कोई इंसान गरीब हो सकता है दलित नहीं 
 दलित  अपाहिज होते हैं क्या ?आखिर उनकी तस्वीर ऐसी क्यों परोसी जा रही है,उन्हें अपने  परिश्रम के बल पर क्यों 
नहीं आगे बढ़ने दिया जाता?ऐसा करने से उनमें आत्मसम्मान का भाव जागेगा और वे
 लोगअपने बलपर समाज की मुख्यधारा से  जुड़कर  अपनी छवि देदीप्यमान कर सकेंगे । मुझे ऐसा  लगता है कि ये वर्ग परिश्रमी होने के कारण  किसी की कृपा का मोहताज 
 नहीं है इन्हें कुछ कामचोर नेताओं ने समझा रखा है कि हमारा समर्थन आँख 
मूँद कर  करते रहो हम तुम्हें बिना कुछ किए आरक्षण की बदौलत आगे बढ़ा देंगे।ऐसे कुछ कामचोर नेताओं ने  इनकी लाचारी,बेचारगी ,दीन हीनता में अपने उत्तम भविष्य के सपने सँजो रखे हैं।यदि यह वर्ग ऐसे नेताओं को एक बार अपने दरवाजे से डाँट कर भगा दे कि आप दलितों, मुश्लिमों,महिलाओं,विकलांगों,बूढों ,बीमारों  के विकास की अलग  अलग
 बात मत करो,आप सारे देश का विकास कर सकते हो तो करो नहीं तो जाओ।जब सारे 
देश 
का विकास होगा तो हमारा भी हो जाएगा हम इतने गए गुजरे जाहिल गँवार नहीं हैं
 कि सभी वर्ग परिश्रम करके आगे बढ़ जाएँगे और हम उन्हें पड़े पड़े देखते 
रहेंगे और न ही हमें इतना कामचोर सिद्ध 
करने की कोशिश की जाए ।दलितों के प्रति जो रुख राजनेताओं ने बना रखा है जिस
 तरह से ऐसे गरीब भारतीयों को विश्व में  दुष्प्रचारित किया जा रहा है जैसे
 भारत वर्ष पर गरीब लोग बोझ बने हुए हैं या  ये किसी असाध्य बीमारी से जूझ 
रहे लोग हैं या वो कुछ करने लायक नहीं हैं।इस प्रकार देश के सम्मानित किसी 
भी वर्ग को वैश्विक स्तर पर  अपाहिज एवं अकर्मण्य रूप में प्रचारित करके अपमानित करना ठीक नहीं है।आखिर कुछ लोगों को ऐसा क्यों लगता है कि ये वर्ग परिश्रम करने वालों की प्रतियोगिता में पिछड़ जाएगा।आखिर क्या कमी दिखती है उन्हें इनमें? 
  इसप्रकारदलितों,मुश्लिमों,महिलाओं, विकलांगों,बूढों, बीमारों आदि से डाँटे  जाने पर ऐसे झूठे लालच देने वाले लोग  अपमानित
 और बेनकाब  होंगे या तो ये दुबारा सामने नहीं पड़ेंगे या फिर काम 
करेंगे नहीं तो जिन्हें काम करना होगा वही सामने आएँगे।आज तो जो
 किसी लायक नहीं हैं वो भी दलितों को आगे बढ़ाने की बात कर रहे हैं ।जैसे 
दलितों को इंसान  नहीं ये लोग कीड़े मकोड़े समझते हैं । बड़ी बड़ी
 बहन जी आईं अपनी प्रापर्टी बना कर चली गईं । आगे आने वालों से क्या आशा 
?
    इस वर्ग के थोड़े शक्त हो जाने से
 भ्रष्टाचार में रोक लगेगी बेईमान कामचोर लोगों की छटनी हो जाएगी 
जिनके मन में वास्तव में जनसेवा की भावना होगी वही सामने आएँगे।उन्हें भी 
डर रहेगा कि अब ये भी दलित समाज नहीं अपितु जीवित समाज हो गया है।यदि हमने
 काम नहीं किया तो अब ये भी हिसाब माँगेगा जिसे अब तक हमने  गया गुजरा जाहिल 
गँवार समझ रखा है।अभी तो अपना घर भरते हैं 
चुनावों के समय अपना दोष दूसरों पर डालकर कि फला पार्टी ने सहयोग नहीं किया
 इस लिए हम काम नहीं कर पाए और फिर बड़ी बेशर्मी पूर्वक आप से वोट
 माँगने आ जाते हैं।कुछ नेताओं ने यदि जीवित इंसानों को दलित कहा है तो 
कितनी गिरी निगाह है इस वर्ग के प्रति ?आश्चर्य!!!आज भी बड़ी बड़ी 
बिल्डिंगों, पुलों, मेट्रो जैसे परिश्रम पूर्ण कार्यों में इसी वर्ग के परिश्रम की शौर्य छाप है कैसे नकारा  जा सकता है उनकी  इस 
समर्पित भावना को ?आज भी खेती के सर्वाधिक परिश्रम पूर्ण कार्यों के द्वारा
 अन्न उपजाकरसमाज का पेट भरके सबको जीवन दान देने वाला वर्ग स्वयं दलित क्यों ?
     धर्मं परिवर्तन का रास्ता इनके पास भी खुला था किन्तु तमाम तरह की 
उपेक्षाएँ सह कर भी यह वर्ग जिन्हें अपनी छाती से लगाकर बैठा रहा आज वो 
दलित कहते हैं ?आश्चर्य !!!
 
        छुआ छूत जैसी बातों का अभिप्राय यदि शुद्धि था तो जैसे घर के अन्य 
लोगों को नहाने धोने के लिए प्रेरित किया जाता है इस वर्ग को भी वे 
शास्त्रीय सिद्धांत समझाकर अपने साथ जोड़ा जाना चाहिए था।जैसे किसी परिवार 
में किसी एक सदस्य की उपेक्षा करके उस घर की  कुशलता की कामना नहीं की जा 
सकती उसी प्रकार किसी सामाजिक स्ववर्ग की उपेक्षा करके उस देश की कुशलता की कामना भी करनी नहीं  चाहिए । 
       जिन लोगों ने इन्हें अछूत 
घोषित किया था एवं जो लोग रोटी बेटी के कामों में इन्हें सहभागी नहीं बनाते
 थे। उस सवर्ण वर्ग की जन संख्या इन लोगों की अपेक्षा काफी कम थी। इन्हें 
अछूत घोषित करने वाले सवर्णों  को ही इन लोगों अछूत घोषित करके अपने  राजकाज अपने 
वर्ग में ही निपटा लेने  चाहिए थे। ऐसे किसी वर्ग के प्रति क्यों लालायित 
होना जिसके मन में अपने प्रति सम्मान न हो।आरक्षण से आर्थिक भरपाई की जा 
सकती है सम्मान की नहीं। आखिर आरक्षण सरकार कहाँ से देगी यदि असवर्णों को 
देना है तो सवर्णों के हिस्से से काटकर ही देना  स्वाभाविक  है।ऐसे किसी 
सहयोग को प्रतिभा के द्वारा अर्जित कैसे कहा जा सकता है और जो प्रतिभा के 
द्वारा अर्जित  नहीं है वह सम्मान या मनोबल  कैसे बढ़ा सकता है ?  
 अभी कुछ 
दिन पहले इसी वर्ग के किसी नेता का बयान मैंने पढ़ा कि अमुक पार्टी के 
युवराज दलितों के घर खाना खाते घूमते हैं वो किसी दलित लड़की से शादी करके 
दिखाएँ!
       
 मेरा मानना है कि गरीबत का मतलब यह नहीं है कि आपका या आपकी बेटी का कोई 
स्वाभिमान ही नहीं होना चाहिए। किसी को भी बेटी देने को तैयार हो जाना आखिर
 क्या दर्शाता  है?जैसे सवर्णों के सभी वर्ग आपस में एक दूसरे के यहाँ बेटी
 नहीं ब्याह देते ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्यों की कौन कहे सभी ब्राह्मण सभी ब्राह्मणों में ,इसी प्रकार क्षत्रिय सभी क्षत्रियों
 में एवं  वैश्य सभी वैश्यों को अपनी कन्याएँ नहीं ब्याह देते।सब ने अपने 
अपने कुछ नियम बना रखे हैं इसी प्रकार इस वर्ग में भी अपने बंशानुगत नियमों
 का पालन किया जाना चाहिए।कोई समझे तो समझे किंतु अपने को ही अपने मनमें   
नीच या छोटा समझ लेना ये अच्छी एवं स्वस्थ सोच नहीं हो सकती।अपने को अपने 
मनमें कभी गिरने नहीं देना चाहिए। 
      इसी 
प्रकार अन्ना के  जन लोक पाल बिल  के समय धरना स्थल पर ही कुछ तथाकथित 
नेता लोग आरक्षण का कटोरा लेकर पहुँच गए कि इसमें भी आरक्षण होना 
चाहिए।आखिर हर जगह अपने को ब्यर्थ में लज्जित क्यों करना ? 
    जैसे 
 सरकार से किसी कानून को लेकर अन्ना लड़ रहे थे, वह या वैसी और भी जनहित की 
लड़ाई कोई और भी लड़ सकता था।इस भ्रष्टाचार के युग में आखिर इस प्रकार के और 
भी तमाम मुद्दे हैं उनमें से कोई उठाकर उसे किसी जनांदोलन का रूप क्यों 
नहीं दिया जा सकता था ? पहले ही हिम्मत क्यों हार जाना कि मैं अकेले अपने 
बल पर कुछ करने लायक नहीं हूँ ।किसी भी सम्मानित जननेता को याचना शोभा नहीं
 देती वह आरक्षण की ही क्यों न हो ?और जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्हें 
जाति देखकर कभी समाज का सम्मान नहीं मिलता।महापुरुषों के परोपकारी कर्म ही 
उन्हें समाज का सहज समर्पण सुख दिलाते हैं ।अधिकांश लोगों को अन्ना की जाति
 का ही ज्ञान नहीं है कम से कम हमें तो नहीं ही है फिर भी देश हित में 
आन्दोलन समझ कर ही लोगों ने साथ दिया था उसमें केवल सवर्ण नहीं थे अपितु 
सारा देश समर्पित था।किसी मुद्दे पर जब सभी वर्ग साथ खड़े होते हैं तब न 
केवल अच्छा लगता है अपितु वह आन्दोलन भी सजीव हो उठता है और वह माँग 
भी पूरी  होती है।
     जहाँ
 तक दलित शब्द की बात है हमारी परंपरा में हम लोग हर जाति के लोगों को उनकी
 उम्र के अनुशार भैया,चाचा ,दादा आदि कहकर बुलाया करते थे । ऐसी 
स्थितियाँ लगभग हर गाँव में देखी जा सकती हैं ।यदि कुछ लोगों ने इस भावना के विरुद्ध 
कोई नई रेखा खींचने की कोशिश की है तो वह उसी तरह है जैसे माता पिता आदि 
निजी लोगों के सम्मान में भी अब संकट  की परिस्थिति पैदा हो गई है ।    
       आज 
सबका सब जगह खाना पीना होने के बाद भी यद्यपि इन सब बातों के बाब्जूद 
भारतीय समाज में जातीय बिषमताओं से इनकार नहीं किया जा सकता है किन्तु 
प्राचीन वांग्मय के  गहन चिंतन के बाद  जो सच्चाई सामने आती है वह इन दोनों
 से भिन्न है,और आज जाति के नाम पर जो कुछ चल रहा है वह न तो मनुस्मृति के 
पास है और न ही किसी और धर्मग्रंथ के पास  है ।यह तो केवल अपने अपने 
स्वार्थों के पास है।
 
     जहाँ तक जातियों का सवाल है किसी न किसी रूप में हर युग में जातियाँ 
रही हैं अभी भी हैं आगे भी रहेंगी। कर्मचारियों में चार जातियाँ हैं 
।आफिसों में बड़े बड़े अफसरों
 ने अपने बाथरूम तक अलग बना रखे हैं।अपने पिता की उम्र के चतुर्थ श्रेणी के
 कर्मचारियों को न केवल नाम लेकर बुलाते हैं अपितु निसंकोच उनसे अपनी जूठन 
साफ करवाते हैं ।उनके राजकाज भी बड़े अफसरों से संबंधित ही होते हैं वही लोग
 बुलाए जाते हैं और उन्हीं के यहाँ जाया जाता है।ऐसे ही राजनीति में मंत्री
 लोग मंत्रियों या और बराबरी के लोगों के कार्यक्रमों में ही जाते हैं ।इस 
प्रकार का विभाजन हर जगह दिखाई पड़ता है इसका मतलब यह कतई  नहीं है कि उन 
चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को दलित कहा जाएगा।अपनी अपनी शिक्षा 
परिस्थिति योग्यता के अनुसार हर कोई अपने आश्रितों का उदर पोषण कर रहा है ।
   जहाँ तक दलितों की बात है।  दलित शब्द का अर्थ क्या होता है ये जानने के लिएमैंनेशब्दकोश देखा जिसमें टुकड़ा,भाग,खंड,आदि अर्थ दलित शब्द के  किए गए हैं।मूल शब्द दल से दलित शब्द बना है।मैं कह सकता हूँ कि टुकड़ा,भाग,खंड,आदि शब्दों का प्रयोग कोई किसी मनुष्य के लिए क्यों करेगा?इसके बाद दल का दूसरा अर्थ समूह भी होता है।इस प्रकार दलित शब्द के टुकड़े,भाग,खंड,आदि और कितने भी अर्थ निकाले जाएँ  किंतु दलित शब्द का अर्थ दरिद्र या गरीब नहीं हो सकता है।ऐसी परिस्थिति में  दलितों की समस्या का समाधान आरक्षण से कैसे संभव है । 
 
 
     राजनैतिक
 साजिश के तहत यदि इस शब्द का अर्थ अशिक्षित,पीड़ित,दबा,कुचला आदि  करके ही 
कोई राजनैतिक लाभ लेना चाहे तो ले । बाकी सच्चाई इससे कोशों दूर है ।
      संस्कृत पाठशालाओं  में बच्चे पढ़ते हैं तो वहाँ के कर्ता
 धर्ता अक्सर छोटे छोटे बच्चों को बाबाओं की  वेषभूषा  में रखते हैं जिससे 
कोई दानी आता है तो उन बच्चों को दिखाकर भीख माँगने में सुविधा होती है। 
इसके बाद भी बेचारे बच्चों को तो रूखा सूखा भोजन भी मुश्किल में  मिलता है 
बाकी  तो अपने शौक शान पर ही खर्च होता है।आखिर    पाठशाला, 
गौशाला,चिकित्सालय,गरीबकन्याओंकीशादी,वृद्धाश्रम आदि  के नाम पर ही तो 
धार्मिक भीखें माँगी जाती हैं।धार्मिक कर्णधार ऐसी ही भीख के बलपर आज अरबों
 में खेल रहे  हैं  उद्योगों की तरह बड़ी बड़ी योगपीठें संचालित हैं।
      इसीप्रकार दलितों की सेवा के नाम पर कई दलित राजनेताओं तथा  कुछ अन्यजाति  के  राजनेताओं
 ने भी  स्विस बैंकों में अकूत धन भरा हुआ है कहाँ से आया है ये धन ?प्रायः
 गरीब से गरीब राजनेता कब अरब पति बन जाते हैं ये किसी को नहीं पता होता 
है। दलितों के नाम पर दलित वर्ग के ही कई    भाई बहनजी टाईप राजनेताओं ने  अरबों रुपये की प्रापर्टी विभिन्न शहरों में अपने  और अपनों के नाम  पर  खरीद रखी है उस समय किसी दलित की याद नहीं आई।अरबों रुपये अपनी मूर्तियाँ लगवाने में लगा देते हैं तब भी किसी दलित की याद नहीं आई। 
     जब किसी पार्क में बेचारे गरीबों की भीड़ लगाकर सवर्णों को गाली देने के लिए नुमाईस लगाने की बात
 आती है तब ये गरीब याद आते हैं। मैं तो कहता हूँ कि ऐसे किसी दलित भक्त को
 भीड़ में भाषण देते  देखकर सबसे पहले उसकी संपत्ति की जाँच होनी चाहिए कि 
उसके पास संपत्ति कितनी है और वह आई कहाँ से ? इसी से उसकी दलित भक्ति की  पोल खुल जाएगी।   संस्कृत पाठशालाओं  में पढ़ने वाले 
 छोटे छोटे बच्चों की तरह ही ये दलितों  के नाम पर भी धन का दुरूपयोग हो 
रहा है।मेरा मानना है कि दलितों के नाम पर इस प्रकार  की दुकानदारी बंद की 
जानी चाहिए ये देश हित  में नहीं है ।
 
         एक आदमी बीमार था उसे शुभचिन्तक लोग न केवल देखने आने लगे अपितु 
आर्थिक सहयोग भी करने लगे जितना वो कमा नहीं पाता था उससे ज्यादा ऐसे मिलने
 लगा। सारा परिवार उसकी लाचारी से बहुत खुश था।जब  वह ठीक हो गया तब भी घर 
के लोगों  ने उसे बीमारी के बहाने पड़ाये रखा।जब लोग पूछें कि कैसी तबियत है
 तो वो कहें कि हम लोग तो बीमार हैं।जब लोग कहें क्या हुआ तुम सबको ?तो वो 
कहें कि हम सब लोग तो सताए गए हैं किसने कब कैसे कहाँ और क्यों सताया
 है ये हमें पता नहीं है। ये बात समझ के बाहर थी फिर भी लोग दयाबश कुछ न 
कुछ दे जाते उससे कुछ दिन तो बहुत अच्छे कट गए किन्तु विकास की दौड़ में तो 
 पीछे होना ही था।बाद में वो लोग अपने को अशिक्षित,पीड़ित,दबा,कुचला आदि कहने लगे ।
 
        इस लिए हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि किसी भी प्रकार आरक्षण किसी 
भिक्षा से कम नहीं होता है और भिक्षुक  का कोई सम्मान नहीं  करता है। जिसका
 सामाजिक स्वाभिमान मर जाता है उसका मन  मर जाता  है।ऐसे लोग अपने जीवन के 
किसी विषय  का निर्णय समय से  नहीं  ले पाते  हैं सारे काम बिगड़ा करते हैं 
और अपने हर बिगाड़ के लिए ये हमेंशा दूसरे को ही जिम्मेदार ठहराते  हैं । 
ऐसा गैर जवाब देह व्यक्ति केवल अपने  लोगों द्वारा शोषित पीड़ित  होने के 
लिए ही बना होता है क्योंकि उन्हें इनकी कमजोरियाँ पता होती हैं।    
  मैंने चार विषय से 
एम.ए.किया,बी.एच.यू. से पी.एच.डी. भी की।किसी डिग्री कालेज में नौकरी मिल 
सकती थी किंतु सन् 1989-90 में चले आरक्षण आंदोलन में पूर्वजों पर लगे शोषण
 के आरोपों को मैं सह नहीं सका।मैं अक्सर तनाव में रहने लगा और एक ही बिचार
 मन में चलता रहा कि हमारे पूर्वजों ने आखिर किसी का शोषण क्यों किया?
    हमें आज तक इन बातों के 
जवाब नहीं मिले।मैंने एक व्रत लिया था कि इस निपटारे से पूर्व मैं किसी भी 
 
सरकारी सेवा के लिए कभी कोई आवेदन नहीं करूँगा।मुझे गर्व है कि ईश्वर कृपा 
से मैं आज तक व्रती हूँ । न ही मुझे 
जवाब मिले न ही मैंने नौकरी मॉगी।न केवल सरकारी प्राइवेट किसी कंपनी आदि 
में भी कभी कोई नौकरी के लिए साइन नहीं किए ।संघर्ष बहुत हैं बहुतों ने  
शिक्षा
 सहित मुझे अक्सर अपमानित किया है ।फिरभी सहनशीलता सबसे बड़ी मित्र है।जो  
देवताओं की कृपा एवं पूर्वजों के पुण्यों का प्रसाद है ।
     ये 
 बातें  मैं बड़ी जिम्मेदारी से कह रहा हूँ , आखिर सवर्ण कही जाने वाली 
जातियों में ही मेरा भी जन्म हुआ है, जिसमें मेरा कोई वश नहीं था।जन्म 
मृत्यु तो ईश्वर के आधीन हैं।इसमें कोई क्या कर सकता है?अपने 
जन्म,जीवन,जन्मभूमि पर हर किसी को गर्व करना ही चाहिए मैं करता भी हूँ । 
     ईश्वर ने जो कुछ भी किया है।उसे ईश्वर का उपहार समझकर 
स्वीकार किया है और उपहार में शिकायत कैसी ?मैं इतने जीवन में जगह जगह 
धक्के खाकर सारी दुर्दशाएँ  भोगकर यह बात विश्वास से कह सकता हूँ कि जाति 
का इस जीवन में आर्थिक और व्यवसायिक आदि किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं 
होता।जो कमाता है उसके पेट में जाता है उसकी जाति वालों को अकारण क्यों 
परेशान करना? जाति क्षेत्र समुदाय संप्रदाय की बातें तो कमजोर लोगों में ही
 कहते सुनते देखी जाती हैं ।बड़े आदमियों की जाति तो उनका अपना आर्थिक बड़ापन
 होता है, जिसके आगे वे अपने धनहीन घर खानदान के 
लोगों को पहचानने से मना कर देते हैं। ऐसे में जाति की चर्चा तो मूर्खता ही
 कही जाएगी जिसका कोई मतलब ही नहीं बचा है।
  जहाँ तक जातिगत आरक्षण की बात है यह भी भारतवर्ष को
 प्रतिभाविहीन बनाने का प्रयास है।सवर्णवर्ग के लोग यह सोच लेंगे कि क्यों 
पढ़ना आरक्षण के कारण नौकरी तो मिलनी नहीं है इसी प्रकार असवर्ण लोग भी सोच 
सकते हैं कि क्यों पढ़ना नौकरी तो मिलनी ही है।अंततः नुकसान तो देश का ही हो
 रहा है। ।
      अन्यथा
 आज असवर्ण कहे जाने वाले लोग सवर्णों को कोस रहे हैं कल सवर्ण कहे जाने 
वाले लोग अपनी दुर्दशा  के लिए असवर्णों को कोसेंगे।जहॉं तक राजनेताओं की 
बात है ये कल को सवर्णों को आरक्षण का एलान कर देंगे। इस प्रकार सवर्णों के
 मसीहा बनकर असवर्णों को गालियॉं देंगे।अपने को गरीबों का बेटा बेटी कह कर 
तीन तीन करोड़ का घाँघरा पहनकर घूँमेंगे।कितने शर्म की बात है?आज अरबों पति 
लोग अपने को दलित कहते हैं!क्या उनसे पूछा जा सकता 
है कि वे आखिर गरीबों का मजाक क्यों उड़ा रहे हैं?कौन सी ऐसी अदालत है जो इस
 प्रकार से अपमानित लोगों की दशा  पर भी दया पूर्वक बिचार करेगी?
      मैं पॉंच वर्ष का था जब मेरे पिता जी का देहांत हो गया था
 । मेरे भाई साहब सात वर्ष के थे मेरी माता जी घरेलू परिश्रमशील स्वाभिमानी
 महिला थीं।किसी संबंधी का कोई सहारा नहीं मिला उस अत्यंत संघर्ष पूर्ण समय
 में भी माँ के पवित्र आँचल में लिपट कर आनंद पूर्ण बचपन बिताया हम दोनों 
भाइयों ने।धन के अत्यंत अभाव में जो दुर्दशा होनी थी वह तो सहनशीलता से ही 
सहना संभव था न किसी से कोई शिकायत न शिकवा हर परिस्थिति में मैं अपने 
कर्मों और अपने भाग्य का ही दोष  देता हूँ  और किसी पर क्या बश ?कोई चाहे 
तो दो कदम साथ चल ले न चाहे तो अकेले का अकेला किसी से क्या आशा ?
      हमारे उस छोटे से परिवार ने भयंकर मुशीबत उठा कर मुझे
 पढ़ने बनारस भेजा।इसमें हमारे लिए अत्यंत आवश्यक संसाधन जुटाने में भाई जी 
की भी शिक्षा रुक गई थी माता जी के लिए भी बहुत  संघर्ष तो था  ही। 
    
 भूख पर लगाम लगाकर मैंने चार विषय से एम.ए.किया,बी.एच.यू. से पी.एच.डी. भी
 की।किसी डिग्री कालेज में नौकरी मिल सकती थी हमारे बहुत हमसे छोटे छात्र 
मित्र सरकारी नौकरियों में अच्छे अच्छे पदों पर हैं जो अक्सर हमारी 
परिश्रमशीलता एवं वैदुष्य की प्रशंसा करके हमें सुख 
पहुँचाते हैं जिनके लिए मैं हमेशा उनका आभारी हूँ ।कई बार अमीरों से 
अपमानित और आहत होने पर ऐसी प्रशंसाएँ बड़ा संबल बनती हैं बड़ा सहारा देती 
हैं।लगता है चलो किसी को पता तो है कि मैं भी सम्मान एवं आर्थिक विकास का 
अधिकारी  था ।  
     किंतु
 सन् 1989-90 में चले आरक्षण आंदोलन में पूर्वजों पर लगे शोषण के आरोपों को
 मैं सह नहीं सका।मैं अक्सर तनाव में रहने लगा और एक ही बिचार मन में चलता 
रहा कि हमारे पूर्वजों ने आखिर किसी का शोषण क्यों किया? पचासों विद्वानों 
शिक्षाविदों से मिला उनसे हमारे बस इतने ही प्रश्न  होते थे।
1.  हमारे पूर्वजों ने किसी का शोषण  क्यों किया?
2.वह शोषण का धन गया कहॉं आखिर हमें इतनासंघर्ष  क्यों करना पड़ा?  
3. संख्या बल में सवर्णों से अधिक होने पर भी असवर्णों  के पूर्वजों ने शोषण सहा क्यों?
4.  सजा अपराधी को दी जाती है उसके परिजनों को नहीं पूर्वजों का यदि कोई अपराध हो ही तो उसका दंड हमें  क्यों?
5. यदि अपराध की आशंका है ही तो अपराध के प्रकार की जॉंच 
होनी चाहिए और हम लोगों की तलाशी  की जानी चाहिए और जातीय ज्यादती के 
द्वारा प्राप्त ऐसा कोई धन यदि प्रमाणित हो जाए तो जब्त किया जाना चाहिए। इस प्रकार से सवर्ण वर्ग का  शुद्धिकरण
 करके ये फाँस हमेंशा के लिए समाप्त कर देनी चाहिए।आखिर कितनी पीढ़ियॉं और 
शहीद की जाएँगी इस तथाकथित शोषण पर?कब तक ढोया जाएगा इस शोषण कथा को?आखिर 
शोषण का आरोप सहते सहते और कितने लोगों की बलि ली जाएगी ?  
    हमें आज तक इन बातों के जवाब नहीं मिले।मैंने एक व्रत 
लिया था कि इस निपटारे से पूर्व मैं किसी सरकारी सेवा के लिए कोई आवेदन 
नहीं करूँगा मैं आज तक व्रती हूँ।न मुझे जवाब मिले न ही मैंने नौकरी माँगी।
     स्वजनों
 अर्थात तथा कथित सवर्णों ने हमारा और हमारी शिक्षा का शोषण करने में कोई 
कोर कसर नहीं छोड़ी।किसी को किताबें लिखानी थीं किसी को मैग्जीन,किसी ने देश
 सेवा की दुहाई दी किसी ने हमारे और हमारे परिवार के भविष्य सुधारने का 
लालच दिया।कुछ लोगों ने बड़े लालच देकर बड़े बड़े काम लिए दस बारह घंटे दैनिक 
परिश्रम के बाद वर्षोँ तक सौ दो सौ रुपए मजदूरों की भाँति देते रहे एक आध 
ने तो यह लालच देकर काम लिया कि हम तुम्हें एक स्कूल खोल कर दे देंगे 
उसको परिश्रम पूर्वक चला लेना जिससे तुम्हारा जीवन यापन हो जाएगा किंतु काम
 निकलने के बाद में उन्होंने भी मुख फेर लिया यह कैसे और किसको किसको कहें 
कि वे बेईमान हो गए आखिर शिक्षा से जुड़ा हूँ , मर्यादा तो ढोनी ही है।पेट 
और परिवार का पालन करना है
       आज क्या मुझे मान लेना चाहिए कि ब्राहमण या सवर्ण था इसलिए ऐसे लोग 
 हम पर इस प्रकार की कृपा करते रहे।सरकारी नौकरी न माँगने का व्रत है तो 
जीवन ढोने के लिए किसी पर विश्वास तो करना ही पड़ेगा।अनुभव लेते लेते जीवन 
गुजरा जा रहा है।  
     किसी और की अपेक्षा अपने जीवन को मैंने इसलिए उद्धृत 
किया है कि गरीब सवर्णों को भी अमीरों के शोषण का उतना ही शिकार होना 
पड़ता है जितना किसी और को वह अमीर किसी भी जाति,समुदाय, संप्रदाय आदि का क्यों न हो।अमीर केवल
 अमीर होता है इसके अलावा कुछ नहीं ।यह हमारे अपने अनुभव का सच है मेरा 
किसी से ऐसा आग्रह भी नहीं है कि वो मुझसे या मेरी बातों से सहमत ही हो।
     
राजेश्वरी प्राच्यविद्या शोध  संस्थान की अपील 
   यदि
 किसी को
 केवल रामायण ही नहीं अपितु ज्योतिष वास्तु धर्मशास्त्र आदि समस्त भारतीय  
प्राचीन 
विद्याओं सहित  शास्त्र के किसी भी  पक्ष पर संदेह या शंका हो या कोई 
जानकारी  लेना चाह रहे हों।शास्त्रीय विषय में यदि किसी प्रकार के सामाजिक 
भ्रम के शिकार हों तो हमारा संस्थान आपके प्रश्नों का स्वागत करता है ।
     यदि ऐसे किसी भी प्रश्न का आप
 शास्त्र प्रमाणित उत्तर जानना चाहते हों या हमारे विचारों से सहमत हों या 
धार्मिक जगत से अंध विश्वास हटाना चाहते हों या राजनैतिक जगत से धार्मिक 
अंध विश्वास हटाना चाहते हों तथा धार्मिक अपराधों से मुक्त भारत बनाने एवं 
स्वस्थ समाज बनाने के लिए  
हमारे राजेश्वरीप्राच्यविद्याशोध संस्थान के 
कार्यक्रमों में सहभागी बनना चाहते हों तो हमारा संस्थान आपके 
सभी शास्त्रीय प्रश्नोंका स्वागत करता है एवं आपका  तन , मन, धन आदि सभी 
प्रकार से संस्थान के साथ जुड़ने का आह्वान करता है। 
       सामान्य रूप से जिसके लिए हमारे संस्थान की सदस्यता लेने का प्रावधान  है। 
 
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