देश पर नैतिक शिक्षा और चरित्र का संकट है !
यदि किसी पुलिस कर्मी से कोई गलती हो गई तो उसे दंडित किया जाए किन्तु
उसके लिए कमिश्नर को दोषी ठहराना ठीक नहीं कहा जा सकता !यदि यह माना जाए
कि गाँधीनगर वाले रेप केस में कुछ पुलिस वालों की लापरवाही के कारण उनके
वरिष्ठतम अप्सर
को जिम्मेदार ठहराना न्यायोचित है। यदि यही आदर्श स्थापित करना है
तो पूरे देश की तरह ही चरमराती कानून व्यवस्था ही दिल्ली के भी अपराधों
के लिए जिम्मेदार है तो गृह मंत्री और प्रधान मंत्री की क्या कोई
जिम्मेदारी नहीं है ! वो भी जिम्मेदारी स्वीकार करें। किसी घटना के घटने के
बाद जनता का ध्यान भटकाने के लिए अधिकारियों पर जिम्मेदारी डालकर चालाक
नेता लोग बच जाते हैं,वही यहाँ भी हो रहा है।
सरकार के अन्य विभाग विशेषकर शिक्षा जैसे विभाग यदि ईमानदारी पूर्वक ठीक ठीक से काम कर रहे होते तो शायद अपराध, अपहरण, हत्याओं, बलात्कारों
से सारे देश में त्राहि त्राहि न मची होती।गरीब आदमी प्राइवेट में पढ़ा
नहीं सकता और सरकारी में पढ़ाई नहीं होती। खाली दिमाग सैतान का ,पुलिस क्या
करे?
वैसे भी पाँच पाँच
वर्ष की कन्याओं से दुर्व्यहार!वृद्ध स्त्री पुरुषों की हत्याएँ,छोटे
छोटे बच्चों का अपहरण,प्यार फिर तकरार फिर हत्या,विवाह फिर तलाक अन्यथा
हत्या,व्यापारियों का धन लूटने के लिए हत्या,असहनशीलता इतनी
बढ़ चुकी है कि कई बार अकारण या सामान्य कारणों में भी सह न पाने के कारण
हत्या !आखिर ये सब क्या है?क्या इन समस्त अपराधों का कारण पुलिस है?क्या पुलिस ठीक से शक्ती पूर्वक काम कर रही होती तो अपराध
इतने नहीं होते या बिलकुल नहीं होते!इस प्रकार का भ्रम कुछ तो समाज में है
कुछ सरकारों के द्वारा समाज के मन में भरा जा रहा है किसी दुर्घटना के
घटने के बाद वहाँ के अप्सरों का ट्रांसफर या उन्हें सस्पेंड करके समाज की
दृष्टि में खुद को पाक साफ बना रखना और समाज को यह दिखाना कि इस सारे अपराध का कारण केवल पुलिस अफसर हैं। सरकार के इस तरह के नुस्खों से पुलिस विभाग सबसे अधिक प्रताड़ित हो रहा है।आज अपहरण, हत्या, बलात्कार या और भी किसी प्रकार का अपराध
ही क्यों न हो जनता की स्थिति यह है कि वह पुलिस के बड़े बड़े अफसरों के
साथ इतना गन्दा बर्ताव करती है कि मानों वही अपराधी, हत्यारे, बलात्कारी
आदि हों अपना सारा गुस्सा उन्हीं पर उतार देना चाहती है आंदोलनों के
लिए रोडों पर उतरी भीड़ ! उन सुरक्षा कर्मियों का कितना अपमान करते हैं लोग! मज़बूरी है कि हर सुख दुःख आपत्ति विपत्ति में समाज के खड़ा होना होता है पुलिस कर्मियों को!
ऐसे अवसरों पर अत्यंत सक्रिय मीडिया सब कुछ लाइव दिखा रहा होता है!पुलिस अफसरों के भी माता पिता भाई बहन पत्नी बच्चे नाते रिश्तेदार प्रिय परिचित सभी लोग देखते होंगे क्या बीतती होगी उन पर !आखिर उन्होंने भी परिश्रम पूर्वक पढ़ाई की है पुलिस
की नौकरी में भी ऊँचे ऊँचे पद प्रतिष्ठा प्राप्त करना इतना आसान तो नहीं
होता होगा कि वो किसी की गाली सुनें,या अभद्र व्यवहार सहें !
शहरों में आतंकवादियों के घुसने की खबर सुनते ही सबके पापा पति बेटे जब
सभी लोग अपने अपने घरों की ओर भाग रहे होते हैं उस समय घर छोड़ कर निकलना
होता है पुलिस वालों को! टेलीविजन चैनल यह खबर बार बार दिखा रहे होते हैं
टेलीविजन पर यह सब देखते सुनते हुए भी पत्नी अपने पति एवं बच्चे अपने पापा
तथा माता पिता अपने बेटे को चाह कर भी रोक नहीं सकते और यदि वो रोंके
तो भी हर हाल में उन्हें घर छोड़ कर निकलना ही होता है समाज की रक्षा के
लिए!घर वालों के लिए एक संशय छोड़कर!कई बार दुर्भाग्य वश आतंकवादियों की गोलियों का भी सामना करना पड़ता है उन्हें! कई बार हिंसक भीड़ का भी सामना करना पड़ता है उन्हें !
होली
दिवाली शर्दी गर्मी बरसात सब थाने से लेकर रोड़ों पर ही बीत जाते हैं।
सबके तिथि त्योहार उत्सव यदि शांति पूर्ण ढंग से निपट जाते हैं तो अपने भी
ख़ुशी मना लेते हैं !
क्या हमारे त्याग शूर वीर सिपाहियों के इस समर्पण का सम्मान नहीं
मिलना चाहिए उन्हें! मैं कई जगहों पर हो रही पुलिस की गलतियों या
लापरवाहियों को गलत मानने को तैयार हूँ किन्तु सब जगह उन्हें दोषी ठहराना
ठीक नहीं है। लेखक का हृदय माँ के हृदय के समान सम्बेदन शील होता है इसलिए
देश के हर वर्ग एवं व्यक्ति की पीड़ा से हमारा पीड़ित होना स्वाभाविक है।भ्रम के कारण सभी जगह पुलिस विभाग को दोषी ठहराया जाना शोभा देता ।
जो लोग हर प्रकार के अपराध, हत्या, रेप आदि के लिए पुलिस को दोषी ठहराते
हैं यदि उनका ध्यान उतनी ही ईमानदारी से अन्य सरकारी विभागों की ओर जाता
तो बात और होती।
सरकारी
अस्पतालों में जितने की सुविधाएँ नहीं हैं उससे अधिक पैसा उन्हें प्रचारित
करने में खर्च कर दिया जाता है।जिन शहरों कस्बों के
सरकारी अस्पतालों में एक से एक पढ़े लिखे डिग्री होल्डर डाक्टर सरकार ने
नियुक्त कर रखे हैं। वहाँ झोला छाप डाक्टरों के यहाँ तो भीड़ लगी रहती है
पर सरकारी अस्पतालों पर लोगों का भरोसा नहीं है।बिलकुल यही स्थिति शिक्षा विभाग की भी है।आखिर
क्या फायदा है इन विभागों पर इतना खर्च करने का और ऐसे सरकारी योग्य
डाक्टरों एवं अध्यापकों का देश को क्या लाभ ?यदि उनकी अपेक्षा उनसे अयोग्य डाक्टरों एवं अध्यापकों ने देश की जनता का भरोसा जीत रखा है और सरकारी योग्य डाक्टर एवं अध्यापक भी जनता का भरोसा जीत पाने में नाकामयाब हैं ।
आखिर क्या कारण है कि आज कोई शिक्षित,संभ्रांत,संपन्न या सक्षम व्यक्ति अपना या अपने बच्चों का इलाज सरकारी
अस्पतालों में नहीं करवाता है और न ही अपने बच्चों को सरकारी
स्कूलों में पढ़ाना चाहता है।ग्राम प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री तक
किसके बच्चे पढ़ते हैं सरकारी विद्यालयों में? यदि जनप्रतिनिधियों के बच्चे
भी यहाँ पढ़ रहे होते तो भी इतनी लापरवाही नहीं होती ! रही बात गरीबों की
तो सच्चाई यह भी है कि अपने बच्चों को पढ़ाना गरीब लोग भी सरकारी स्कूलों
में नहीं चाहते हैं किन्तु प्राइवेट में पढ़ाने के लिए धन नहीं है इसलिए
मजबूरी में सरकारी स्कूलों में पढ़ाना पड़ रहा है।सरकारीकर्मचारी,शिक्षा
अधिकारी,स्कूल कर्मचारी यहाँ तक कि सरकारी स्कूलों के अध्यापक भी
अपने बच्चों को अपने स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते हैं आखिर क्यों ?डाक
विभाग कोरियर से पिट चुका है टेलीफोन विभाग को प्राइवेट दूरभाष की सेवाओं
ने पीट रखा है। क्या यह भी पुलिस कमिश्नर का ही दोष है?
सरकार का हर विभाग ढीला है सरकारी
अस्पतालों को प्राइवेट अस्पताल,सरकारी स्कूलों को प्राइवेट स्कूल एवं डाक विभाग को कोरियर तथा टेलीफोन विभाग की इज्जत प्राइवेट दूरभाष की सेवाओं ने बचा रखी है किन्तु पुलिस विभाग की इज्जत बचाने वाला प्राइवेट में कोई सहयोगी नहीं है।
रही बात सरकारी विभागों की वहाँ प्रेम से बात
कौन करता है,शिकायती फोन तक देर से उठाए जाते हैं या उठाए ही नहीं जाते
हैं यदि उठाए भी गए तो कोई और दूसरा नम्बर दे दिया जाता है।कहाँ शिकायत
कौन सुनता है हर कोई टालने की बात करता है।
सरकारी कर्मचारी होते हुए भी दिल्ली में केवल पुलिस विभाग ही ऐसा विभाग है
जिसकी 100 नंबर की काल न
केवल तुरंत उठाई जाती है अपितु पुलिस समय से मौके पर पहुँचती भी है।मैं
इस बात से इनकार नहीं कर रहा कि पुलिस से गलतियाँ नहीं होती होंगी
किन्तु बहुत कुछ करने के बाद भी बदनाम केवल पुलिस है!आखिर क्यों?अकेले
पुलिस को क्यों बदनाम किया जा रहा है?
इसके लिए जिम्मेदार सरकार एवं सरकार के सारे विभाग हैं।भ्रष्टाचार एवं अपराध के कण सरकार के अपने खून में रच बस गए हैं जो सरकारी सभी विभागीय लोगों में न्यूनाधिक रूप से विद्यमान हैं।इसलिए केवल पुलिस की निंदा न्यायोचित नहीं कही जा सकती !
वैसे भी जब सरकार का हर विभाग ढीला चल रहा है तो पुलिस विभाग का क्या दोष?भ्रष्टाचार सरकार के अपने खून में है इसके लिए गैर जिम्मेदार एवं अदूरदर्शी सरकारी नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं।
सरकार के हर विभाग में लापरवाही की स्थिति कुछ उस तरह की है जैसे कुछ बनावटी धार्मिक लोग महात्माओं की तरह आडम्बर तो सारे करेंगे
चन्दन भी लगाएँगे, कपड़े भी भगवा रंग के पहनेंगे, माला मूला भी पूरी गड्डी
पहनेंगे, भक्ति के नाम पर प्रवचन, कीर्तन, नाचना, गाना, बजाना तो सब कुछ
करेंगे किन्तु जिस वैराग्य और भक्ति के लिए बाबा बने हैं वह बिलकुल नहीं
करते! केवल पैसे जोड़ जोड़कर ऐय्यासी का सामान इकठ्ठा करने
तथा उसे भोगने में सारा जीवन बेकार बिता देते हैं।
रही बात अपराध रोकने की तो गंभीर चिंतन करके इस आपराधिक सोच की जड़ में जाने की जरुरत है जिससे सरकार बचते दिख रही है अपनी कमजोरी का घड़ा किसी अफसर पर फोड़ कर स्वयं पाक साफ दिखना चाहती है।
चूँकि आपराधिक सोच मन का विषय है समाज के मन को सदाचारी बनाने के लिए धर्माचार्यों से अपील या प्रार्थना करने की आवश्यकता है कि वे धन कमा कमाकर बड़े बड़े आश्रम बनाने के बजाए प्रयत्नशील होकर समाज का हित साधन करें !उनके माया मोह छोड़ने के उपदेश आखिर क्यों मायामोह पकड़ने में तब्दील होते जा रहे हैं आश्रम एवं निरोग या योग पीठें बनाने के लालची लोगों के अलावा आज भी श्रद्धेय विरक्त संत इस तरह की आपराधिक सोच पर नियंत्रण कर सकते हैं।जो व्यापारी लोग अपना व्यापार चमकाने के लिए अपने को रंग पोत कर सधुअई के धंधे में सम्मिलित हो गए हैं ऐसे लोग समाज को भ्रष्टाचार के विरुद्ध माया मोह से दूर रहकर अपराध मुक्त आचरण किस मुख से सिखा सकेंगे?इसलिए मैं केवल साधु वेष में शरीर लिपेटने वालों की बात नहीं करता हूँ अपितु समाज सुधारने के लिए विरक्त एवं चरित्रवान संतों से समाज सुधार की प्रार्थना करना चाहता हूँ।इससे इस तरह के अपराधों पर नियंत्रण किया जा सकता है।
इसी प्रकार सदाचारी शिक्षकों से भी ऐसा ही विनम्र निवेदन किया जाना चाहिए समाज सुधारने में चरित्रवान शिक्षक भी बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
फ़िल्म निर्माताओं से भी ऐसी ही प्रार्थना की जानी चाहिए सेंसर बोर्ड के नियम शक्त होने चाहिए। कला के नाम पर कपड़े उतार कर फेंक देने वाले अभिनेता लड़के लड़कियों को समाज हित में अपने परिश्रमपूर्वक कमाकर खाने के लिए प्रेरित किया जाए!
मीडिया के महापुरुषों से प्रार्थना करना चाहता हूँ कि किसी मुद्दे को उठाने से पूर्व समाज के हित का ध्यान जरूर रखा जाए।
फ़िल्म निर्माताओं से भी ऐसी ही प्रार्थना की जानी चाहिए सेंसर बोर्ड के नियम शक्त होने चाहिए। कला के नाम पर कपड़े उतार कर फेंक देने वाले अभिनेता लड़के लड़कियों को समाज हित में अपने परिश्रमपूर्वक कमाकर खाने के लिए प्रेरित किया जाए!
मीडिया के महापुरुषों से प्रार्थना करना चाहता हूँ कि किसी मुद्दे को उठाने से पूर्व समाज के हित का ध्यान जरूर रखा जाए।
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