Saturday, November 3, 2012

कैंसर और भयावह मनी कैंसर

   

  हम केवल जीना चाहते हैं या जीवन का आनंद भी चाहते हैं ?  

 समय के साथ-साथ बड़ी तेजी से जीवन मूल्य बदलते जा रहे हैं । सहजता, सादगी एवं वास्तविकता में जीवन जीने वाले लोग दुर्लभ होते जा रहे हैं। प्रकृति विपरीत जीवन दबावों से इतना अधिक बोझिल है कि आदमी का अपने ऊपर से विश्वास उठता जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में अपनों के विश्वास का क्या होगा? अपनों एवं अपने बिना जीवन संभव है क्या? इस बात पर बिना विचार किये प्राणी भाग रहा है। कितना उलझा है जीवन? इंद्रियाँ  चाहती कुछ हैं, प्राणी दे कुछ पा रहा है, देना कुछ चाह रहा है, क्षमता कुछ है। इन सबके बीच कहीं कोई तालमेल नहीं बैठ रहा है। ये समस्त प्रक्रियाएँ  एक ही शरीर में द्वंद (युद्ध) मचा रही हैं। व्यक्ति अपने भीतर के अपनों से इतना अधिक जूझ रहा है कि अपने बाहर एवं बाहरी अपनों से कौन मिलता है या किसकी चाह बची है? बात अलग है कि कहीं जाते समय शरीर लेकर पहुँचना मजबूरी है। वैसे कम लोगों को ही इस बात का एहसास रहता है कि वह जहाँ हैं शरीर भी उनके साथ है। इसीलिए चलते भागते दौड़ते किसी को किसी से कोई चोट चपेट लग जाती है तो सामने वाले के सॉरी कहने के अंदाज से लगता है कि उसके अपनों से चोट लगी है। इसमें उसकी अपनी कोई गलती नहीं है।उसके चेहरे पर  कोई क्षमा भावना नहीं होती। लोग विवाह करते समय जिसे चाहते हैं वो मिलती नहीं, जो चाहती है उसे चाहते नहीं, जो मिलती है उसके प्रति अपनापन नहीं है, जिसके लायक अपने को मानते हैं वह औकात नहीं होती। मानव स्वभावतः अपना मूल्यांकन अपनी वास्तविकता से अधिक करता है। ऐसी भावनाओं के कारण दाम्पत्यिक ही नहीं हर प्रकार के अपने सगे संबंधियों से दूर मानसिक वियावान (जंगल) में भटक रहा है अखिर किस लिए? मनुष्य सामाजिक प्राणी है। यह जंगली जीवों की तरह कैसे रह सकता है। प्रकृति विरुद्ध जीवन शैली से अनेक प्रकार के मनोरोगों से जीवन दूभर हो गया है जिनका वर्णन आयुर्वेद की सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, माधव निदान आदि में पर्याप्त है। औषधि के नाम पर संयमित एवं सात्विक जीवन जीने के लिए प्रेरित किया गया है जो वर्तमान आदिवासी भावनाओं से भावित निष्प्राण प्राणियों में बैठी दबी कुचली असहज आत्माएँ  इंद्रियों के आग्रह की प्रदीप्त अग्नि में आत्महत्या कर रही हैं।
    क्या होता जा रहा है हमें? क्या हम वास्तव में जीना नहीं चाहते? केवल शरीर ढोए जा रहे हैं। हम केवल जीना चाहते हैं या जीवन का आनंद भी चाहते हैं-इसका निर्णय हमें स्वयं करना होगा। यहाँ  हमारी कोई कितनी मदद कर सकता है? आयुर्वेद जीवन के तीन मुख्य उपस्तंभ मानता है। आत्मा, तन (शरीर) और मन। इसका सहज आशय था कि स्वस्थ आत्मा से अनुशासित मन अपने तन को स्वस्थ एवं सुंदर बनाये रखेगा। यह अनादि काल से ऋषियों  के द्वारा संशोधित जीवन शैली थी। इसमें वर्तमान परिस्थितियों में संशोधन करके आत्मा को सेवा मुक्त कर दिया गया। उसकी जगह नियुक्ति हुई धन की। इस रूप में जीवन के मुख्य उपस्तंभ धन, मन और तन बनें। अब धन से अनुशासित मन मानवतन को बलात् जोत रहा है। यह वैसी ही परिस्थिति है जैसे कोई व्यभिचारिणी स्त्री अपने पुत्र को लेकर भाग जाती है। किसी और के साथ रखैल बनकर जीने लगती है। ऐसी परिस्थितियों में वह जार पुरुष उस रखैल की संतान से जितना लगाव रख सकता है, उतना ही लगाव धन का तन से हो सकता है। धन ही जार पुरुष है, मन ही रखैल स्त्री है और तन ही संतान है। ऐसी परिस्थिति में अनाथ तन व्यभिचारिणी माता (मन) के माध्यम से सौतेले बाप (धन) की चाटुकारिता में भटक रहा है। तथाकथित साधू संत भी अपने उपदेशों में अब आत्मा को भूल चुके हैं। वहाँ भी  तन-मन-धन ही जीवन के मुख्य उपस्तंभ माने जाने लगे हैं। यहाँ तक सोलहवीं शताब्दी में श्रद्धानन्द फिल्लौरी ने ओम जय जगदीश हरे आरती लिखी उसमें भी ‘तन-मन-धन’ सब संपत्ति सब कुछ है तेरा लिखा। आत्मा के अस्तित्व को ही भुला दिया गया। यह धन का प्रभाव मानव जीवन के उपयोगी अंदर एवं बाहर के समस्त आवश्यक चेतन अंगों को शून्य करता जा रहा है क्योंकि चेतना आत्मा का स्वरूप है। आत्मा सेवा मुक्त चल रही है। हर जीवन धन के लिए परेशान है। किसी के पास धन नहीं है, किसी के पास धन अधिक है। कोई कह नहीं पा रहा है। कोई सह नहीं पा रहा है। धन कितना कौन चाहता है और कितना किसे मिल पा रहा है, यह सब भाग्य के अधीन है। अनिश्चित है, अस्थिर है। कई बार सारे जीवन गरीबी रहती है। कई लोगों का माध्यम आजीविका साधन है, कई का कभी बहुत अधिक कभी बहुत कम है। कई का बहुत अधिक ही रहा है। हर परिस्थिति की अपने में भी बहुत श्रेणियाँ  हैं किन्तु आत्मा हर किसी में हमेशा एक सी रहती है, यह निश्चित है और स्थिर भी है। इस प्रकार आत्मा के सुदृढ़ आधार पर स्थापित मन को हमने बलपूर्वक वहाँ  से हटाकर धन की डाँवाडोल स्थिति पर स्थापित कर रखा है। इसलिए जिसके पास धन नहीं है उसका मन गिरा रहता है, जिसके पास धन अधिक है वह धन से इतना अधिक मूर्च्छित है कि मन फ्यूज हो गया है। ऐसी विषम परिस्थितियों में धनाधीन जगत अस्थिर, अनिश्चित, असंतुलित एवं असंयमित होकर अपराधी प्रवृत्तियों की अंतहीन दौड़ में सम्मिलित है। इस धनाधीनता रूपी मनी कैंसर से बचने लिए आत्मा की आधीनता स्वीकार करके आंतरिक एवं बाह्य जगत की वास्तविक परिस्थितियों में जीवन का अभ्यास करके अपनों को अपनापन देकर जीवन के वर्तमान बोझ से बचा सकता है।
    आत्मा, मन और तन को स्वस्थ रखने के लिए दीक्षा (आत्म ज्ञान) शिक्षा (व्यवहारिक एवं व्यापारिक ज्ञान) चिकित्सा (स्वस्थ शरीर की परिकल्पना) संस्कृति अनंत काल से चली आ रही है। इस प्रकार दीक्षा से आत्मा, शिक्षा से मन और चिकित्सा से तन सदैव ऊर्जावान बने रहते थे। ऐसी जीवन शैली में अभावग्रस्त लोग भी स्वभाव से मस्त होकर गौरव से जीवन काट लेते थे। अब ऐसा नहीं है। मस्ती आनन्द से होती है। आनन्द आत्मा में होता है। आत्मा को हम लोगों ने सेवा मुक्त रखा है। इसलिए सारा समाज विषाद (दुःख) ग्रस्त है। आत्मा की प्राण प्रतिष्ठा पुनः किस प्रकार प्राणियों में हो, इसके विषय में कोई प्रयास भी नहीं हो रहा है।
    पहले आत्मा, मन और तन को स्वस्थ रखने के लिए दीक्षा, शिक्षा, चिकित्सा थी। इन तीनों को स्वस्थ रखने के लिए संतो, शिक्षकों, चिकित्सकों का सुदृढ़ दायित्व होता था। ये तीनों ही जिस वर्ग से आते थे उसे ब्राह्मण कहा जाता था। ब्राह्मण हमेशा जाति की अपेक्षा विद्वान, त्यागी-तपस्वी, चरित्रवान, संयमी, शीलवान, मधुरभाषी आदि सदाचरणों से युक्त धनहीन होता रहा है। जिस ब्राह्मण का धन से ही कोई संबंध नहीं था वहाँ मनी कैंसर की कल्पना नहीं का सकती थी। ऐसे आत्मवान ब्राह्मण धन के अभाव में भी मन और तन को तपः स्वाध्याय निरतं अर्थात तपस्या और स्वाध्याय (शास्त्रों के अध्ययन) का पाठ पढ़ाकर समाज को स्वस्थ रख लेते थे।उस समय जातियों का प्रचलन तो था किन्तु जातिगत आरक्षण आदि बीमारियाँ न होने के कारण  समाज में जातियाँ  जहर नहीं थीं।लोग गुण, चरित्र, तपस्या आदि से ही किसी का मूल्यांकन किया करते थे।केवल जातियों का ही महत्व यदि होता तो इतने तपस्वी विद्वान प्रतापी राजा रावण के वध की माँग सबसे पहले ब्राह्मणों ने ही न उठाई होती।आखिर रावण भी तो ब्राह्मण था ! 

     वह सुशिक्षित, सहनशील, बुद्धिमान महापुरुषों का युग था।वो लोग किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं होते थे। आपस में आत्मा के स्तर पर समता थी जो सामाजिक समरसता का प्राण था। ब्राह्मण की केवल जाति का महत्व नहीं था। जाति, शिक्षा, तपस्या तो रावण के साथ-साथ उसके समस्त अनुयायियों के अस्तित्व की मुख्य आधार ही थी। जाति के विषय में राम चरित मानस में लिखा है-‘‘उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती’’ शिक्षा के विषय में प्रकाण्ड पंडित था और तपस्या में अपने सिर ही काट-काट कर कई बार भगवान को समर्पित किये थे, भगवान भी उसके कोई दूसरे नहीं थे। शिव का उपासक था। सब कुछ होते हुए भी आत्मा को सेवा मुक्त कर चुका था। वैसे भी धन में मन रखने वाला व्यक्ति आत्मा के पथ पर ठहर नहीं सकता है। इसी कारण रावण में सदाचार का अभाव रहा। सदाचार से हीन प्राणी विशेषकर ब्राह्मण समाज के लिए कैंसर से अधिक अहितकर होता है। हमारा ब्राह्मण कहने का अभिप्राय मात्र इतना है कि जातिगत आस्था रखने वाला समाज भी सुरक्षित रह सके।
    हमारी बात का आशय धन से विरक्ति नहीं हो प्रत्युत धनवान होकर आत्मवान रह पाना अत्यंत कठिन होता है जो सबसे अधिक आवश्यक है। यदि ऐसा अभ्यास किया जाए तो उत्तम है। सदाचार के अभाव में ही मनी कैंसर से पीड़ित रावण के विशाल ब्राह्मण वंश को ध्वस्त करने की प्रार्थना आत्मवान ब्राह्मणों ने ही श्रीराम से की थी। निषाद, सबरी, वानर और गिद्ध जैसे उपेक्षित वर्ग भी अपने सदाचार के कारण ही श्रद्धा के पात्र बन सके। ये कोई भी श्रीराम से स्वयं मिलने भी नहीं गये। श्रीराम स्वयं इन सबको ढूँढ़कर मिले थे जिसमें शबरी को माता, जटायु को पिता जैसे सम्मानित स्थान पर प्रतिष्ठित किया। यदि कहा जाए कि बंदर भालू आदि सभी देवताओं के रूप में अवतारी पुरुष थे इसलिए श्रीराम ढूँढ़कर मिले थे। यदि ऐसा होता तो देवता लोग मनुष्य शरीर धारण कर सकते थे। उनके लिए कोई समस्या नहीं थी। इसका संदेश एक मात्र कारण यह था कि आत्मवान होकर सामाजिक समरसता का निर्माण करना हर जाति, वर्ग और योनि में संभव है। आसुरी शक्तियाँ  मनी कैंसर से प्रभावित रहती हैं, जिसकी एक मात्र औषधि है आत्मवान होकर जीवन यापन करना

    धन की ऐसी गति है कि व्यक्ति जिसे धन देता है उसे तो याद रखता है किंतु जो उसे धन देता है उसे भूल जाता है। इसीलिए आजकल पंडित, महात्मा, ज्ञानी, गुणवान, गुरु प्रचारक, मुनि, महंत सब धन माँगते हैं। यहाँ  राजनैतिक पार्टियाँ  भी सदस्य बनाने के लिए धन मँगाती हैं ताकि अपनी यादगार सामने वाले के मन में छोड़ी जा सके। सीधी सी कहावत है कि जहाँ  जाए धन वहाँ  लगे मन। और यदि धन कहीं न जाए तो मन भी कहीं नहीं भटकेगा। यदि धन होगा तो जाएगा ही। धन का एक नाम द्रव्य भी है। द्रव्य का अर्थ होता है बहने वाला अर्थात बहने वाले तरल पदार्थ को सँभाला भी नहीं जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि मन ही मनुष्य को बंधन और मोक्ष देता है। मन आत्मा की ओर बढ़ा तो मोक्ष, धन की ओर बढ़ा तो बंधन है।
    आज दीक्षा, शिक्षा, चिकित्सा गरीब ब्राह्मणों के हाथ से हटकर अर्थोत्पादन की गंभीर बीमारी से जूझ रही है। दीक्षा अर्थात आध्यात्मिक प्रेरणा देने वाले, शिक्षा अर्थात चिकित्सक वर्ग-तीनों ही मनी कैंसर की गंभीर चपेट में आ चुके हैं। धन के दोष तीन स्वरूपों में प्राणी को नष्ट करते हैं।पहला है अहम अर्थात अहंकार, दूसरा है वहम अर्थात मिथ्या धारणा और तीसरा है लालच।अर्थात किसी वस्तु को प्राप्त करन के लिए सभी सीमाएँ तोड़ देना। इन तीनों दोषों में मनुष्य फँस जाता है। धीरे-धीरे ये दोष हृदय तक पहुँच कर कंजूस एवं लोगों, सगे-संबंधियों के प्रति निर्दयी बना देता है। इसी क्रम में यह दोष मन तक पहुँच कर स्वजनों के प्रति बुरा बर्ताव, न्याय-अन्याय के विषय में बिना सोचे किसी को सताना, धमकी देना, दूसरे की भावना को परवाह किये बिना अपनी भावना थोपते जाना, अपने जीवन के सारे संबंध धन एवं धनवानों तक ही सीमित कर स्वजनों को अपमानित करते रहने की प्रवृत्तियाँ पनपाने लगता है। ऐसी भयावह स्थिति को मनी कैंसर नाम से जाना जाता है। इसकी अंतिम अवस्था में व्यक्ति असहाय होकर औरों के आधीन हो जाता है जिसमें पागलपन, हार्ट अटैक या संताप रोग से मृत्यु को प्राप्त करता है। इसी बात को ज्योतिष शास्त्र में दूसरे रूप में कहा गया है। महर्षि पराशर कहते हैं-एक सहज मृत्यु होती है जिसका विचार मृत्युभाव अर्थात अष्टम स्थान से किया जाता है। दो असहज या अप्राकृतिक मृत्यु कही गयी हैं पहली धन के कारण दूसरी स्त्री के कारण। इस प्रकार कुंडली में द्वितीय और सप्तम स्थान को भी मारकेश कहा गया है।
    इस प्रकार धन के महत्व को जीवन में नकारा नहीं जा सकता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में पहले के तीनों तो धनमय ही है। प्रयास सदैव इतना अवश्य करते रहना चाहिए कि धन का प्रवेश मन में न होने पाए। धन यदि मन में पहुँचा तो जाते ही जहर बनना प्रारंभ हो जाता है। जीवन बदलने लगता है। बोली, भाषा, रहन, सहन, आवश्यकताएँ, उपदेश, स्वरूप रचना, मान-सम्मान की भावना आदि विकृतियाँ  प्रदूषित मन के कारण लक्षित होने लगती हैं। इस बीमारी के शिकार बहुत से विरक्त मुनि-महात्मा लोग भी हैं। योग, साधना, उपदेश, आश्रम, स्वरूप रचना यंत्र-तंत्र ताबीज सिद्ध होने का आडंबर आदि अनेकों लक्षण बाबा बैरागियों में भी पाये जाते हैं। गृहस्थों की तरह कंचन-कामिनी के लिए विरक्तों में भी हत्याएँ  होते सुनी जाती हैं। आखिर विरक्तों के कंचन-कामिनी  कैसे? आगे आप स्वयं प्रबुद्ध हैं। मेरी व्यक्तिगत राय है आप स्वयं आत्मवान बनिये। किसी का सहारा मत लीजिए। सब भटके हुए हैं। पहचानना कठिन है। ईश्वर मदद करेगा, धर्म रक्षा करेगा, सात्विक सोच से मनी कैंसर पर विजय पाई जा सकती है।


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