Wednesday, December 12, 2012

लापरवाहों की समाज में सरकारी कर्मचारियों से उम्मींद क्यों ?

सरकारी जवाब देही कितनी ?

  


  सरकारी नौकरी में वहॉं तो कुर्सी पर बैठने के पैसे होते हैं। वो विरले ही ईमानदार कर्मचारी होते हैं जो समय से अपनी कुर्सी पर बैठे मिलते हैं,जो मिल गए वो आपसे बात कर ही लेंगे ऐसा आप कैसे सोच सकते हैं।आपके काम के लिए अक्सर वो उन कर्मचारियों के पास आपको भेज देंगे जो उस दिन छुट्टी पर होंगे तब क्या करेंगे आप?

     इन सबके बाद एक बड़ा वर्ग ईमानदार अधिकारियों कर्मचारियों का भी होता है जो कुछ जगहों पर काम कर नहीं पाता है कुछ जगह करने नहीं दिया जाता है राजनैतिक दबाव इतना अधिक होता है।कई जगह सहकर्मियों के असहयोग  के कारण ईमानदार वर्ग स्वधर्म पालन में पूर्णतया सफल नहीं हो पाता है फिरभी  कुछ लोगों ने अपने अपने विभागों में ईमानदार आदर्श उपस्थित करने के लिए सारी ताकत झोंक रखी है।उन्हें आज भी लोग सम्मान पूर्वक याद करते हैं।चूँकि ईमानदार वर्ग दूसरे वर्ग की अपेक्षा कम प्रचारित है इसलिए अधिकांश समाज का जिनसे सामना होता है वो लोग ईमानदारी  जैसी चीजों पर कम विश्वास करने वाले होते हैं। उन्हीं के वैभव को देखकर आम जनता को  सरकारी नौकरी में मलाई ही मलाई दिखती है।  

      आम जनता  सरकारी नौकरी के सुखों के विषय में सोचती है कि पहली बात तो वहॉं कुछ करना नहीं होता है यदि कुछ करना पड़ा तो केवल खानापूर्ति के लिए बस ,ऐसे में पूरा काम तो समिट नहीं पाता है इसीलिए सरकारी कार्यालयों में अक्सर कर्मचारियों की सार्टेज रहती है। बहुत कम लोग काम करने वाले होते हैं जो ईमानदारी से काम करना भी चाहते हैं वे बहुत कम संख्या में होने के कारण अलग थलग पड़ जाते हैं। और उन्हें अपनी ईच्छा छोड़नी पड़ती है। 

   वर्तमान समय में सरकारी कार्यालयों की हालत यह है कि  किस काम को करवाने के लिए कहाँ किसे  कितने कितने पैसे देने होंगे यह दलालों से लेकर व्यापारियों तक को पता होता है।सच्चाई यह है कि  कुर्सी के हिसाब से हर चेहरे पर कीमत लिखी होती है कौन कितने में बिकेगा?ये दलाल टाइप के लोगों को पता होता है उनकी दृष्टि में वह उनका घोषित मूल्य होता है।इसीलिए वो किसी काम में सभी के पैसों का हिसाब लगाकर साथ में अपना प्राफिट जोड़कर पैसे बता देते हैं की इस काम में कितना लगेगा ? यदि निश्चित न हो तो उन्हें कैसे पता होता है?

     किस आफिस में कौन पैसे बताएगा,कौन पेसे लेगा कितना किसको हिस्सा मिलेगा,किस अँधेले वाले कमरे में पैसे कैसे लिए जाएँगे आदि सब कुछ निश्चित होता है कोई भी ऐसा एमाउंट आने पर इशारों में सारा काम हो जाता है।उस समय कर्मचारियों की कंप्यूटरों पर  तेजी से नाच रही अँगुलियॉं साबित कर रही होती हैं कि ये बाहरी एनर्जी से संचालित हो रही हैं।वैसे भी सरकारी पैसे में इतनी एनर्जी कहाँ होती है?सैलरी का हिसाब घरवालों के पास होता ही है उससे वो खुश  क्यों होंगे?घर वालों को खुश  करने के लिए ये सब करना पड़ता है। ये सब बातें आम समाज में व्याप्त हैं।

    सरकारी कर्मचारी भी इससे सहमत लगते हैं वो भी नहीं करते हैं भरोस सरकारी कर्मचारियों के कामों पर!सरकारी विद्यालयों के अध्यापक नहीं पढ़ाते अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में। इसी प्रकार सरकारी चिकित्सालयों में सरकारी लोग भी इलाज करवाने से डरते हैं। इसी लापरवाही के कारण सरकारी डाक व्यवस्था को आज कोरियर ने मात दे रखी है वहॉं किताबों आदि के बंडल भेजने हों तो डाक खर्च के अलावा प्रति बंडल  बुक कराई अलग से जब तक तय

नहीं हो जाती है तब तक वो उसमें इतनी कमी निकालते हैं कि आदमी या तो पैसे दे या सामान वापस ले जाए। दोनों ही परिथितियों में डाक कर्मचारी का क्या नुक्सान? पोस्टमैन की हालत यह है कि होली मॉगता है दिवाली मॉंगता है।चेकबुक  या मनीआर्डर लावे तब माँगता है,  और यदि उन्हें एक बार पैसे देने से मना करो तो आपकी चेक बुक दरवाजे पर पड़ी मिलेगी गंदी संदी,पत्र दरवाजे पर डाल जाएगा 

     पुलिस विभाग की यह स्थिति है कि वहॉं की हर कुर्सी हमेशा उपजाऊ होती है। जब जरूरत हो तब जहॉं हो तहॉं जैसे हो तैसे जितना हो तितना माल उपलब्ध है।इस मामले में वहॉं तो पॉंचों अँगुलियाँ हमेशा घी में रहती हैं। जब तब जहॉ कहीं यदि ईमानदार अधिकारी कर्मचारी आ भी गए तो इस बिगड़े हुए सिस्टम में उनका स्वतंत्र काम कर पाना बहुत मुश्किल होता है। थाना शिवराजपुर कानपुर की बात सन् 1998 की है।कुछ उपद्रवियों ने हमारे अग्रज पर हॉकी से हमला किया जिस प्रहार से शिर में गंभीर चोट आई थी  बाद में सोलह टॉंके लगे थे।दिनभर खून बहता रहा था किंतु ड्रेसिंग तक नहीं कराने दी गई थी। वस्तुतः उपद्रवियों ने थाने में दस हजार रुपए दिए थे तो दरोगा जी ने मुझे बुलाकर कहा कि यदि आप पंद्रह हजार रुपए दे सकते हो तो बताओ मैंने उनसे कहा कि हमला भी हम पर हुआ चोट भी हमें लगी इलाज कराना तो दूर की बात है पैसे भी हम्हीं से मॉंग रहे हो? उन्होंने कहा यदि नहीं देना चाहते हो तो हम झगड़ा दिखाकर दोनों को बंद कर देंगे।मैंने कहा ऐसा कैसे करोगे आखिर हमला हम पर हुआ है किंतु उन्होंने कहा कि हम हरिश्चंद नहीं हैं। पुलिस की नौकरी चौबीसों घंटे की होती है।सरकार हमें केवल दिन दिन की सैलरी देती है रात की सैलरी तो समाज से ही लेनी पड़ती है।खैर जो भी हो उन्होंने हम दोनों को बंद कर दिया रात भर दर्द के पीछे बुरा हाल ऊपर से समझौते के लिए पुलिस का दबाव कि यदि ऐसा नहीं करोगे तो ये दुबारा हमला करेंगे तो यहॉं मत आना।हमारी भी थीसिस जमा करने का समय था हमें भी बी.एच.यू. पहुँचना था।भाई साहब गॉंव में अकेले थे बहुत कुछ आगे पीछे सोचकर समझौता करना पड़ा। भाई साहब की चोट की भी चिंता थी न जाने क्या हो।खैर ईश्वर  ने मदद की दवा हुई वो धीरे धीरे ठीक हुए।कुल मिलाकर हमारे लिए तो वो पुलिस के लोग ही नक्सली और आतंकवादियों से अधिक सिद्ध हुए।तब आज तक किसी परेशानी में कभी पुलिस की याद कभी नहीं आती है। उनकी शिकायत कहॉं कही जाए कौन सुनेगा?आज भी अक्सर इस तरह की घटनाएँ  सुनाई पड़ती हैं।स्वच्छ प्रशासन के नाम पर जनता को क्या क्या नहीं सहना पड़ता है।                   
      इस प्रकार से सरकारी कर्मचारियों की कौन कहे स्वयं सरकारों के अक्सर परस्पर विरोधी,गैरजिम्मेदारी के आचरण देखने को मिलते हैं, जिससे जनता का विश्वास टूटना स्वाभाविक है।आज सरकार एवं सरकारी कर्मचारियों से जनता का टूटता विश्वास लोकतंत्र के लिए गंभीर चिंता की बात है। अपनों की अपनों को ठगने की ललक ने लोगों का कितना पतन किया है?
    विशेष कर बिजली पानी आदि किसी भी वस्तु के दाम बढ़ाने के समय आम जनता को पता होता है कि पहले ज्यादा बढ़ोत्तरी की जाएगी फिर कुछ कम कर दिए जाएँगे और हर बार किया भी ऐसा ही जाता है आखिर क्यों? अपनी जनता को जलील करके बार बार महॅंगाई थोपना कहॉं तक उचित है।कोई निर्णय एक बार सोच बिचार कर क्यों नहीं लिया जाता।  जितने अच्छे अच्छे पढ़े लिखे  लोग सरकारों में हैं वो किसी योजना के लागू होने से पूर्व भविष्य  में घटित होने वाले  उसके संभावित परिणामों का अध्ययन अच्छी तरह क्यों नहीं कर लेते हैं,या किसी और से करा लिया जाता है?आखिर सैलरी के रूप में इतनी मोटी मोटी धनराशि देकर नियुक्त किए जा रहे कर्मचारी या आफीसर देश के और किस काम आएँगे? आखिर क्यों होती है ऐसी लापरवाही?अस्थिरता का माहौल बना हुआ है,हर चीज में छिछलापन एक तो जनता महॅगाई से मरे उसमें भी सरकारी खिलवाड़!

       पहले गैस सिलेंडर साल में छै देने की बात कहकर देश वासियों को अचानक तनाव में डाल दिया गया सुना है अब सरकार कृपा पूर्वक नौ सिलडर करने वाली है इसी प्रकार डीजल आदि हर चीज में जनता के साथ ऐसे ही खेला जाता है।
       हर योजना में ऐसी लापरवाही दिखाई पड़ती है।मोबाइल टावर पहले जब लग रहे थे तब इनके प्रभाव का अध्ययन करके आगे बढ़ा जाता तो शायद ज्यादा सुखप्रद होता किंतु ऐसा नहीं हुआ।आज अक्सर सुनने को मिलता है कि इसके आसपास रहने वालों कों कैंसर आदि बड़ी बीमारियों का खतरा होता है।अब क्या करे आम आदमी?आखिर वह परेशान है।पड़ोसी ने किराए के लालच से अपनी छत पर टावर लगा रखा है आसपास वाले लोगों की नींद हराम है।कई जगह फ्लैट सिस्टम में बिल्डर से छत किसी और ने लेकर टावर लगवाया हुआ है वो रहता कहीं और है किराया वो लेता है वहॉं रहने वाले लोगों की नींद हराम है।क्या किया जाए?कहीं कम्प्लेन करो तो वो कहते हैं पहले मुकदमा करो उसका खर्चा आम आदमी फोकट में क्यों करे? और टावर वाले से दुश्मनी अलग से?टावर वाले की चूँकि कमाई है इसलिए उसे मुकदमें का खर्च समझ में नहीं आता।इस महॅगाई में आम आदमी क्या करे?
      यदि ये टावर इतने खतरनाक हैं तो पहले ही अध्ययन होना चहिए था जहॉं लापवाही से इनकार कैसे किया जा सकता है?यदि अब भी पता लग गया है तो अब सरकार का दायित्व है कि बिना बिलंब किए इन्हें सरकार स्वयं हटवा दे। आखिर कब होगा यह सब, किस प्रतीक्षा में है सरकार?
      अक्सर अवैध मकान तोड़े जाते सुने जा सकते हैं किंतु जिन जिम्मेदार अधिकारियों के सहयोग या उनकी लापरवाही से ऐसे उन अवैध मकानों का निर्माण हुआ था क्या उनपर कोई कठोर कार्य वाही नहीं की जानी चाहिए?किंतु सरकार यदि इस गोरख धंधे से अलग हो तब ऐसी अपेक्षा की जानी चाहिए। कैसे कैसे निर्माणों में किसको कितनी घूस जानी है यह निश्चित है। ऐसे लगने वाले आरोपों पर पहले मैं विश्वास  नहीं करता था अब होने लगा है।
    इसी प्रकार पोलीथीन का प्रचलन अचानक दस बीस सालों में बढ़ा धीरे धीरे लोग आलसी हो गए।दूध, तेल, चाय जैसी चीजें भी इसी में मिलने लगीं।सुना है अब इन्हें लेकर चलना अपराध की श्रेणी में माना जाएगा किंतु ऐसा अपराध जो अभी तक हुआ उसके लिए जिम्मेदार आखिर कौन है? क्या सरकार की समझदारी की कमी में भी जनता को ही दोषी माना जाएगा?
    इसी प्रकार नशीले पदार्थों के विषय में चूहे बिल्ली का खेल चल रहा है।अक्सर शराब के सेवन से लोगों को मरते या उनका लीवर खराब होते सुना जा सकता है।आखिर ऐसी नशीली चीजों के प्रतिबंध पर भी क्या कोई जिम्मेदारी से बिचार करेगा?
     रेलगाड़ियों में टी.टी.रिजर्वेशन की सीटें तक जनरल टिकिट वालों को बेच देते हैं और रिजर्व सीट वालों को सहयोग करने की सलाह दे रहे होते हैं।बाथरूम तक में यात्री भरे होते हैं सारी गैलरी में जाम लगा होता है। आखिर कौन है जिम्मेदार ?
     नगरों महानगरों में रेड़ी या पटरियों पर छोटी मोटी दुकान चलाने वालों को भी महीना देना होता है वहॉं के जिम्मेदार सरकारी कर्मचारियों का  महीना बॅंधा होता है। 
      रोड पर चलने वाले वाहन विशेष कर व्यवसायिक वाहनों को संबंधित कर्म चारियों से महीना बॉंध कर रखना होता है अन्यथा सब कागज ठीक हों तो भी वो रोड पर कैसे चल पाएगा? 

  इस प्रकार जिस सरकारी नौकरी में चारों तरफ मलाई ही मलाई हो तो किसकी लार नहीं टपकेगी अर्थात कौन नहीं चाहेगा सरकारी नौकरी?ऐसे लड़कों  की शादियाँ भी आसानी से हो जाती हैं। वस्तुतः ऊपरी आमदनी का रौब ही अलग होता है।ऐसे लोगों की सैलरी से अधिक ऊपरी आमदनी चर्चा में रहती है।

     प्राइवेट नौकरी में भी जब मालिक बेईमान,भ्रष्ट या आलसी अथवा  अदूरदर्शी हो तो ऐसे लोगों के नौकर भी खुश रहते हैं क्योंकि उन पर काम का कभी दबाव नहीं रहता है और वो हमेंशा मालिक पर भारी रहते हैं।ईमानदार मालिक ही अपने कर्मचारियों पर शक्ति कर सकता है क्योंकि उसकी कोई पोल ही नहीं होती है जिसे खुलने का भय हो।इसलिए ईमानदार सरकार को निर्भीक होकर अपने कर्मचारियों पर दबाव बनाकर बिना घूस लिए  काम करने करवाने की पवित्र परंपरा डालनी  चाहिए। न केवल इतना अपितु सभी प्रकार की मनमानी रोकी जानी चाहिए।चूँकि पैसे के आभाव में आम आदमी बहुत परेशानी पूर्ण जीवन जी रहा है इसका एहसास हरकिसी को होना चाहिए,जिसके दोनों समय का भोजन भी निश्चित नहीं होता उस आम आदमी के विषय में  सरकारी कर्मचारी भी सोचे कि उसकी सैलरी में दिया जाने वाला धन आम आदमी के द्वारा ही कमाया हुआ होता है।उसी से काम करने के बदले घूस माँगना अत्यंत शर्मसार कर देने वाला कुकृत्य है।

       इस प्रकार ईमानदारी से परिश्रम पूर्वक काम करने की बाध्यता होने पर सरकारी नौकरी से लगाव घटना संभव है, स्वाभाविक  कि जिसे परिश्रम पूर्वक

काम करके ही पैसे कमाने हैं उसे क्या सरकारी क्या प्राइवेट ?

         

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