों में ही नहीं है अपितु इसी
प्रकार के भ्रष्टाचार की चपेट में समूचा शिक्षा विभाग है यहाँ के शिक्षा की
नीति निर्धारक लोग भयंकर लापरवाह हैं।यदि ऐसा न होता तो गैर सरकारी
विद्यालयों का घमंड अपने परिश्रम और सफलता के बल पर सरकारी विद्यालयों के
द्वारा कभी भी तोड़ा जा सकता था।
जैसे कुछ बनावटी धार्मिक लोग महात्माओं की तरह आडम्बर तो सारे करेंगे
चन्दन भी लगाएँगे, कपड़े भी भगवा रंग के पहनेंगे, माला मूला भी पूरी गड्डी
पहनेंगे, भक्ति के नाम पर प्रवचन, कीर्तन, नाचना, गाना, बजाना तो सब कुछ
करेंगे किन्तु जिस वैराग्य और भक्ति के लिए बाबा बने हैं वह बिलकुल नहीं
करते! केवल पैसे जोड़ जोड़कर ऐय्यासी का सामान इकठ्ठा करने
तथा उसे भोगने में सारा जीवन बेकार बिता देते हैं।
इसी प्रकार सरकारी अस्पतालों में जितने की सुविधाएँ नहीं हैं उससे अधिक पैसा उन्हें प्रचारित करने में खर्च कर दिया जाता है।ठीक यही स्थिति भारत के सरकारी प्राथमिक स्कूलों की है पढ़ाई के नाम के ड्रामे तो सारे किए जाएँगे किंतु पढ़ाई पर किसी का कोई ध्यान नहीं होता है।यही कारण है कि आज सरकारी विद्यालयों को केवल अन्य लोग ही निम्न दृष्टि से नहीं देखते हैं अपितु सरकारी विद्यालयों एवं सरकारी शिक्षा से संबंधित अधिकारियों कर्मचारियों की भी सरकारी विद्यालयों के विषय में यही निम्न दृष्टि ही है आखिर वो अपने बच्चों को क्यों नहीं पढ़ाते हैं सरकारी स्कूलों में? इसकी एक बार जाँच हो जाए तो सारा दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा!चुस्त दुरुस्त व्यवस्था कही जाने वाली राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के सरकारी विद्यालयों की स्थिति इतनी ढीली है कि अपने बच्चों के एडमिशन के लिए मैं कई सरकारी स्कूलों में गया और अपना विजिटिंग कार्ड दिया तो वहाँ के प्रधानाचार्यों ने यह कह कर हमें समझाया कि यदि आप अपने बच्चे का भविष्य बनाना चाहते हो तो गैर सरकारी स्कूल में पढ़ा लीजिए यहाँ अच्छी पढ़ाई नहीं होती है तो मैंने जानना चाहा कि आखिर यहाँ क्यों नहीं होती है अच्छी पढ़ाई? क्या सरकारी विद्यालयों के अध्यापक पढ़े लिखे नहीं होते या वो पढ़ा नहीं पाते हैं या वो सैलरी नहीं लेते हैं या वो पढ़ाने के लिए यहाँ नियुक्त नहीं हुए हैं या उन्हें किसी का भय नहीं है या उन्हें पढ़ाना है ही नहीं वो तो नाते रिश्तेदारी निकाल कर या घूँस देकर अध्यापक पद पर नियुक्त हुए हैं।
इसी प्रकार सरकारी अस्पतालों में जितने की सुविधाएँ नहीं हैं उससे अधिक पैसा उन्हें प्रचारित करने में खर्च कर दिया जाता है।ठीक यही स्थिति भारत के सरकारी प्राथमिक स्कूलों की है पढ़ाई के नाम के ड्रामे तो सारे किए जाएँगे किंतु पढ़ाई पर किसी का कोई ध्यान नहीं होता है।यही कारण है कि आज सरकारी विद्यालयों को केवल अन्य लोग ही निम्न दृष्टि से नहीं देखते हैं अपितु सरकारी विद्यालयों एवं सरकारी शिक्षा से संबंधित अधिकारियों कर्मचारियों की भी सरकारी विद्यालयों के विषय में यही निम्न दृष्टि ही है आखिर वो अपने बच्चों को क्यों नहीं पढ़ाते हैं सरकारी स्कूलों में? इसकी एक बार जाँच हो जाए तो सारा दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा!चुस्त दुरुस्त व्यवस्था कही जाने वाली राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के सरकारी विद्यालयों की स्थिति इतनी ढीली है कि अपने बच्चों के एडमिशन के लिए मैं कई सरकारी स्कूलों में गया और अपना विजिटिंग कार्ड दिया तो वहाँ के प्रधानाचार्यों ने यह कह कर हमें समझाया कि यदि आप अपने बच्चे का भविष्य बनाना चाहते हो तो गैर सरकारी स्कूल में पढ़ा लीजिए यहाँ अच्छी पढ़ाई नहीं होती है तो मैंने जानना चाहा कि आखिर यहाँ क्यों नहीं होती है अच्छी पढ़ाई? क्या सरकारी विद्यालयों के अध्यापक पढ़े लिखे नहीं होते या वो पढ़ा नहीं पाते हैं या वो सैलरी नहीं लेते हैं या वो पढ़ाने के लिए यहाँ नियुक्त नहीं हुए हैं या उन्हें किसी का भय नहीं है या उन्हें पढ़ाना है ही नहीं वो तो नाते रिश्तेदारी निकाल कर या घूँस देकर अध्यापक पद पर नियुक्त हुए हैं।
इस पर वो थोड़ी देर तक मौन एवं सिर झुकाकर बैठे रहे फिर कहने लगे कि
आखिर कैसे पढ़ाएँ?आज हम लोग किसी बच्चे को डाँट मार नहीं सकते!दूसरी बात यह
है कोई सभ्य, स्वस्थ, सक्षम व्यक्ति अपने बच्चे को यहाँ पढ़ने के लिए भेजता
नहीं है जो भेजते हैं उनमें अधिकांश मजदूर वर्ग है जिन्हें यह परवाह होती
भी नहीं है कि मेरा बच्चा पढ़ता भी है या नहीं?इसलिए वो भी संतुष्ठ हैं
विद्यालय एवं अध्यापक वर्ग भी प्रसन्न है सरकार भी अपनी सफलता से गदगद है फिर किसी और को क्यों आपत्ति हो ?
मुझे लगा कि गैर सरकारी विद्यालय के मालिक केवल धनी होते हैं तब वो
लोग अपने विद्यालयों को अच्छे ढंग से चला लेते हैं दूसरी ओर सरकार के
विद्यालय हैं सरकार सर्व सक्षम है तो सरकार के विद्यालय एवं उनकी
शिक्षा भी इतनी अच्छी हो कि गैर सरकारी विद्यालयों को उनकी अपनी
कमजोरियों का एहसास कराया जा सके जिससे शिक्षा का वातावरण सुधारा जा सकता
है ।
यही एक मात्र वह रास्ता है जो अपराध एवं भ्रष्टाचार दोनों ही कम कर
सकता है और शिक्षा जैसी पवित्र विधा को यदि सरकार सम्हालकर नहीं रख सकी और
शिक्षा से सम्बंधित अपराध, भ्रष्टाचार एवं लापरवाही पर लगाम लगा कर गैर
सरकारी विद्यालयों की तुलना में अधिक सम्मान न दिला सकी तो अच्छा प्रशासन
देने की बात भी वो किस मुख से करने लायक रह पाएगी?
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