एक  ब्राह्मण की पीड़ा! 
     ईश्वर ने जो कुछ भी किया है।उसे ईश्वर का उपहार समझकर 
स्वीकार किया है और उपहार में शिकायत कैसी ?मैं इतने जीवन में जगह जगह 
धक्के खाकर सारी दुर्दशाएँ  भोगकर यह बात विश्वास से कह सकता हूँ कि जाति 
का इस जीवन में आर्थिक और व्यवसायिक आदि किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं 
होता।जो कमाता है उसके पेट में जाता है उसकी समस्त जाति वालों को अकारण ही आरक्षण  के नाम पर क्यों 
प्रताड़ित या परेशान करना? जाति क्षेत्र समुदाय संप्रदाय की बातें तो कमजोर लोगों में ही
 कहते सुनते देखी जाती हैं ।बड़े आदमियों की जाति तो उनका अपना आर्थिक बड़ापन
 होता है, जिसके आगे वे अपने धनहीन घर खानदान के 
लोगों को पहचानने से मना कर देते हैं। ऐसे में जाति की चर्चा तो मूर्खता ही
 कही जाएगी जिसका कोई मतलब ही नहीं बचा है।
  
मैंने चार विषय से 
एम.ए.किया,बी.एच.यू. से पी.एच.डी. भी की।किसी डिग्री कालेज में नौकरी मिल 
सकती थी किंतु सन् 1989-90 में चले आरक्षण आंदोलन में पूर्वजों पर लगे शोषण
 के आरोपों को मैं सह नहीं सका।मैं अक्सर तनाव में रहने लगा और एक ही बिचार
 मन में चलता रहा कि हमारे पूर्वजों ने आखिर किसी का शोषण क्यों किया?
    हमें आज तक इन बातों के 
जवाब नहीं मिले।मैंने एक व्रत लिया था कि इस निपटारे से पूर्व मैं किसी भी  
सरकारी सेवा के लिए कभी कोई आवेदन नहीं करूँगा।मुझे गर्व है कि ईश्वर कृपा से मैं आज तक व्रती हूँ । न ही मुझे 
जवाब मिले न ही मैंने नौकरी मॉगी।न केवल सरकारी प्राइवेट किसी कंपनी आदि में भी कभी कोई नौकरी के लिए साइन नहीं किए ।संघर्ष बहुत हैं बहुतों ने  शिक्षा
 सहित मुझे अक्सर अपमानित किया है,फिर भी सहनशीलता सबसे बड़ी मित्र है।जो  
देवताओं की कृपा एवं पूर्वजों के पुण्यों का प्रसाद है ।
     ये 
 बातें  मैं बड़ी जिम्मेदारी से कह रहा हूँ , आखिर सवर्ण कही जाने वाली 
जातियों में ही मेरा भी जन्म हुआ है, जिसमें मेरा कोई वश नहीं था।जन्म 
मृत्यु तो ईश्वर के आधीन हैं।इसमें कोई क्या कर सकता है?अपने 
जन्म,जीवन,जन्मभूमि पर हर किसी को गर्व करना ही चाहिए मैं करता भी हूँ ।
  जहाँ तक जातिगत आरक्षण की बात है यह भी भारतवर्ष को
 प्रतिभाविहीन बनाने का प्रयास है।सवर्णवर्ग के लोग यह सोच लेंगे कि क्यों 
पढ़ना आरक्षण के कारण नौकरी तो मिलनी नहीं है। इसी प्रकार असवर्ण लोग भी सोच 
सकते हैं कि क्यों पढ़ना नौकरी तो मिलनी ही है।ईमानदारी से काम क्यों करना प्रमोशन तो मिलना ही है।  अंततः नुकसान तो देश का ही हो
 रहा है। वैसे भी समृद्ध देश की संकल्पना में सभी भेद भावों से ऊपर उठकर 
गरीब और पठनशील लोगों को स्वतंत्र शैक्षणिक सहयोग मिलना चाहिए।इससे हर वर्ग
 के विद्यार्थी अपना जीवन सुधारने का प्रयास तो कम से कम कर ही सकते हैं 
परिणाम तो ईश्वर के ही हाथ है।समान व्यवस्था प्राप्त करके भी दुर्भाग्य से 
यदि कोई असफल हुआ ही तो वह इसके लिए किसी और को नहीं कोसेगा।यह उसकी अपनी 
लापरवाही मानी जाएगी।
      अन्यथा
 आज असवर्ण कहे जाने वाले लोग सवर्णों को कोस रहे हैं कल सवर्ण कहे जाने 
वाले लोग अपनी दुर्दशा  के लिए असवर्णों को कोसेंगे।जहॉं तक राजनेताओं की 
बात है ये कल को सवर्णों को आरक्षण का एलान कर देंगे। इस प्रकार सवर्णों के
 मसीहा बनकर असवर्णों को गालियॉं देंगे।अपने को गरीबों का बेटा बेटी कह कर 
तीन तीन करोड़ का घाँघरा पहनकर घूँमेंगे।कितने शर्म की बात है?आज अरबों पति 
लोग अपने को दलित कहते हैं!क्या उनसे पूछा जा सकता 
है कि वे आखिर गरीबों का मजाक क्यों उड़ा रहे हैं?कौन सी ऐसी अदालत है जो इस
 प्रकार से अपमानित लोगों की दशा  पर भी दया पूर्वक बिचार करेगी?
      मैं पॉंच वर्ष का था जब मेरे पिता जी का देहांत हो गया था
 । मेरे भाई साहब सात वर्ष के थे मेरी माता जी घरेलू परिश्रमशील स्वाभिमानी
 महिला थीं।किसी संबंधी का कोई सहारा नहीं मिला उस अत्यंत संघर्ष पूर्ण समय
 में भी माँ के पवित्र आँचल में लिपट कर आनंद पूर्ण बचपन बिताया हम दोनों 
भाइयों ने।धन के अत्यंत अभाव में जो दुर्दशा होनी थी वह तो सहनशीलता से ही 
सहना संभव था न किसी से कोई शिकायत न शिकवा हर परिस्थिति में मैं अपने 
कर्मों और अपने भाग्य का ही दोष  देता हूँ  और किसी पर क्या बश ?कोई चाहे 
तो दो कदम साथ चल ले न चाहे तो अकेले का अकेला किसी से क्या आशा ?
      हमारे उस छोटे से परिवार ने भयंकर मुशीबत उठा कर मुझे
 पढ़ने बनारस भेजा।इसमें हमारे लिए अत्यंत आवश्यक संसाधन जुटाने में भाई जी 
की भी शिक्षा रुक गई थी माता जी के लिए भी बहुत  संघर्ष तो था  ही। 
    
 भूख पर लगाम लगाकर मैंने चार विषय से एम.ए.किया,बी.एच.यू. से पी.एच.डी. भी
 की।किसी डिग्री कालेज में नौकरी मिल सकती थी।हमसे छोटे हमारे बहुत  छात्र 
मित्र सरकारी नौकरियों में अच्छे अच्छे पदों पर हैं जो अक्सर हमारी 
परिश्रमशीलता एवं वैदुष्य की प्रशंसा करके हमें सुख 
पहुँचाते हैं जिनके लिए मैं हमेशा उनका आभारी हूँ ।कई बार अमीरों से 
अपमानित और आहत होने पर ऐसी प्रशंसाएँ बड़ा संबल बनती हैं बड़ा सहारा देती हैं।लगता है चलो किसी को पता तो है कि मैं भी सम्मान एवं आर्थिक विकास का अधिकारी  था ।  
     किंतु
 सन् 1989-90 में चले आरक्षण आंदोलन में पूर्वजों पर लगे शोषण के आरोपों को
 मैं सह नहीं सका।मैं अक्सर तनाव में रहने लगा और एक ही बिचार मन में चलता 
रहा कि हमारे पूर्वजों ने आखिर किसी का शोषण क्यों किया? पचासों विद्वानों 
शिक्षाविदों से मिला उनसे हमारे बस इतने ही प्रश्न  होते थे।
1.  हमारे पूर्वजों ने किसी का शोषण  क्यों किया?
2.वह शोषण का धन गया कहॉं आखिर हमें इतनासंघर्ष  क्यों करना पड़ा?  
3. संख्या बल में सवर्णों से अधिक होने पर भी असवर्णों  के पूर्वजों ने शोषण सहा क्यों?
4.  सजा अपराधी को दी जाती है उसके परिजनों को नहीं पूर्वजों का यदि कोई अपराध हो ही तो उसका दंड हमें  क्यों?
5. यदि अपराध की आशंका है ही तो अपराध के प्रकार की जॉंच 
होनी चाहिए और हम लोगों की तलाशी  की जानी चाहिए और जातीय ज्यादती के 
द्वारा प्राप्त ऐसा कोई धन यदि प्रमाणित हो जाए तो जब्त किया जाना चाहिए। इस प्रकार से सवर्ण वर्ग का  शुद्धिकरण करके ये फाँस हमेंशा के लिए समाप्त कर देनी चाहिए।आखिर कितनी पीढ़ियॉं और शहीद की जाएँगी इस तथाकथित शोषण पर?कब तक ढोया जाएगा इस शोषण कथा को?आखिर शोषण का आरोप सहते सहते और कितने लोगों की बलि ली जाएगी ?  
    हमें आज तक इन बातों के जवाब नहीं मिले।मैंने एक व्रत 
लिया था कि इस निपटारे से पूर्व मैं किसी सरकारी सेवा के लिए कोई आवेदन 
नहीं करूँगा मैं आज तक व्रती हूँ।न मुझे जवाब मिले न ही मैंने नौकरी माँगी।
     स्वजनों
 अर्थात तथा कथित सवर्णों ने हमारा और हमारी शिक्षा का शोषण करने में कोई 
कोर कसर नहीं छोड़ी।किसी को किताबें लिखानी थीं किसी को मैग्जीन,किसी ने देश सेवा की दुहाई दी किसी ने हमारे और हमारे परिवार के भविष्य सुधारने का लालच दिया।कुछ लोगों ने बड़े लालच देकर बड़े बड़े काम लिए दस बारह घंटे दैनिक परिश्रम के बाद वर्षोँ तक सौ दो सौ रुपए मजदूरों की भाँति देते रहे एक आध ने तो यह लालच देकर काम लिया कि हम तुम्हें एक स्कूल खोल कर दे देंगे उसको परिश्रम पूर्वक चला लेना जिससे तुम्हारा जीवन यापन हो जाएगा किंतु काम निकलने के बाद में उन्होंने भी मुख फेर लिया यह कैसे और किसको किसको कहें कि वे बेईमान हो गए आखिर शिक्षा से जुड़ा हूँ , मर्यादा तो ढोनी ही है।पेट और परिवार का पालन भी  करना है
       आज क्या मुझे मान लेना चाहिए कि ब्राहमण या सवर्ण था इसलिए ऐसे लोग  हम पर इस प्रकार की कृपा करते रहे।सरकारी नौकरी न माँगने का व्रत है तो जीवन ढोने के लिए किसी पर विश्वास तो करना ही पड़ेगा।अनुभव लेते लेते जीवन गुजरा जा रहा है।  
     किसी और की अपेक्षा अपने जीवन को 
मैंने इसलिए उद्धृत किया है कि गरीब सवर्णों को भी अमीरों के शोषण का उतना 
ही शिकार होना पड़ता है जितना किसी और को वह अमीर किसी भी जाति,समुदाय, संप्रदाय आदि का क्यों न हो।अमीर केवल
 अमीर होता है इसके अलावा कुछ नहीं ।यह हमारे अपने अनुभव का सच है मेरा 
किसी से ऐसा आग्रह भी नहीं है कि वो मुझसे या मेरी बातों से सहमत ही हो। 
 
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