क्या है दयानन्द जी का अंधविश्वास ?
हमारा परिचित एक अति
प्रतिष्ठित परिवार था। उसके मुखिया का समाज में अच्छा खासा सम्मान
था।संयोगवश उस घर के मालिक का देहान्त हो गया, फिर शुरू हुआ उस परिवार के
दुर्भाग्य का दौर।गॉंव गली के सामान्य लोग भी घर आकर उस मुखिया की पत्नी को
अपशब्द बोल कर जाने लगे। मुखिया के जाने के बाद कई लोग तो मुखिया की भी
अनेकों प्रकार से निंदा करने लगे।उन पर असह्य आरोप लगाने लगे।उनकी पत्नी
ऐसे आरोप सहने की स्थिति में नहीं थी किंतु विरोध कितना और कैसे कर पाती ?
फिर भी जो क्षमता थी उससे वो अपने पति का पक्ष लेते हुए जितना भी संभव था
उनका बचाव करने के लिए संघर्ष करती रहीं ।
कुल मिलाकर उस परिवार के हालात अच्छे नहीं थे।मुखिया
की निंदा करने वालों की संख्या चूँकि अधिक थी इसलिए लड़के ने चालाकी से काम
लिया और वह भी बाप की निंदा करने वालों में सम्मिलित हो गया।इससे उसे बड़ी
लोकप्रियता हासिल हुई।लोग बड़ी बड़ी भीड़ लगाकर उसे सुनते, तालियॉं बजाते, और
सबको बताते कि ये मुखिया का लड़का है। भीड़ देखकर लड़का भी खुश था जबकि उसकी
मॉं को बहुत बुरा लग रहा था।वह अपने पति के निंदकों में पुत्र को भी देखकर
बहुत दुखी होती और वह बेचारी उससे भी लड़ती।
पुत्र को लगे कि हमारे विकास से मॉं को जलन होने लगी
है।मॉ अपने बेटे को बार बार समझाती कि बेटा ! जब तुम्हारे पिता जी सक्षम
थे तो ये लोग उनके पास दिनभर चाटुकारिता करते थे अब निंदा करते हैं।बेटा
अपने रास्ते पर दिनोंदिन आगे बढ़ता जा रहा था।उसे अपार जन समर्थन मिला उसने
बड़ी बाहा बाही लूटी एक दिन उसके अपनों ने ही उसे जहर दे दिया और बह मर
गया। माँ उस शव के पास बैठ कर रोती और चिल्लाकर कहती कि बेटा काश अपनी
दुर्दशा देखने को तू आज जिंदा होता तो तुझे भी पता लगता कि कैसा है यह
संसार और कैसे हैं लोग?
श्रद्धेय दयानंद जी भी इसीप्रकार एक ब्राह्मण परिवार
से थे उनके पिताजी ने उन्हें संस्कृत पढ़ने बड़ी उम्मीद से भेजा होगा सोचा
होगा कि बालक संस्कार सीख कर आएगा हुआ भी ऐसा ही दयानंद जी उच्चकोटि के
विद्वान एवं उच्च संस्कारों से युक्त हुए इसमें संदेह करने की गुंजाईस नहीं
है। भाषा संस्कृत और आचरण भी संस्कृत थे किंतु उपदेश असंस्कृत हो गए।
इतना बड़ा महापुरूष केवल थोड़ी सी प्रसिद्धि पाने की ललक में उस मुखिया के
बेटे की तरह सनातन समाज को भटकाकर चला गया।
दयानंद जी उच्चकोटि के विद्वान थे वो संसार के सच को
समझ चुके थे किंतु आम पब्लिक न ही उतनी विद्वान थी और न ही साधक उसने तो
बस इतना समझा कि सनातन धर्म की मान्य मान्यताओं को अंध विश्वावास कह कर
उन्हें कोसने का नाम ही आर्य समाज है। इसलिए उसने वेद या वैदिक साहित्य पढ़ा
हो या न पढ़ा हो पढ़ने की आवश्यकता भी वो नहीं समझता कभी कदा सभा सम्मेलन
करके वही बस सनातन धर्म कर्म को गाली देने की लीक पीटता चला आ रहा है।उसे
खुशी इस बात की है कि चलो इसी बहाने सही पूजापाठ आदि धार्मिक कर्मकांडों को
करने से से मुक्ति तो मिली यह कौन कम है।
इससे हानि यह हुई कि वेद एवं वैदिक साहित्य कठिन
भाषा में है जिसे आम जनता पढ़ नहीं पाएगी और वेदों की वृहद व्याख्या स्वरूप
जो पुराण आदि हैं उन्हें दयानंद जी के अनुयायी पढ़ने नहीं देंगे।इसप्रकार
जनता धर्म कर्म से विमुख होकर अपराध की ओर नहीं जाएगी तो करेगी क्या?
आप स्वयं सोचिए की शिवरात्रि पर्व पर जिस चुहिया को
देखकर दयानंद जी को शंका होने की बात कही जाती है हो न हो शिवजी ही उस वेष
में आकर प्रसाद खाने लगे हों तो केवल चंचलता से कोई ऋषि कैसे भ्रमित हो
जाएगा? यह बात समझ के बाहर की है और यदि ऐसा हो ही गया हो तो उनके
अनुयायियों की सोच पर क्या भरोसा ?
जैसे ए से एपल कहने से सेब का स्वाद तो नहीं आने लगता इसीप्रकार एपल से ए का कोई संबंध भी नहीं है फिर यह भी सच है कि एपल वाला ए कहने से सुकुमार बच्चे को ए याद करने में सुविधा होती है।यदि इसे ही कोई कुतर्क करने वाला किसी कागज पर ए लिखकर फिर समाज को बेवकूफ बनाने के लिए समझावे कि देखो ए में स्वाद कलर या वजन कुछ भी तो सेब जैसा नहीं है तो ए से एपल कैसे हो सकता है?
इसी प्रकार से दयानंद जी ने मूर्ति पूजा का खंडन किया है।जैसे बड़े होने पर बच्चा स्वयं समझ जाता है कि एपल से ए
का कोई संबंध नहीं है हमें समझाने के लिए इस संबंध की कल्पना की गई
थी।अज्ञानियों को मूर्ति पूजा के द्वारा ही प्रेरित किया जाता है। प्रबुद्ध
लोग तो जैसे भी चाहें वैसे ही पूजा कर सकते हैं।
जहॉं तक ज्योतिष की निंदा का प्रश्न है दयानंद जी
ने भविष्य जानने का कोई इससे अच्छा सटीक रास्ता दिखाया होता तो लोग उसे
मानने लगते किंतु उन्होंने ऐसा कुछ किया ही नहीं, केवल ज्योतिष शास्त्र
की निंदा करने लगे जिसे समाज ने स्वीकार नहीं किया क्योंकि समाज को पता है
कि जो शास्त्र जिसे समझ में नहीं आते हैं वो उनकी निंदा करने लगता है।आज भी
दयानंद जी को मानने वाले कितने लोग हैं जो ज्योतिष जानते भी हैं?
निराधार बकवास तो कोई किसी भी विषय में कर सकता है।आज भी ज्योतिष शास्त्र
को सच मानने वालों की संख्या दयानंद जी को मानने वालों से ज्यादा है। ये
उनकी समाज की स्थिति और उसका प्रभाव है।
हमें तो आज एक और आश्चर्य हुआ। किसी टी.वी. पर मैं
देख रहा था। दयानंद समाजियों के द्वारा सनातन धर्म कर्म की निंदा वाली वही
पुरानी लकीर पीटने वाली रीति निभाई जा रही थी। अंधविश्वास के विरूद्ध अंध
भाषण के नाम पर कुछ अंध लोग किसी अंध सभा में चीख चिल्ला रहे थे। मैंने
वहॉं एक मुख्य मंत्री जी को बोलते सुना कि उनके पूर्वजों ने हिंदी के लिए
कितना बलिदान किया है।
हिंदी के लिए कोई कानून बन रहा था जो केवल एक बोट
से पास हो पाया था वह बोट उन सदस्य महोदय का था जो उस समय बाथ रूम में थे
उन्हें निकालकर उनसे वोट डलवाकर हिंदी का कानून पास कराने का काम उनके
पूर्वजों ने ही किया था ये तो बहुत प्रशंसनीय है किंतु उन पवित्र
पूर्वजों के पौत्र को बाथरूम की हिंदी नहीं आती यह शर्मशार कर देने वाला सच
था जबकि यह परिवार कई पीढ़ियों से दयानंदी सम्प्रदाय का सम्मानित आचार्य
है। इस संप्रदाय में इतनी इतनी गल्तियों की वजह से ही यह समाज कभी पनप नहीं
पाया क्योंकि ये जो समझाते रहे वो स्वयं समझ नहीं पाए कि इन्हें समझाना
क्या है और वो समझा क्या रहे हैं?और वो हिंदी की प्रशंसा में हमेंशा बाथरूम
ही बोलते रहे उसकी हिंदी शायद इसलिए नहीं समझ पाए कि कहीं वो भी अंध
विश्वास की श्रेणी में न आता हो।
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