मर्यादा विहीन जीवन !
जीवन मूल्यों और मर्यादा को हमने दफन कर दिया है। अपराध नियंत्रण के लिए
कानून हैं, फिर भी उनमें कमी नहीं आ रही है तो क्या दुष्कर्म के कानून कड़े
कर देने से तस्वीर बदलेगी? क्या इससे पहले किसी दुष्कर्मी को मृत्युदंड
नहीं दिया गया? फिर कैसे कहा जा सकता है कि इन अपराधियों को मृत्युदंड देने
से सब कुछ बदल जाएगा?
अमेरिका और दूसरे पाश्चात्य देशों में जहाँ मुक्त यौन सबंधों को सामाजिक
मान्यता है उसकी संस्कृति (या विकृति) को भारत लाने के प्रयासों में अभी तक
लिवइन रिलेशनशिप और समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से मुक्त किया जा चुका
है। उत्तेजक पहनावे और कामुकता को बढ़ावा देने वाला सिनेमा या धारावाहिक
प्रगतिशीलता का प्रतीक मान लिया गया है। पहले पर्दे पर नृत्यांगना आती थी
अब उनकी जगह आइटम गर्ल ने ले ली है। संस्कृत में एक सूक्ति है, जिसका भाव
यह है कि मनुष्य और पशु समान प्रवृत्ति के होते हैं, बस धर्म और कर्तव्य का
अहसास ही मनुष्य को पशु से भिन्न रखता है। कर्तव्य की प्रवृत्ति का विस्मरण होने के कारण अब समाज पाशविकता की ओर बढ़ रहा है। इसलिए अब समय आ गया है जब हम अपनी संस्कृति की ओर लौटें। संस्कार देने का प्रथम केंद्र
परिवार होता है। भौतिक भूख की ललक बढ़ते जाने के कारण पारिवारिक संस्कारों
की परंपरा लुप्त होती जा रही है। परिवार का तात्पर्य माता-पिता और संतान भर
रह गया है। पति-पत्नी दोनों के कमाने पर ही भरण-पोषण संभव है के माहौल ने
जो व्यस्तता बढ़ाई है, उसने बच्चों को स्कूल भेजने और कोचिंग कराने पर ही
अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली है। युवाओं में मुक्त संबंधों की पैठ बढ़ती
जा रही है। इसके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं।
मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघरों में पुजारी, मौलवी और पादरी तक यौन शोषण में
लिप्त क्यों पाए जा रहे हैं? क्यों पिता-पुत्री के दुष्कर्मो के मामले
बढ़ते जा रहे हैं? इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि हम समाज को मर्यादाविहीन
बनाते जा रहे हैं। मर्यादा को पुराणपंथी कहकर हीन साबित किया जा रहा है।
नैतिक मूल्य शून्य होते जा रहे हैं। आचरण को ऊपर ले जाने का प्रयास कहाँ हो रहा है? यहाँ तक कि शिक्षण संस्थाओं में नैतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में
शामिल करने की बात तो दूर हाँ सेक्स शिक्षा के विषय में जरूर चिंतन चल रहा है।
समाज कैसे निर्मल हो जाए चिंतन इसका होता तो कितना अच्छा और हितकर होता ?अब समाज को निर्भय और निर्मल बनाने के लिए संस्कारों को प्राथमिकता देनी
होगी जो परिवार से शुरू होती है और शिक्षण संस्थाओं में जिसे धार प्रदान
की जाती है। किसी भी समस्या के मूल को भूलकर उसका समाधान नहीं निकाला जा
सकता है। आज युवा पीढ़ी
में मर्यादा की समझ को विकसित करने की आवश्यकता है। उसका भविष्य संयम
में सुरक्षित है, उन्मुक्तता में नहीं।
राजेश्वरी प्राच्यविद्या शोध संस्थान की अपील
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