Sunday, April 6, 2014

कोई मांसाहारी व्यक्ति सनातन धर्मी कैसे हो सकता है ! क्योंकि जैसा भोजन वैसा मन !

     क्योंकि धर्मवान व्यक्ति में दयालुता बहुत आवश्यक होती है और मांस पेड़ों में नहीं फलता है कैसी भी परिस्थिति में किसी की मांस खाने की इच्छा पूरी करने के लिए किसी को मरना ही पड़ता है !

 "मैं कमाऊँ और दूसरे लोग(प्राणी) खाएँ ये भावना सात्विक है"

"मैं कमाऊँ और मैं खाऊँ  ये भावना राजस है "

"दूसरे लोग (प्राणी)कमाएँ और मैं खाऊँ ये भावना तामस अर्थात राक्षसी है !"

     अर्थात ऐसा करने वाला प्राणी राक्षसी मनोवृत्ति का माना जाता है और जो दूसरों की कमाई तो छोड़िए यदि दूसरे प्राणियों को ही खाने लगे तो ऐसे लोग राक्षसी मनोवृत्तियों से भी अधिक भयंकर माने  गए हैं !

    हमारे कहने का मतलब यह है कि यदि राक्षसी मनोवृत्तियाँ बढ़ेंगी तो लूट और बलात्कार बढ़ेंगे ही क्योंकि रावण ने राक्षसों के धर्म का वर्णन करने हुए कहा है कि "ऐ राक्षसो !दूसरों की स्त्रियों से संसर्ग (सेक्स) करना एवं दूसरों का धन छीन लेना ये अपना धर्म है इसकी रक्षा करो "यथा -

       स्व धर्मं   रक्षतां भीरुः सर्वदैव न संशयः |

       गमनं वा परस्त्रीणां पर द्रव्यं प्रमथ्य च ||  


    सम्भवतः इसीलिए भारत वर्ष में जैसे जैसे मांसाहार बढ़ता जा रहा है वैसे वैसे लूट और बलात्कार की घटनाएँ भी बढ़ती जा रही हैं !धर्म शास्त्र मांसाहार का विरोध करते हैं जबकि बीमार आदमियों को ठीक करने के लिए बनाए गए आयुर्वेद में औषधि के रूप में मांस भक्षण की आज्ञा  चरक सुश्रुत आदि अधिकृत ग्रंथों में दी गई है । ऐसे ही प्रमाणों का संग्रह करके कुछ लोग कहते हैं कि देखो मांस भक्षण की आज्ञा दी गई है !ये भ्रम फैलाने वाला आचरण है । 

         आचार्य चाणक्य ने कहा है कि "अन्न (गेहूं, जौं ,चावल आदि ) से दस गुणी अधिक ताकत उसके आटे में होती है और आटे से दस गुणी  अधिक ताकत दूध में और दूध  से आठ गुणी अधिक ताकत मांस में होती है।" इसलिए जैसे जैसे ताकत बढ़ेगी तो वो जाएगी कहाँ जो गृहस्थ हैं वो तो ठीक हैं अन्यथा  बलात्कारी भावनाओं को कैसे रोका जा सकता है!

      आप स्वयं सोचिए कि जैसा भोजन खाया जाएगा वैसा मन बनेगा यदि ऐसा न होता तो देश के लोगों ने बलात्कारों को बंद करने के लिए फांसी जैसी कठोर सजा की मांग की थी वो मान भी ली गई जिससे कई अपराधियों को सजा के रूप में फांसी की सजा सुनाई भी गई है किन्तु देखना अब यह है कि उसका असर बलात्कारियों पर कितना पड़ रहा है !

   सम्भवतः यही कारण  है कि पुराने समय में ब्रह्मचारियों और साधू सन्यासियों को ताकत प्रदान करने वाली सारी  चीजें खाने के रूप में रोकी गई थीं  जबकि अब फैशन सा बन गया है कि अच्छा खाने भोगने के लिए लोग सधुअई को सबसे अच्छा धंधा मानते हैं समाज से मांग मांग कर हजारों करोड़ इकठ्ठा करके कोई ट्रस्ट बना कर उस ट्रस्ट में अपने सारे घर खानदान नाते रिश्तेदारी आदि के निठल्ले इकट्ठे कर लेते हैं फिर सबके साथ मिलजुल कर भोगते हैं बाबा जी सारे आश्रमी भोग और जब कोई  पूछता है तो  कहते हैं कि हमारे पास तो एक पैसा भी नहीं है अब उनसे कौन पूछे कि जब आपके पास पैसे हैं ही नहीं तो आपके शरीरों का बोझा ढोने के लिए जहाजों का टिकट कौन देता है आपकी दिनचर्या पर लाखों रूपए खर्च होता है ये कहाँ से आता है ?

       इसीलिए पुराने समय में जब चरित्रवान संत हुआ करते थे तब खानपान रहन सहन भोजन पान आदि में बहुत संयम का पालन करते थे! आज सबकुछ खाने वाले और सारे प्रपंचों में फंसे लोग भी अपने को साधू कहते हैं भगवान  ही बचावे ऐसे साधुओं से !यही कारण है कि बुढ़ापे में भी बाबाओं के पोटेंसी टेस्ट पाजिटिव निकलते हैं ये उनके बाजीकरण का ही परिणाम होता है । 

   इसीलिए पुराने ऋषि पत्ते खाते थे पानी पी लेते थे ताकि न ताकत आवे और न उस ताकत को पचाने के लिए कोई चेला चेली ढूँढनी पड़े !जब पत्ते हवा और जल खा पीकर रहने वाले पराशर जी और विश्वामित्र जी जैसे तपस्वी ऋषियों को भी क्रमशः मत्स्योदरी और मेनका के साथ रमण करना पड़ा अर्थात उनका भी संयम टूट गया तब आप स्वयं सोचिए कि काजू किसमिस समेत सभी प्रकार का गृहस्थों जैसा भोजन करके कोई कहे कि मैं ब्रह्मचारी  हूँ तो यही कहा जा सकता है कि उसकी माया वही जाने और क्या कहा जा सकता है किसी के विषय में !

     आयुर्वेद  में मनुष्य शरीर के तीन उपस्तम्भ माने गए हैं आहार(भोजन ) निद्रा और मैथुन (सेक्स )अर्थात ये तीनो अधिक होंगे तो शरीर रोगी होता है और कम होते हैं तो भी रोगी होता शरीर !किन्तु इन्द्रिय संयम पूर्वक दुनियाँ के प्रपंचों से दूर रहने वाले चरित्रवान साधू संत अपना संतुलन आज भी बनाए रहते हैं और जो ऐसा नहीं करते हैं वो फिर वैसा करते  हैं जैसा उनके साथ हो रहा है जो अपने मुख से अपने को आत्म ज्ञानी ब्रह्म ज्ञानी आदि सब कुछ कहा करते थे आज कारागार में कैदी गण दुह रहे हैं उनका ब्रह्मज्ञान !

     कुल मिलाकर मेरे कहने का आशय ही ये है कि जैसा भोजन होगा वैसा मन बनेगा वैसा आचरण होगा आज सब तरफ वातावरण बिगड़ रहा है उसका मुख्यकारण है कि हमारा भोजन बिगड़ चुका है जिसे सुधारने की जरूरत है !किन्तु किसी भी परिस्थिति  में किसी के शरीर को खाने का अधिकार किसी को नहीं है और जो ऐसा करता है वो मनुष्यता बिहीन मनुष्य है !

      हाँ ,समय और परिस्थितियों के बशीभूत देश की रक्षा करने वाले सैनिक यदि ऐसा कुछ करते हैं तो उनके लिए निषेध नहीं है क्योंकि वो अपने शरीर को भी तो दूसरों की रक्षा में समर्पित कर देते हैं इसलिए कलियुग में सर्वमान्य ऋषि पारशर इसका विरोध न करके अपितु  प्रकारांतर से समर्थन भी करते हैं यथा -

 क्षणेन यान्त्येव हि तत्र वीराः प्राणान् सुयुद्धेन परित्यजन्तः|| 

        

 


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