Tuesday, June 4, 2013

सरकारी कर्मचारियों की कामचोरी ने विगाड़ा सरकारी खेल !

              ऐसी नौकरियाँ जहाँ  मजा ही मजा है !


     प्राइवेट नौकरी में भी जब मालिक बेईमान,भ्रष्ट या आलसी अथवा  अदूरदर्शी हो तो ऐसे लोगों के नौकर भी खुश रहते हैं क्योंकि उन पर काम का कभी दबाव नहीं रहता है और वो हमेंशा मालिक पर भारी रहते हैं।ईमानदार मालिक ही अपने कर्मचारियों पर शक्ति कर सकता है क्योंकि उसकी कोई पोल ही नहीं होती है जिसे खुलने का भय हो!

      सरकारी कर्मचारियों ने आज इतनी छीछालेदर करा रखी है कि जो गद्दारी पहले केवल सरकार के खून में देखी जाती थी अब वही गद्दारी  सरकारी कर्मचारियों के एक बहुत बड़े वर्ग में भी खूब दिखाई पड़ रही है।ये लोग काम न करने का बहाना ढूँढ़ा करते हैं।धन लेकर काम करने की प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है इसलिए ऐसे सरकारी कर्मचारी आज अपनी सेवाओं के नाम पर समाज को केवल धोखा दे रहे हैं वो समाज का विश्वास खोते जा रहे हैं ये गंभीर चिंता का विषय है

       सरकारी कर्मचारी भी इससे सहमत लगते हैं वो भी   सरकारी कर्मचारियों के कामों पर भरोस नहीं करते हैं! 

     सरकारी विद्यालयों के अध्यापक नहीं पढ़ाते हैं अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में!

      इसी प्रकार सरकारी चिकित्सालयों में सरकारी लोग भी इलाज करवाने से डरते हैं।

     इसी लापरवाही के कारण सरकारी डाक व्यवस्था को आज कोरियर ने मात दे रखी है वहॉं किताबों आदि के बंडल भेजने हों तो डाक खर्च के अलावा प्रति बंडल  बुक कराई अलग से जब तक तय नहीं हो जाती है तब तक वो उसमें इतनी कमी निकालते हैं या चेकिंग के नाम पर बंडल फाड़ देते हैं ! आदमी या तो पैसे दे या सामान वापस ले जाए। दोनों ही परिथितियों में डाक कर्मचारी का क्या नुक्सान? पोस्टमैन की हालत यह है कि होली मॉगता है दिवाली मॉंगता है।चेकबुक  या मनीआर्डर लावे तब माँगता है,  और यदि उन्हें एक बार पैसे देने से मना करो तो आपकी चेक बुक दरवाजे पर पड़ी मिलेगी वो भी गंदी संदी,पत्र भी दरवाजे पर डाल जाएगा पोस्टमैन!

       सरकारी टेलीफोनों पर प्राइवेट कम्पनियाँ हावी हैं ये सरकारी कर्मचारियों की कामचोरी के जीवंत उदाहरण हैं।

      इतना सब कुछ होने पर भी जब कोई आपराधिक घटना होती है तो केवल पुलिस के विरुद्ध जनाक्रोश दिखाई पड़ता है जो केवल अनुचित ही नहीं अन्याय पूर्ण भी है। सरकार के अन्य विभागों   के कामचोरों के विरुद्धऐसा जनाक्रोश क्यों नहीं दिखाई देता ?जनता भी केवल पुलिस को कोसने पर विश्वास करती है! 

  सरकारी विद्यालयों की लापरवाही  प्राइवेट विद्यालयों से छिप जाती है इसीप्रकार सरकारी अस्पतालों की लापरवाही प्राइवेट अस्पतालों से छिप जाती है । सरकारी टेलीफोनों की इज्जत प्राइवेट कम्पनियाँ बचा लेती हैं ।सरकारी डाक व्यवस्था को आज कोरियर ने सँभाल रखा है अन्यथा इन सब विभागों में भी पुलिस विभाग की तरह ही हाहाकार मचा होता!इन सब विभागों की तरह ही यदि पुलिस विभाग में भी प्राइवेट सहयोगियों का सहारा होता तो पुलिस विभाग को भी क्यों कोई कोसता ?किन्तु सच्चाई यही है कि सरकार का हर विभाग लापरवाही का शिकार है किन्तु इन्हें सँभाले कौन? जिस पर सँभालने की जिम्मेदारी है वो उनसे बड़ा लापरवाह है !       दूसरी ओर अपराधी वर्ग चुस्त दुरुस्त है उनसे निपटने की जिम्मेदारी इन ढीले ढाले गैर जिम्मेदार सरकारी कर्मचारियों पर है। जब सरकारीविद्यालयों,   चिकित्सालयों, डाकव्यवस्था,सरकारी टेलीफोन विभाग  आदि  ने   प्राइवेट की आड़ में अपनी  अपनी दुम दबा रखी है तो अन्य बचे खुचे सरकार एवं सरकारी विभागों से ही कोई आशा क्यों पालना ?

    जैसे कोई औरत अपने पति को खुश करने के लिए सुंदर सुंदर श्रृंगार करके पहुँचती है किन्तु  उसका पति अँधा हो तो क्या गुजरेगी उस पर?इसी प्रकार सारे संसाधनों से युक्त सरकारी  कर्मचारी हमेंशा अभाव का ही रोना रोया करते हैं । इनसे किसी प्रकार की आशा रखना ही अपने साथ अन्याय है। 

   दूसरी ओर नक्सलवादी , आतंकवादी ,हत्यारे  ,अपहरणकर्ता , बलात्कारी सैकड़ों अभावों में रहते हुए भी जिम्मेदारी पूर्वक समर्पित भावना से आपराधिक गतिविधि को अंजाम देते हैं और सफल होते हैं उनका एक एक बम निश्चित लक्ष्य पर समय से  फूटता है।यह उनकी उनके काम के प्रति लगन,समर्पण,जिम्मेदारी का ही परिणाम है।इनसे जूझने के लिए सम्बंधित  सरकारी कर्मचारियों  को भी इसी समर्पित भावना से जुटना होगा!      

      इसलिए ईमानदार सरकार को निर्भीक होकर अपने कर्मचारियों पर दबाव बनाकर बिना घूस लिए  काम करने करवाने की पवित्र परंपरा डालनी  चाहिए। न केवल इतना अपितु सभी प्रकार की मनमानी रोकी जानी चाहिए।चूँकि पैसे के आभाव में आम आदमी बहुत परेशानी पूर्ण जीवन जी रहा है इसका एहसास हर किसी को होना चाहिए,जिसके दोनों समय का भोजन भी निश्चित नहीं होता उस आम आदमी के विषय में  सरकारी कर्मचारी भी सोचे कि उसकी सैलरी में दिया जाने वाला धन आम आदमी के द्वारा ही कमाया हुआ होता है।ऐसे में उसी से काम करने के बदले घूस माँगना अत्यंत शर्मसार कर देने वाला कुकृत्य है!

   वर्तमान समय में सरकारी कार्यालयों की हालत यह है कि  किस काम को करवाने के लिए कहाँ किसे  कितने कितने पैसे देने होंगे यह दलालों से लेकर व्यापारियों तक सबको पता होता है।सच्चाई यह है कि  कुर्सी के हिसाब से हर चेहरे पर कीमत लिखी होती है कौन कितने में बिकेगा?ये  कीमत दलाल टाइप के लोगों को पता होती  है उनकी दृष्टि में वह उनका घोषित मूल्य होता है।इसीलिए वो किसी काम में सभी के पैसों का हिसाब लगाकर साथ में अपना प्राफिट जोड़कर पहले ही पैसे बता देते हैं कि इस काम में कौन कितना लेगा? कुल मिलाकर कहाँ कितना पैसा लगेगा ? यदि सम्बंधित अधिकारियों कर्मचारियों का मूल्य निश्चित न हो तो उन्हें कैसे पता होता कि किस अधिकारी या कर्मचारी की नीलामी कितने रुपयों में होगी ?

     किस आफिस में कौन पैसे बताएगा,कौन पैसे  लेगा कितना किसको हिस्सा मिलेगा,किस अँधेले वाले कमरे में पैसे कैसे लिए जाएँगे आदि सब कुछ निश्चित होता है कोई भी ऐसा एमाउंट आने पर इशारों इशारों में सारा काम हो जाता है।उस समय कर्मचारियों की कंप्यूटरों पर  तेजी से नाच रही अँगुलियॉं साबित कर रही होती हैं कि ये बाहरी एनर्जी से संचालित हो रही हैं अन्यथा  सरकारी पैसे में इतनी एनर्जी कहाँ होती है कि किसी का काम करने का मन भी हो?सरकारी अधिकारियों कर्मचारियों के परिवार वालों में भी बहुत उत्साह इसलिए नहीं दिखाई देता है क्योंकि सैलरी का हिसाब घरवालों के पास पहले से होता ही है उससे वो खुश  क्यों होंगे?ड्यूटी से घर आने पर घर वालों को उनकी आफिस की बातें भी सुनने का मन ही नहीं होता क्योंकि रोज की एक जैसी बातें होती हैं किसको हमने डांटा और कौन हमें तंग कर रहा है?प्रमोशन एवं सैलरी बढ़ने की सूचना समाचार पत्रों से पता लग जाती है। यह सब कुछ मशीनी मानव की तरह पूर्व नियोजित होता है। अपने घर में ही अपनी उपेक्षा से आहत सरकारी कर्मचारी अपने घर वालों को खुश  करने के लिए ऐसा नया क्या करे जिससे घर में उसकी भी डिमांड बनी रहे ! इसीलिए अपनी जीवंतता सिद्ध करने के लिए घूस लेने जैसा सारा पाप करना पड़ता है। ये सब बातें आज आम समाज में व्याप्त हैं।

       सरकारी नौकरी में तो कुर्सी पर बैठने के पैसे होते हैं। वो विरले ही ईमानदार कर्मचारी होते हैं जो समय से अपनी कुर्सी पर बैठे मिलते हैं,जो मिल गए वो आपसे बात कर ही लेंगे ऐसा आप कैसे सोच सकते हैं।आपके काम के लिए अक्सर वो उन कर्मचारियों के पास आपको भेज देंगे जो उस दिन छुट्टी पर होंगे तब क्या करेंगे आप?

     इन सबके बाद एक बड़ा वर्ग ईमानदार अधिकारियों कर्मचारियों का भी होता है जो कुछ जगहों पर काम कर नहीं पाता है कुछ जगह करने नहीं दिया जाता है राजनैतिक दबाव इतना अधिक होता है।कई जगह सहकर्मियों के असहयोग  के कारण ईमानदार वर्ग स्वधर्म पालन में पूर्णतया सफल नहीं हो पाता है फिरभी  कुछ लोगों ने अपने अपने विभागों में ईमानदार आदर्श उपस्थित करने के लिए सारी ताकत झोंक रखी है।उन्हें आज भी लोग सम्मान पूर्वक याद करते हैं।चूँकि ईमानदार वर्ग दूसरे वर्ग की अपेक्षा कम प्रचारित है इसलिए अधिकांश समाज का जिनसे सामना होता है वो लोग ईमानदारी  जैसी चीजों पर कम विश्वास करने वाले होते हैं। उन्हीं के वैभव को देखकर आम जनता को  सरकारी नौकरी में मलाई ही मलाई दिखती है।  

      आम जनता  सरकारी नौकरी के सुखों के विषय में सोचती है कि पहली बात तो वहॉं कुछ करना नहीं होता है यदि कुछ करना पड़ा तो केवल खानापूर्ति के लिए बस ,ऐसे में पूरा काम तो समिट नहीं पाता है इसीलिए सरकारी कार्यालयों में अक्सर कर्मचारियों की सार्टेज रहती है। बहुत कम लोग काम करने वाले होते हैं जो ईमानदारी से काम करना भी चाहते हैं वे बहुत कम संख्या में होने के कारण अलग थलग पड़ जाते हैं। और उन्हें अपनी ईच्छा छोड़नी पड़ती है।राष्ट्रिय राजधानी दिल्ली सरकार वा नगर निगम के प्राथमिक विद्यालयों को ही देखिए अध्यापक बेचारे केवल भोजन बाँटने की सैलरी उठा रहे हैं।है कोई उन बच्चों से पूछने वाला कि क्या पढ़ाया जाता है तुम्हें?कितनी छीछालेदर होती है आम जनता के नाम पर खर्च किए जाने वाले सरकारी धन की !कितने बेमन किए जाते हैं आम जनता को सुख पहुँचाने वाले सरकारी काम !!!  

        पुलिस विभाग की यह स्थिति है कि वहॉं की हर कुर्सी हमेशा उपजाऊ रहती है। जब जरूरत हो तब जहॉं हो तहॉं जैसे हो तैसे जितना हो तितना माल उपलब्ध है।इस मामले में वहॉं तो पॉंचों अँगुलियाँ हमेशा घी में रहती हैं। जब तब जहॉ कहीं यदि ईमानदार अधिकारी कर्मचारी आ भी गए तो इस बिगड़े हुए सिस्टम में उनका स्वतंत्र काम कर पाना बहुत मुश्किल होता है।

     थाना शिवराजपुर कानपुर की बात सन् 1998 की है।कुछ उपद्रवियों ने निरपराध हमारे अग्रज पर हॉकी से हमला किया जिस प्रहार से शिर में गंभीर चोट आई थी  बाद में सोलह टॉंके लगे थे।दिनभर खून बहता रहा था किंतु ड्रेसिंग तक नहीं कराने दी गई थी हमें ! वस्तुतः उपद्रवियों ने थाने में दस हजार रुपए दिए थे तो दरोगा जी ने मुझे बुलाकर कहा कि यदि आप पंद्रह हजार रुपए दे सकते हो तो बताओ मैंने उनसे कहा कि हमला भी हम पर हुआ चोट भी हमें लगी इलाज कराना तो दूर की बात है पैसे भी हम्हीं से मॉंग रहे हो? उन्होंने कहा यदि नहीं देना चाहते हो तो हम झगड़ा दिखाकर दोनों को बंद कर देंगे।मैंने कहा ऐसा कैसे करोगे आखिर हमला हम पर हुआ है? किंतु उन्होंने कहा कि हम हरिश्चंद नहीं हैं। पुलिस की नौकरी चौबीसों घंटे की होती है।सरकार हमें केवल दिन दिन की सैलरी देती है रात की सैलरी तो समाज से ही वसूलनी  पड़ती है सीधी अँगुलियों से मक्खन निकलता है क्या ?खैर जो भी हो उन्होंने हम दोनों को बंद कर दिया रात भर दर्द के पीछे बुरा हाल ऊपर से समझौते के लिए पुलिस का दबाव कि यदि ऐसा नहीं करोगे तो ये दुबारा हमला करेंगे तो यहॉं मत आना!हमारी भी थीसिस जमा करने का समय था हमें भी बी.एच.यू. पहुँचना था।भाई साहब गॉंव में अकेले रहते थे बहुत कुछ आगे पीछे सोचकर मुझे  समझौता करना पड़ा ! भाई साहब की चोट की भी चिंता थी न जाने क्या हो!खैर ईश्वर  ने मदद की दवा हुई वो धीरे धीरे ठीक हुए।कुल मिलाकर हमारे लिए तो वो पुलिस के लोग ही नक्सली और आतंकवादियों से अधिक सिद्ध हुए !कैसे किसका भरोसा किया जाए ! तब से  आज तक किसी परेशानी में पुलिस की याद कभी नहीं आती है। उनकी शिकायत कहॉं कही जाए कौन सुनेगा?आज भी अक्सर इस तरह की घटनाएँ  सुनाई पड़ती हैं।स्वच्छ प्रशासन के नाम पर जनता को क्या क्या नहीं सहना पड़ता है।                   
      इस प्रकार से सरकारी कर्मचारियों की कौन कहे स्वयं सरकारों के अक्सर परस्पर विरोधी,गैरजिम्मेदारी के आचरण देखने को मिलते हैं, जिससे जनता का विश्वास टूटना स्वाभाविक है।आज सरकार एवं सरकारी कर्मचारियों से जनता का टूटता विश्वास लोकतंत्र के लिए गंभीर चिंता की बात है। अपनों की अपनों को ठगने की ललक ने लोगों का कितना पतन किया है?
    विशेष कर बिजली पानी आदि किसी भी वस्तु के दाम बढ़ाने के समय आम जनता को पता होता है कि पहले ज्यादा बढ़ोत्तरी की जाएगी फिर कुछ कम कर दिए जाएँगे और हर बार किया भी ऐसा ही जाता है आखिर क्यों? अपनी जनता को जलील करके बार बार महॅंगाई थोपना कहॉं तक उचित है।कोई निर्णय एक बार सोच बिचार कर क्यों नहीं लिया जाता ? जितने अच्छे अच्छे पढ़े लिखे  लोग सरकारों में हैं वो किसी योजना के लागू होने से पूर्व भविष्य  में घटित होने वाले  उसके संभावित परिणामों का अध्ययन अच्छी तरह पहले ही क्यों नहीं कर लेते हैं,या किसी और से करा लिया जाता है?आखिर सैलरी के रूप में इतनी मोटी मोटी धनराशि देकर नियुक्त किए जा रहे कर्मचारी या आफीसर देश के और किस काम आएँगे? आखिर क्यों होती है ऐसी लापरवाही?अस्थिरता का माहौल बना हुआ है,हर चीज में छिछलापन एक तो जनता महॅगाई से मरे उसमें भी सरकारी खिलवाड़!

       पहले गैस सिलेंडर साल में छै देने की बात कहकर देश वासियों को अचानक तनाव में डाल दिया गया सुना है अब सरकार कृपा पूर्वक नौ सिलडर करने वाली है इसी प्रकार डीजल आदि हर चीज में जनता के साथ ऐसे ही खेला जाता है।
       हर योजना में ऐसी लापरवाही दिखाई पड़ती है।मोबाइल टावर पहले जब लग रहे थे तब इनके प्रभाव का अध्ययन करके आगे बढ़ा जाता तो शायद ज्यादा सुखप्रद होता किंतु ऐसा नहीं हुआ।आज अक्सर सुनने को मिलता है कि इसके आसपास रहने वालों कों कैंसर आदि बड़ी बीमारियों का खतरा होता है।अब क्या करे आम आदमी?आखिर वह खबरें सुन सुन कर परेशान है।पड़ोसी ने किराए के लालच से अपनी छत पर टावर लगा रखा है आसपास वाले लोगों की नींद हराम है क्या कर सकते हैं आस पास वाले लोग खबरें सुन सुन कर परेशान होने के  अलावा?

     कई जगह फ्लैट सिस्टम में बिल्डर से छत किसी और ने लेकर टावर लगवाया हुआ है वो रहता कहीं और है किराया वो लेता है वहॉं रहने वाले लोगों की नींद हराम है।क्या किया जाए?कहीं कम्प्लेन करो तो वो कहते हैं पहले मुकदमा करो उसका खर्चा आम आदमी फोकट में क्यों करे? और टावर वाले से दुश्मनी अलग से?टावर वाले की चूँकि कमाई है इसलिए उसे मुकदमें का खर्च समझ में नहीं आता।इस महॅगाई में आम आदमी क्या करे?
      यदि ये टावर इतने खतरनाक हैं तो पहले ही अध्ययन होना चहिए था जहॉं लापवाही से इनकार कैसे किया जा सकता है?यदि अब भी पता लग गया है तो अब सरकार का दायित्व है कि बिना बिलंब किए इन्हें सरकार स्वयं हटवा दे। आखिर कब होगा यह सब, किस प्रतीक्षा में है सरकार? जब अनियंत्रित बीमारियाँ फैलने लगेंगी तब हटाए जाएँगे ये टावर!आखिर प्रतीक्षा है किसकी ?
      अक्सर अवैध मकान तोड़े जाते सुने जा सकते हैं किंतु जिन जिम्मेदार अधिकारियों के सहयोग या उनकी लापरवाही से ऐसे उन अवैध मकानों का निर्माण हुआ था क्या उनपर कोई कठोर कार्य वाही नहीं की जानी चाहिए?किंतु सरकार यदि इस गोरख धंधे से अलग हो तब ऐसी अपेक्षा की जानी चाहिए। कैसे कैसे निर्माणों में किसको किसको  कितनी घूस जानी है यह निश्चित है। ऐसे लगने वाले आरोपों पर पहले मैं विश्वास  नहीं करता था अब होने लगा है।
    इसी प्रकार पोलीथीन का प्रचलन अचानक दस बीस सालों में बढ़ा धीरे धीरे लोग आलसी हो गए।दूध, तेल, चाय जैसी चीजें भी इसी में मिलने लगीं।सुना है अब इन्हें लेकर चलना अपराध की श्रेणी में माना जाएगा किंतु ऐसा अपराध जो अभी तक हुआ उसके लिए जिम्मेदार आखिर कौन है? क्या सरकार की समझदारी की कमी में भी जनता को ही दोषी माना जाएगा?
    इसी प्रकार नशीले पदार्थों के विषय में चूहे बिल्ली का खेल चल रहा है।अक्सर शराब के सेवन से लोगों को मरते या उनका लीवर खराब होते सुना जा सकता है।आखिर ऐसी नशीली चीजों के प्रतिबंध पर भी क्या कोई जिम्मेदारी से बिचार करेगा?
     रेलगाड़ियों में टी.टी.रिजर्वेशन की सीटें तक जनरल टिकिट वालों को बेच देते हैं और रिजर्व सीट वालों को सहयोग करने की सलाह दे रहे होते हैं।कई बार चोर लुटेरों को टी.टी.रिजर्वेशन की सीटों पर या उनके आस पास बैठने या लेटने की सलाह दे देते हैं जिनका घोषित एड्रेस भी टी.टी.के पास नहीं होता है मौका मिलते ही ऐसे अपराधी  रिजर्वेशन की सीटों पर बैठे यात्रियों का सामान लूट कर भाग जाते हैं सबका हिस्सा सबके पास पहुँच जाता है इसप्रकार ट्रेनों के बाथरूमों तक में यात्री भरे होते हैं लड़कियों महिलाओं को भी जाना होता है बथरूम! कई बार उनके साथ छोटे छोटे बच्चे होते हैं जिन्हें बार बार बाथ रूम ले जाना होता है कौन होता है देखने सुनने वाला?उन्हें मनचलों की कैसी कैसी हरकतों का सामना नहीं करना पड़ता है? सारी गैलरी में जाम लगा होता है! आखिर कौन है जिम्मेदार ?
    इसी प्रकार नगरों महानगरों में रेड़ी या पटरियों पर छोटी मोटी दुकान चलाने वालों को भी महीना देना होता है वहॉं के जिम्मेदार सरकारी कर्मचारियों का  महीना बॅंधा होता है। 
      रोड पर चलने वाले वाहन विशेष कर व्यवसायिक वाहनों को संबंधित कर्म चारियों से महीना बॉंध कर रखना होता है अन्यथा सब कागज ठीक हों तो भी वो रोड पर कैसे चल पाएगा? 

  इस प्रकार जिस सरकारी नौकरी में चारों तरफ मलाई ही मलाई हो तो किसकी लार नहीं टपकेगी अर्थात कौन नहीं चाहेगा सरकारी नौकरी?ऐसे लड़कों  की शादियाँ भी आसानी से हो जाती हैं। वस्तुतः ऊपरी आमदनी का रौब ही अलग होता है।ऐसे लोगों की सैलरी से अधिक ऊपरी आमदनी चर्चा में रहती है।

            इस प्रकार ईमानदारी से परिश्रम पूर्वक काम करने की बाध्यता होने पर सरकारी नौकरी से लगाव घटना संभव है, स्वाभाविक है  कि जिसे परिश्रम पूर्वक काम करके ही पैसे कमाने हैं उसे क्या सरकारी क्या प्राइवेट ? 



     राजेश्वरी प्राच्य विद्या शोध संस्थान की सेवाएँ  

    यदि आप भी ऐसे किसी बनावटी आत्मज्ञानी बनावटी ब्रह्मज्ञानी ढोंगी बनावटी तान्त्रिक बनावटी ज्योतिषी योगी उपदेशक या तथाकथित साधक आदि के बुने जाल में फँसाए जा  चुके हैं तो आप हमारे यहाँ कर सकते हैं संपर्क और ले सकते हैं उचित परामर्श ।       कई बार तो ऐसा होता है कि एक से छूटने के चक्कर में दूसरे के पास जाते हैं वहाँ और अधिक फँसा लिए जाते हैं। आप अपनी बात किसी से कहना नहीं चाहते। इन्हें छोड़ने में आपको डर लगता है या उन्होंने तमाम दिव्य शक्तियों का भय देकर आपको डरा रखा है।जिससे आपको  बहम हो रहा है। ऐसे में आप हमारे संस्थान में फोन करके उचित परामर्श ले सकते हैं। जिसके लिए आपको सामान्य शुल्क संस्थान संचालन के लिए देनी पड़ती है। जो आजीवन सदस्यता वार्षिक सदस्यता या तात्कालिक शुल्क  के रूप में  देनी होगी जो शास्त्र  से संबंधित किसी भी प्रकार के प्रश्नोत्तर करने का अधिकार प्रदान करेगी। आप चाहें तो आपके प्रश्न गुप्त रखे जा सकते हैं। हमारे संस्थान का प्रमुख लक्ष्य है आपको अपने पन के अनुभव के साथ आपका दुख घटाना बाँटना  और सही जानकारी देना।



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