Friday, December 14, 2012

Aarakshan par Andolan

           जातीय आरक्षण मनुवाद की ही देन है



      मनु तो एक पदवी का नाम है जो चौदह होते हैं जो अपने धर्म कर्म एवं सच्चाई के नाम से जाने जाते हैं।वे तपस्वी थे। 
   दूसरी ओर  माया शब्द का अर्थ शब्द कोशों में झूठ,छल,प्रपंच,धूर्तता,धोखा,शठता,चालबाज,दयाआदि   लिखा गया है।खैर वो तो शब्द कोशों की बात है हमें यहाँ उससे क्या लेना देना ?
          फिर भी यदि मान ही  लिया  जाय कि किसी  व्यक्ति के  स्वाभाव पर उसके नाम का भी कुछ न कुछ असर तो होता ही होगा  तो माया नाम से रखे गए नाम वाले लोग कितने विश्वसनीय रह जाएँगे? किन्तु नाम तो अपने माता पिता रखते हैं जरूर कुछ सोच कर रखते होंगे ।कम से कम इसमें मनु तो दोषी नहीं हैं।वैसे ज्योतिष या धर्म शास्त्रों में स्पष्ट लिखा गया है कि नाम  के अर्थ का जीवन पर असर पड़ता ही है इसलिए नाम शुभ शुभ ही रखने चाहिए।संसार में जो कुछ जहाँ तक जैसा दिखाई पड़ता है वहाँ वो वैसा नहीं  होता है  इसी लिए माया को समझने में हमेंशा भ्रम बना रहता है।इस संसार के सभी परिवारों तथा सरकारों आदि में जिसके भी साथ माया रहेगी उसे चैन से नहीं बैठने देगी। यह सब लोग जानते हैं कि माया मृग ने भगवान श्रीराम को कितना तंग कियाथा।यहाँ की लीला तो कांशीराम ही जानें।श्रीराम तो भगवान थे तब भी माया के चक्कर से मुश्किल में निकल पाए किन्तु बेचारे कांशीराम जी.....!और की क्या कहें  भाजपा अब उत्तर प्रदेश में किसी लायक नहीं बची है  ये भाजपा वालों का मायामोह ही था।अब केंद्र सरकार पर सांमत है भगवान ऐसी सरकार की आत्मा को शांति दे और सहने की ताकत भी दे।बिना सँकोच जो मायामोह से दूर रही  उस सपा ने उत्तर प्रदेश में सरकार बना ली। भाजपा मायामोह में फँसी तो फँस ही गई ।इस प्रकार से माया जिससे जुड़ती तो बस उसके अंत की घोषणा हो जाती। देखो माया कैलेंडर को इसके मुताबिक 21 दिसंबर 2012 में  सारी धरती खत्महोजानीथी ।अब केंद्र सरकार इसी भँवर में फँसती दिख रही है। सपा सँभल गई तो सँभल गई अन्यथा उसकी दुर्दशा  यही  माया  कर देती ।खैर ये तो राजनीति है इसके बिषय में राजनेता ही जानें हमें मनु महाराज के विषय में बात करनी है।आखिर इस राजनैतिक कीचड़ में मनु जैसे महर्षि को क्यों घसीटना ? 
    मनुवाद के नाम पर अपने ही पूर्वजों को गाली देना कौन सी बुद्धिमानी है। मनु सामान्य महर्षि नहीं थे।
    कुल मिलाकर  चौदह मनु  होते हैं और एक मनु का लाखों वर्षों का कार्यकाल  होता है।

1.स्वायंभुव मनु
2.स्वारोचिष  मनु
3.औत्तमि मनु
4.तामस मनु
5.रैवत मनु
6.चाक्षुष  मनु
7.वैवस्वत मनु
8.सावर्णि मनु
9.दक्ष सावर्णि मनु
10.ब्रह्म सावर्णि मनु
11.धर्म सावर्णि मनु
12.रुद्रसावर्णि मनु
13.रौच्य दैव सावर्णि मनु
14.इन्द्र सावर्णि मनु

    एक एक मनु का लाखों वर्षों का समय होता है अर्थात् कुछ लाख वर्ष  खंड के स्वामी एक मनु होते हैं फिर दूसरा  उसके बाद तीसरे आदि मनु उस समय के अधिपति होते हैं।इसी क्रम में इस समय के मालिक सातवें अर्थात् वैवस्वत मनु हैं।इस लिए यह सातवॉं मन्वंतर हुआ जिसमें हम लोग रह रहे हैं इसे वैवस्वत मन्वंतर भी कहते हैं।इसीप्रकार यथाक्रम मनु आगे भी होते रहेंगे।
    सबसे पहले मनु को स्वायंभुव मनु कहा गया है इन्हें ही दूसरा स्रष्टा अर्थात सृजन करने वाला माना गया है।इन्हीं से दस प्रजापतियों का जन्म हुआ है उनसे आगे सृष्टि संचालन हुआ है।इस प्रकार उस समय सभी लोग इन्हीं की संतानों के रूप में जाने या माने जाते थे।
   चूँकि सभी लोग उन्हीं की रचना थे इसलिए उन्होंने जिसे जो आदेश दिया वह उस कार्य को करने लगा।बहुत लोगों ने तपस्या और सदाचरण के प्रभाव से अपनी जाति के महत्त्व को ऊपर उठा लिया कई निम्न जाति के लोग ऋषि तक हुए हैं।इसी प्रकार अपने कर्मों के बिगड़ने से कई सवर्ण कहे जाने वाले लोगों का भयंकर पतन भी होते देखा गया है,और उनकी जातियॉं भी बदल गई हैं।
     यह आदि काल अर्थात शुरू शुरू की बात है तब प्राण हड्डियों में बसते थे।भोजन की व्यवस्था थी किंतु भोजन के बिना  तब कोई मरता नहीं था इसीलिए कई लोगों के शरीर में तपस्या करते समय दीमक लग गई फिर भी वे मरे नहीं।अब प्राण अन्न में बसते हैं इसलिए भोजन नहीं मिला तो प्राणसंकट में पड़ जाते हैं। यदि शुरू शुरू में ऐसा होता तब तो भोजन व्यवस्था साथ में लेकर पैदा होना पड़ता।इसलिए उस युग में जो आवश्यक था वह उस युग में होता रहा जो आज आवश्यक है वह आज होता है।
    उस युग में सारा संसार यज्ञमय था क्योंकि शास्त्रीय मान्यता है कि यज्ञ से बादल बनते हैं,बादलों से वर्षा  होती है,वर्षा  से अन्न होता है और अन्न से सभी जीवों की रक्षा होती है।इसलिए सारे संसार का लक्ष्य और  कर्म ही यज्ञ करना और कराना होता था।
     इस यज्ञ कर्म में महर्षि मनु ने अपनी संतानों के लिए यज्ञ कर्म को चार भागों में बॉंट दिया जिसे क्रमशः  ब्राह्मणकर्म, क्षत्रियकर्म,वैश्य कर्म शूद्रकर्म आदि के रूप में जाना गया। सर्व प्रथम ब्राह्मणकर्म के नियम बताते हुए कहा गया कि त्याग, तपस्या, संयम पूर्वक वेदाध्ययन अध्यापन दानलेना दानदेना स्वाध्याय अग्निहोत्र आदि करते कराते हुए सारे संसार के प्राणियों की कुशलता के लिए तपोमय जीवन जीना पड़ेगा।इस प्रक्रिया में उन्हें अपना दिनभर का सारा समय  केवल और केवल पूजा पाठ में ही  देना था एवं शक्ति बर्द्धक भोजन से बचते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करना होगा। उस युग में इस तरह दिनभर चलने वाले धर्मकार्यों को आह्निक कर्म कहा गया था।इतनी कठोर साधना के बदले में इन्हें अपने लिए कुछ न करके सारे संसार के लोगों की कुशलता के लिए काम करना था।इतनी कठोर नियम व्यवस्था देखकर बहुत कम लोग इस श्रेणी में समर्पित हुए जो ब्राह्मण कहे गए इसी लिए इनकी संख्या बहुत कम है। उस युग की क्या कहें आज भी शिक्षा के लिए समर्पित लोगों की संख्या औरों की अपेक्षा कम होती है।आखिर आई. ए. एस. आदि परीक्षा देने की कितने लोग हिम्मत कर रनी पाते हैं?
     इसीप्रकार क्षत्रियकर्म में बताया गया कि कहीं कोई धर्म कर्म को न मानकर यज्ञ कर्म को दूषित न कर दे उससे यज्ञ की रक्षा करनी है इसके साथ साथ समस्त प्राणियों की भी रक्षा करनी है। दूसरों की रक्षा के लिए अपने प्राण भी देने पडें तो भी कायरों की भॉंति कभी पीठ नहीं दिखा सकते। मृत्यु या विजय पर्यंत लड़ना होगा।इस काम को कौन करेगा जो करेगा उन्हें क्षत्रिय कहा जाएगा।बहुत कम लोग औरों के लिए मरने को तैयार हुए।
 इसीप्रकार वैश्य कर्मों का वर्णन किया गया। यज्ञ की समस्त सामग्री की व्यवस्था तथा समस्त प्राणियों के भोजन एवं आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था जो कर सकता हो उसे वैश्य कहा जाएगा।
   इसी प्रकार यज्ञ कर्म की सहायता के लिए एवं समस्त प्राणियों के सहयोग के लिए जो आवश्यक कर्म हैं वो सब शेष  बचे हुए लोगों को करना है। वे सब छुद्र छोटे या शूद्रकर्म कहे गए।
 इसके बाद महर्षि  मनु ने सभी के लिए धर्मसंहिता लिखी जिसमें सभी वर्णों के नियम धर्मों का वर्णन किया गया जिसे मनुस्मृति के नाम से जाना गया। यह उस युग की उन परिस्थितियों का सच था, हजारों वर्षों बाद आज उस पर विवाद किया जाना ठीक परंपरा नहीं है जहॉं तक महर्षि मनु की बात है हो सकता है कि आज कोई उससे सहमत न हो किंतु वो हमारे गौरवमय अतीत हैं जिस सच्चाई से कोई भी सदाचारी स्वाभिमानी सनातन धर्मी कैसे मना कर सकता है? अभी बनाए गए संविधान में इतने अधिक संशोधन किए जा चुके हैं तो इतनी पुरानी मनुस्मृति या अन्य धर्मग्रंथों का इस समय अक्षरशः  स्वीकार्य न होना स्वाभाविक है, फिर भी बहुत सारे वे जीवन मूल्य इन धर्मग्रंथो में भी मिल जाएँगे जो वर्तमान समय में भी संजीवनी सिद्ध हो सकते हैं।
   
निराधार आरोपः-जो लोग शूद्रों के साथ भेद भाव करने की बात कहते हैं वे सच नहीं हैं क्योंकि यदि उन्हें जबर्दस्ती शूद्र बनाया गया होता तो  तीनों वर्णों में सबसे अधिक संख्या वाला यह वर्ग इतनी शांति से अपना अपमान सह क्यों जाता?दूसरा अपनी ही संतानों के साथ मनु ऐसा भेद भाव करते ही क्यों?तीसरी बात यह है कि आजादी के बाद स्वतंत्र भारत में कितने शूद्र वर्ग के लोगों ने ब्राह्मण कर्मों में रुचि ली है?किसी और की छोड़ो अब तो ब्राह्मणों ने भी ब्राह्मण कर्म छोड़ दिए हैं कितने कठिन रहे होंगे वे ब्राह्मणकर्म?कम से कम अब तो कोई रोकटोक नहीं है। अब अन्य वर्ण के लोग यज्ञ क्यों नहीं कर लेते हैं? जहॉं भय बश  ब्राह्मणों को सम्मान देने की बात है यह इसलिए गलत है कि क्षत्रिय भी ब्राह्मणों का सम्मान अपनी ईच्छा से करते थे।आखिर उन राजाओं को क्या भय था?इसी प्रकार वैश्य आदि भी करते हैं।इसी प्रकार मृत्यु भय से भयभीत हमारे जैसे जो लोग आज सेना में नहीं भर्ती होना चाहते हैं दूसरे की कौन कहे क्षत्रिय भी आज नौकरी करके जीना चाहते हैं किन्तु सेना में जाने से वो भी बचते हैं तो उस युग में समाज की रक्षा के लिए मरना कौन चाहता? ये हर किसी के बश  का आज भी नहीं है पहले भी नहीं था।मरना कोई नहीं चाहता है जिसने इस पथ पर कदम आगे रखा उसे सम्मान तो मिलना ही था।         
     छुवाछूत की जो बात है वह भी यज्ञ कर्म के लिए थी जो यज्ञ कर्ता लोग अत्यंत शुद्धि पूर्वक यज्ञ कर्म में लगे होते थे उन्हें हर ऋतु में कई कई बार नहाना होता था शौच जाएँ तो नहाना,कोई छू ले तो नहाना, और किसी प्रकार की गंदगी का स्पर्श हो जाए तो नहाना आदि,यही वो कठिन नियम थे जिनके कारण बहुत कम लोग ब्राह्मण बनने को तैयार हुए थे।आखिर नदियों के ठंढे ठंढे पानी से बार बार नहाना आसान काम नहीं था।इस प्रकार बात बात में नहाने के नियम सर्व सम्मति से बनाए गए थे तो शूद्र ही नहीं जिसे भी अपने प्रति अशुद्धि की आशंका होती है वो स्वयं किसी और को छूने से बचना चाहता है।आज भी बहुत जगहों पर ऐसा होता है। यहॉं शंका की बात यह बनी कि शूद्र भाइयों ने सारे काम ही उसी तरह के पकड़े यज्ञ के लिए ईंधन लाने से लेकर जो भी काम होते थे वो यज्ञ के बाहर जाने आने के ही होते थे।जहॉं अशुद्धि की आशंका रहती ही थी अब वो यज्ञकर्ताओं को छूना भी चाहें तो पहले नहाना होगा बार बार नहाने के भय से उन्होंने छूने को स्वयं मना कर दिया।
वस्तुतः शूद्रों का काम तीनों वर्णों की सेवा न होकर यज्ञ सेवा था।जो कालांतर में लोगों की सेवा में बदल गया। इसी प्रकार जो छुवा छूत का विचार यज्ञ कार्यों के लिए था वो दैनिक जीवन में प्रचलित हो गया आज की स्थिति यह है कि कई सवर्ण परिवारों में जन्में लोग अत्यंत पाप कर्मों में प्रवृत्त हो गए हैं फिर भी वो अपने को श्रेष्ठ  सिद्ध करना चाहते हैं अपने दुर्गुणों को भी सही सिद्ध करते हैं। यह कैसे हो सकता है?
     इसी प्रकार अभी भी कर्मकांडी तपस्वी सदाचारी बहुत ब्राह्मण लोग अपने धर्म कर्म से बॅंधे हुए हैं वो दूसरे धर्म कर्म रहित ब्राह्मणों के यहाँ का खाना पानी नहीं लेते।सभी ब्राह्मण दूसरे सभी ब्राह्मणों के यहॉं विवाह नहीं करते क्षत्रिय वैश्यों के यहॉं तो करते ही नहीं हैं इसी प्रकार अन्य वर्ण के लोग भी अपने से दूसरे वर्णों में विवाहादि कर्म नहीं करते,सभी लोग अपने अपने वर्ण वर्ग में ही विवाह आदि मंगलकृत्य करते हैं।इसीलिए आज भी सभी को अपने अपने वर्ण वर्ग में ही विवाह आदि करते देखा गया है।
     जहॉं तक छुवा छूत के विचार की बात है तो यज्ञ कार्यों के कमजोर पड़ते ही जातिगत भावना घटने लगी थी उसके साथ साथ छुवा छूत का विचार भी समाप्त होने लगा था आज तो होटल में खाने वाले सभी ब्राह्मण छुवा छूत आदि का विचार भूल चुके हैं।क्योंकि ऐसी महॅंगाई में उन्हें सबसे पहली चिंता रोजी रोजगार की है न कि छुवा छूत के विचार की।
       इसलिए महर्षि मनु को क्यों दोष देना ? हमें अपने कर्मों एवं वर्तमान समाज को सुधारने पर ध्यान देना चाहिए।आखिर कुछ आलसी लोग   जाति गत आरक्षण के लोभ में जातियों को क्यों जीवित रखना चाहते हैं।एक तरफ महर्षि मनु के द्वारा वर्गीकृत जातियों को जीवित भी  रखना चाहते हैं दूसरी ओर मनु की जातीय कृपा पर ही  आरक्षण का लोभ भी है।ऐसी परिस्थिति  में 
महर्षि मनु का क्या दोष ?

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